न्यूटन की गति के नियम के पार

न्यूटन के नियम के पार


बुद्धिजीवी वर्ग में एक परिपाटी या ट्रेंड अक्सर देखने को मिलता है, वह है जीवन की हरेक व्यक्तिगत या सार्वजनिक बातों या गतिविधियों की छानबीन कर उनमें निहित या प्रकट वैज्ञानिक एवं अवैज्ञानिक बातों के बीच एक मोटी रेखा खींचना। रेखा के इस पार के सब बुद्धिचर वैज्ञानिक चिंतन या वैज्ञानिक अप्रोच के वाहक - गाहक और क्रांति - चेतना के सूत्रधार कहलाते हैं और उस पार के लोग बुद्धू,  अंधविश्वासी,  पारंपरिक, यथास्थितिवादी और पुरातनपंथी जड़ता के पोषक दक्षिणपंथी माने जाते हैं । 

वैज्ञानिक चिंतन की पक्षधरता ने निस्संदेह मनुष्य की विकास - यात्रा में ऐसे पड़ाव जोड़े हैं कि उनपर गर्व किए बिना मनुष्यता संतुष्ट नहीं हो सकती। जीवन, जगत् और ब्रह्मांड के प्रति वैज्ञानिक अप्रोच ने मानव- सभ्यता को बिल्कुल नई दिशा और नया स्वरूप दिया है, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती परन्तु इस पक्षधरता ने मनुष्य में कुछ मानसिक अराजकताएं और उलझनें भी पैदा की हैं जो बिल्कुल नए तरह की हैं जो मुख्यतया मनोवैज्ञानिक हैं और जिन्हें सिर्फ वैज्ञानिक तरीके या प्रणाली से समझ पाना शायद नामुमकिन है।

इस संबंध में न्यूटन के उन दो नियमों का मोटे तौर पर हवाला देना चाहूँगा । एक नियम है जड़ता का और दूसरा है गति का। इन दोनों नियमों में एक बात बिलकुल उभयनिष्ठ है वह है जड़ता की प्रवृत्ति की बात। न्यूटन ने स्थिर और गति दोनों स्थितियों में जड़ता की प्रवृत्ति को निहित माना है। कोई वस्तु गति में है तो वह गति में बने रहने की ओर प्रवृत्त रहती है और इसी तरह स्थिर है तो स्थिरावस्था में ही रहने की प्रवृत्ति धारण किए रहती है । यानी दोनों हालत की प्रवृत्ति जड़ता की ही प्रवृत्ति है। तात्पर्य यह है कि न्यूटन का नियम एक अर्थ में जड़ता की प्रवृत्ति का ही नियम है जिसमें जड़ता का कोई विपरीत स्थितिधारी तत्व नहीं है। तो  जीवन जो चेतनता से लैस है, क्या उसकी चेतनता भी जड़ता के ही नियम से चलेगी ? अगर नहीं तो किस नियम से चलेगी ? यह विचारणीय मुद्दा हो सकता है।  क्या कोई अन्य वैज्ञानिक या परावैज्ञानिक नियम है जो जीवन के विकास को पूरी तरह तय करने में सक्षम है ?  

मजे की बात यह है कि हम जीवन को जो चेतना - सम्पन्न है, संभावनाशील है, हमेशा किसी वैज्ञानिक चिंतन के उस आईने में देखने की कोशिश करते हैं जिसमें हमारा सिर्फ भौतिक शरीर दिखता है, हमारे अस्तित्व का रूपाकार दिखता है जो वैज्ञानिक दृष्टि से  मूलतः जड़ तत्व का ही गठजोड़ या समन्वय है। जीव विज्ञानियों या फिर शरीर विज्ञानियों के लिए जीवन सिर्फ कुछ वाइटल आर्गेन  अथवा अनिवार्य अंगों के पारस्परिक और उचित व्यवस्थित क्रियाकलापों का परिणाम मात्र है। वे शरीर को लीवर, किडनी, हृदय,  फेफड़े, मस्तिष्क आदि के रूप में जानते हैं और इसलिए जीवन, उनके लिए इन अंगों के समन्वित संचालन की व्यवस्था या तंत्र से ज्यादा कुछ भी नहीं । यह सही है कि इनके बिना न शरीर रहेगा न ही जीवन, लेकिन शरीर या जीवन में ऐसी कौन - सी बातें हैं जो यह तय करती हैं कि ये अंग कबतक काम करते रहेंगे या फिर जीवन कबतक बना रहेगा ।

दूसरी बात, लोग आजकल बात - बात में न्यूटन की गति के तीसरे नियम का हवाला भी देते हैं " क्रिया और प्रतिक्रिया एक दूसरे के विपरीत और दो अलग-अलग वस्तुओं पर कार्य करती है "। यहाँ भी यह नियम जड़ तत्व का ही नियम है । इसे चेतन - तत्व से लैस जीवन के संदर्भ या परिप्रेक्ष्य में देखना अनर्थकारी हो सकता है और हो भी रहा है। क्रिया के विरुद्ध प्रतिक्रिया का नियम जीवन में जड़ता या जड़ भावों को ही बढ़ावा देगा, संवेदनात्मक विभूतियों को नहीं । आज के घोर सामाजिक टकराववाले इस दौर में इसे समझना बहुत जरूरी है । खासकर भारतीय समाज में अभी झांकें तो बस प्रतिक्रियात्मक क्रियाओं का ही दौर चल रहा है । दलित के उत्थान के लिए सवर्णों को ठिकाने लगाने की सामाजिक प्रवृत्ति प्रतिक्रियात्मक है  reactionary है, responsive अथवा उत्तरदायी नहीं। बाबर की गलती के लिए किसी खास समुदाय की वर्तमान पीढ़ी से प्रतिशोधात्मक मुद्रा में पेश आना प्रतिक्रिया ही है। ये प्रतिक्रियाएं बिल्कुल उन क्रियाओं की है जो संकीर्ण मानसिकता के इतिहास- पुरुषों ने की थीं। स्वाभाविक है कि हम प्रतिक्रिया के नियम में बंधेंगे तो वही सब होगा जो पहले हुआ था और अभी भी हो रहा है। 
तो जीवन की चेतनता के नियम में प्रतिक्रिया के लिए कोई जगह उचितन नहीं है। क्रिया के परिणाम में reaction नहीं response देना होगा तभी असली संवाद बना रहेगा और संवाद ही हमें बेहतर  हालात दे सकता है । गांधी और अन्य आंदोलनकारियों में यही गहरा फर्क था। गांधी अंग्रेजी हुकूमत की क्रिया के विरुद्ध प्रतिक्रिया नहीं देते थे, वे उचित जबाब देते थे, proper response देते थे जिससे सत्ता से संवाद की गुंजाइश बनी रहती थी। गांधी जी को शायद मालूम था कि जड़ता के नियम से जीवन की धारा तय नहीं होगी। जीवन कोई कण, पिंड या पदार्थ नहीं । यह निराकार चेतना का साकार परिणाम है। वह निराकार चेतना कभी गुरुत्व या जड़ता के नियम से निर्देशित नहीं हो सकती क्योंकि विज्ञान के नियम ही जड़ तत्वों को लेकर है। इसलिए इसकी सीमा है। और इसकी सीमा है ऐसा कहने में भी कोई बुराई नहीं है।
इस संदर्भ में एक बात और क़ाबिले गौर है। आज हम जिन पुरानी बातों , ग्रंथों,  नियमों या स्मृतियों  की भर्त्सना कर रहे हैं, एक बात याद रखें वे बातें,  ग्रंथों, नियम या स्मृति आसमान के तारों की गति देखकर नहीं बनाए गए थे। ये सब जब उस वक्त लागू हुए होंगे किसी न किसी परिस्थिति के response में लागू किए गए होंगे और स्वीकृत किए गए होंगे । बिना आम स्वीकृति के भले ही वह राजा या किसी खास शक्तिसंपन्न वर्ग की स्वीकृति रही हो  ये नियम सदियों तक हमारी जीवन - दिशा को प्रभावित नहीं करते रहे, इनकी निश्चित रूप से तत्कालीन उपयोगिता बनी रही होगी। काल के एक खास खंड में जिसे आम तौर पर संक्रमणकाल कहते हैं, जब ये नियम या मूल्य कालबाह्य होने लगे, विकास के नियम - निर्धारक तत्व बदलने लगे तो यह तय था कि इन आउटडेटेड तत्वों को कूड़ेदान में डाला जाए और डाले भी गए खासकर देश में नवजागरण के दौरान पश्चिमी हवा ने बदलाव की देशी आग को तेज किया और काफी कुछ भस्मीभूत भी हुआ । जो बचा रह गया पूरा भारतीय समाज अभी तक उसके धुएँ की चपेट में है। ये धुआँ पहले ही खत्म होने चाहिए थे ताकि नयी हवा के लिए जगह बनाई जा सके जो दुर्भाग्यवश नहीं हो पाया । गांधी को इसका पूरा अंदाज़ा था इसलिए उन्होंने शुरू में ही सत्याग्रह यानी उचित जबाब या proper response का रास्ता सुझाया जो अभी भी उतना ही उपयोगी है। 
इसमें कोई दो राय नहीं है कि मार्क्सवाद एक प्रखरतम वैज्ञानिक चिंतन प्रणाली है लेकिन दिक्कत यह है कि यह वैज्ञानिक है इसलिए इसमें  जड़ तत्व को नियमित करने की पूरी क्षमता है। पूरा मार्क्सवाद जिस भौतिक द्वंद्वात्मक सिद्धांत पर आधारित है उसके मूल में सबसे बड़ा जड तत्व है 'अर्थ'। अर्थ को केन्द्र में रखकर व्यक्ति या समाज के विकास को बेहतर व्याख्यायित किया जा सकता है बिल्कुल वैज्ञानिक ढंग से जैसा कि मनुष्य के इतिहास में मार्क्स ने पहली बार किया भी। समस्या यहाँ भी वही रही कि अर्थ जैसे जड़ तत्व  को इतना महत्वपूर्ण मान लिया गया कि मनुष्य के मनोविज्ञान की प्रगति या अधोगति का सबसे बड़ा कारण इसे ही साबित कर दिया गया। सच्चाई रह है कि मनुष्य के पूरे मनोविज्ञान को नियमित करनेवाले विभिन्न तत्वों में अर्थ सिर्फ एक तत्व है वह भी विशुद्ध रूप से जड़। आखिर एक जड़ तत्व  जीवन के विराट परिदृश्य को कैसे परिभाषित कर सकता है लेकिन विडंबना यह रही कि तार्किक तौर पर इसे सर्वाधिक निर्णायक ठहराया जा सका क्योंकि वैज्ञानिक चिंतन की प्रणाली में इसकी पूरी गुंजाइश है, संभावना है।
एक बात और,  मार्क्सवाद का उदय मेरे हिसाब से एक प्रतिक्रियात्मक प्रतिकार था। यह responsive कम था और reactionary ज्यादा था इसलिए अल्पकालिक लाभ के अलावा यह मानवता को और कुछ वैसा नहीं दे पाया जो दीर्घकालिक हो। हाँ बस चिंतन प्रणाली जरूर दीर्घकालिक बन पाई क्योंकि यह वैज्ञानिक बना रहा। जिस दिन वैज्ञानिक होने की परिधि से निकलकर यह हृदय के तरल प्रदेश में बहने लगेगा, बस बह ही जाएगा। इसीलिए इसे इस खतरे से बचाने की जद्दोजहद जारी है । वामपंथी चिंतन में कविता हो ही नहीं सकती, हाँ कविता के नाम पर नारेबाजी और जुमलेबाजी जरूर हो सकती है। कविता की, इतिहास की, प्रगति या विकास की परीक्षा जरूर हो सकती है । बेशक यह एक सक्षम टूल है आधुनिक मनुष्य के हाथ में जिससे बाहरी विकास के सारे प्रतिमानों को ध्वस्त भी किया जा सकता है और नए प्रतिमान भी खड़े किए जा सकते हैं लेकिन मनुष्य के आंतरिक संसार की गति को इससे रेखांकित करना लगभग असंभव है।
यहाँ यह भी चर्चा करना आवश्यक है कि व्यवस्था सिर्फ  वैज्ञानिक चिंतन से नहीं उपजती, बल्कि वह एक खास विकासात्मक प्रकिया से उपजती है जो वैज्ञानिक भी हो सकती है और अवैज्ञानिक भी और  जब हम अवैज्ञानिक कहते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं कुछ विज्ञान विरोधी होने की बात है। अवैज्ञानिक का अर्थ विज्ञानेतर भी हो सकता है । तो उदाहरण के लिए पूंजीवाद कोई दर्शन या विचार - पद्धति है ही नहीं जैसा कि मार्क्सवाद है। पूंजीवाद सिर्फ उस विकासात्मक प्रकिया evolutionary process की उपज है, परिणाम है जो लंबे काल से सभ्यता के सतत विकास के परिणामस्वरूप सामने आया है। 
इसे किसी एक व्यक्ति ने व्यवस्था का अध्ययन कर , उसकी रूप रेखा तैयार कर हमारे हाथ में नहीं थमाया है जैसा कि मार्क्सवाद में हुआ है। इसमें वैज्ञानिक और अवैज्ञानिक दोनों तत्व हैं । इसकी वैज्ञानिकता के सबसे मजबूत अक्ष को डार्विन ने पहचाना है " योग्यतम की उत्तरजीविता " के रूप में, या फ्रायड के 'अहंकार' के रूप में और इसके अवैज्ञानिक कारकों में है धन कमाने का मनोविज्ञान । पूंजीवाद का और कोई निश्चित नियम है ही नहीं क्योंकि यह कोई विकसित दर्शन- प्रणाली है ही नहीं । यह अर्जित व्यवस्था मात्र है जो कारण - कार्य सिद्धांत पर नहीं चलता। यह बस गति है इसे अंधेरे पथ पर की गति कह लें या अनिश्चित भविष्य की यात्रा, यहाँ कोई मंजिल या तयशुदा लक्ष्य ही नहीं है जबकि इसके उलट मार्क्सवाद का एक लक्ष्य है, इसकी प्राप्ति के लिए तयशुदा पथ है, इसकी प्राप्ति क्यों जरूरी है इसके लिए सारे वैज्ञानिक कारण हैं। इसकी लक्ष्य - प्राप्ति का तरीका प्रतिशोधात्मक है प्रतिक्रियात्मक है। पूंजीवाद सिर्फ क्रियात्मक है, प्रतिरोधी भी नहीं है, यह संक्रामक रूप से self initiation है। जिस दिन तथाकथित पूंजीवाद नहीं रहेगा मार्क्सवाद पूरी तरह से अस्तित्वविहीन हो जाएगा। कई बार ऐसा लगता है, 'वाद' के रूप में पूंजीवाद की स्थापना मार्क्सवाद की ही एक देन है। इसे वैज्ञानिक जीवन पद्धति या सोची समझी सैद्धांतिक साजिश कहे बिना मार्क्सवाद भी वैज्ञानिक या सोचा - समझा अथवा सुव्यवस्थित- सुचिंतित प्रणाली कैसे रह सकेगा क्योंकि वाद सिर्फ वाद से ही लड़ सकता है, एंटीबायोटिक सिर्फ बायोटिक से ही लड़ सकता है।

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