दाल / कविता

दाल  / कविता

उदास हो जाती है
रंग और स्वाद के बिना जिंदगी
हल्दी और नमक के बिना
दाल कितनी उदास हो जाती है !

शाश्वत चूल्हे की आग जैसे समय
प्रेशर कुकर है या संसृति
सीटी या सीत्कार
उबलता पानी है शायद दुख
पक रही है दाल 
लेकिन अब दाल उदास नहीं रहेगी
उसमें आएगा रंग, स्वाद और गंध

अब आ गई हो तुम
लगेगा छौंका या तड़का प्रेम का
कलछी जो है तुम्हारा हाथ
श्रम के गरमाते तेल में पकेगा
तुम्हारी मुस्कान का चुटकी भर जीरा
हींग जैसे तुम्हारी सांसों की गर्मी हर लेगी
उदास दाल की ठंडी थकान
क्योंकि अब आ गई हो तुम
बदल गई है घर की हवा !□□□

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