कि और भी गिर गए हैं हम सब
और खो गई है आत्मा हम सब की
हम ठीक से उठे ही कब हैं
चले ही कब हैं अपने - अपने पैरों से ?
दूसरों के पैरों चलना चलना नहीं है
उसमें तय नहीं होती कोई दूरी कभी
क्या पा सके हैं अबतक
हम सब अपनी - अपनी आत्मा ?
उधार की आत्मा से जीवित हम सब
उधार के पैरों से चलते हुए
आखिर कबतक कहते रहेंगे
कि गिर गए हैं हम सब
और खो गई है आत्मा हम सब की ?
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