नामवर के जाने पर/


आज पता चला
नामवर ! तुम शरीर नहीं थे
आत्मा भी नहीं थे तुम
शरीर और आत्मा के बीच पसरे हुए शून्य में
एक जीवित संवाद थे तुम

तुम नहीं थे कोई बरतन
समेटे हुए बस हवा, मिट्टी, पानी, आग या आकाश
तुम तो थे बस बर्तन के आकार में
विस्तृत हुई संवेदना का अनमोल आयतन
हवा का सिसकी – भर बहाव
मिट्टी की चुटकी - भर उर्वरता
पानी की चुल्लू - भर नमी
आग की चिंदी - भर गर्मी
आकाश का मुट्ठी – भर शून्य – विस्तार
और क्या – क्या नहीं था उस आयतन में !

...लेकिन तुम नहीं थे
पत्तों के बीच से झांकता , स्वादिष्ट कोई फल
जो मिटा सकता है सिर्फ भूख या लालच
तुम थे असंख्य पत्तों से बनी वह घनी छांह
जो मिटाती है थकान
सदियों थकी आत्मा की !
सचमुच बरगद थे तुम नामवर
जड़ें थी तुम्हारी जमीन और आकाश में !

तुम नहीं थे फूल न ही कांटा
तुम तो थे बस रंग, गंध या चुभन

नामवर ! तुम यात्री नहीं थे
तुम थे एक यात्रा
जिसे करते हुए आज रुक गया समय
कुछ क्षणों के लिए बस
शायद बताने के लिए –
“मनुष्यता और कुछ नहीं,  मेरी यात्रा ही है ।”
नामवर का होना संकेत है कि समय अपनी यात्रा पर है
नामवर का न होना मतलब फिर कोई चौराहा है आगे
लेकिन समय फिर गति पकड़ेगा !

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