March 26, 2019

क्या तुम्हें नहीं लगता

"क्या तुम्हें नहीं लगता  ? " ( कविता)
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१.

यह जो हमारी सदी है
क्या तुम्हें नहीं लगता
बह रही है लेकिन भटकी हुई नदी है
और हम सब थके - हारे तैराक ?
जो धीरे धीरे भूलते जा रहे हैं तैरना
तैरते हुए लगातार 
फिर रोज एक नया भटकाव
खत्म कर देता है किनारे की संभावना
एक के बाद एक
पानी का तेज बहाव 
बढ़ता दबाव
जाने कब तोड़ दे कंधे
कब टूट जाए तनी हुई डोर सांसों की
किन थपेडों में दिशाएं गुम हो जाएं
खो जाए नीला आकाश भविष्य का
कब बुझ जाएं हमारे
सूरज, चांद और तारे
न मालूम कब
हम सब बन जाएँ ऊपराती लाशें
क्योंकि भूल रहे हैं हम तैरना
क्या तुम्हें नहीं लगता  ?

२.

कंधे सुबह-सुबह
शर्ट के हैंगर - से
खूब सीधे,  तने - खड़े
संजे- संवरे बाल
कंडीशनर की सोंधी गंध
डोलती है आसपास
हवा में बिखर जाती
शाम तक 
उजड़ जाते बाल -  विन्यास
याद नहीं रहती है
पिछले पाकिट में कब खोंसी थी कंघी
लेकर झुके कंधे
लटका हुआ लेदर बैग - सा मुखड़ा
कहती थी बीबी कभी चांद का टुकड़ा

याद है
झुलसाती दोपहर
खेत जोतकर
भूखे -प्यासे बैल
पीछे - पीछे मेरे पिता
लौटते थे घर
कंधे पर हल लिए
हल पर लिए हौसले का पहाड़
पहाड़ से उतरती उम्मीद की पतली नदी
उसमें धोकर रोज
अपने भरोसे का
दुख में मैला हुआ पुराना गमछा
सुखाते हुए दोपहर की धूप में
मेरे पिता भी
लौटते थे घर थके
लेकिन बुझे नहीं मेरी तरह
हारे या लुटे – पिटे नहीं
न ही इतना अन्यमनस्क
जैसा हम लौटते हैं रोज
शायद कभी हम लौटते भी नहीं हैं घर

यहाँ तो घर में
बाथरूम के कमोड पर भी ख्याल आता है-
बैठा हूँ उसी कुर्सी पर
और खुल जाता है
दिमाग के पिछले दराज में वही दफ्तर
शुरू होता है आत्म-मंथन भी
आखिर क्यों नाराज हो गया मेरा देवता ?
कहाँ गलती हुई ?
क्या हुई चूक ?
क्या पता कब चल जाए कार्रवाई की बंदूक !
भई, क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता ?

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