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अपने ही देश में/ कहानी

 

अपने ही देश में

 

मार्च अभी गिरा नहीं और इतनी गर्मी ! इस बार धंधे में भी शायद जल्दी ही गर्मी लौटेगी।  

रेशमा खुश होकर अपनी कमर से लटकी थैली में हथेली डालकर चिल्लर टटोलती है और सामने खड़ा एक ग्राहक के हाथ में रख  फिर दूसरे के हाथ में नारियल- पानी और स्ट्राॅ मुस्कुराते हुए रख देती है। यह मुस्कराहट उसके होठों पर  परत दर परत चढ़ती ही जाती है और चेहरे से नीचे गले तक पसीनों की उतरती बूँदें पसरकर कभी गले के बहुत नीचे तक भी सरक जाती हैं।

अच्छा हुआ बेटी सुचिता भी आ गई।

हर रविवार को वह यहाँ आ ही जाती है। अपनी माँ के धंधे में उसके हाथ बँटाना उसे अच्छा तो लगता ही है, इसे वह अपना कर्तव्य भी समझती है।

रेशमा आँचल से अपना चेहरा पोंछ चौक के ठीक सामने सातेरी माँ के मंदिर के कंगूरे की तरफ नजर उठाती है। कंगूरे पर लहराती पताकाएँ...सालों से देखती आई है। इन्हें देख उसे बड़ा सुकून मिलता है। उसे लगता है ये पताकाएँ नहीं बल्कि देवी माँ की  शक्ति ही साक्षात् लहरा रही है। कभी - कभी मुँह से निकल भी जाता है -  “सब देवी माँ की ‘कुरपा’ है!”

मंदिर में घंटा ध्वनि उठती है -  टन् टन् टन्...।

रेशमा के मन में भी घंटी बज उठती है। शायद खतरे की। चौक पर सबसे पूरब में ये दो नए ठेले कब लग गए ? कहीं ‘बाहेर का आदमी’ फिर...? पिछले महीने भी कोई ‘बाहेर का आदमी’ आया था। रेशमा ने पहले ही दिन उसे डरा- धमकाकर भगा दियाउसका ठेला तुड़वा दिया था। इन दोनों को भी पूरी दुनिया छोड़कर ‘इदिर’ ही आना था?

तू गिराक को देख, मैं देखकर आती है।” कहकर रेशमा पूरब की ओर लपकी। जबतक सुचिता उसे कुछ कहती या रोकती, रेशमा उन दोनों को एक साँस में तबतक तीन सवाल पूछ चुकी थी -

कोन है? किदिर से आया तू ? यहाँ पर दुकान डालने को किसने बोला तिरे कू?”

माणिक ने तत्काल कुछ कहने की जरूरत नहीं समझी, नज़र उठाकर उसे बस देखा और बोरे से नारियल निकाल ठेले पर सजाकर रखने लगा।

अब्दुल शायद कहना चाह रहा था- “अब यहाँ यह कौन बला है गुरू ?”- पर  बात होठ तक नहीं आई, अटककर कहीं अंदर ही रह गई ।  

अरे, बोलता काहे कू नहीं?” रेशमा ने चिढ़कर पूछा। उसकी खिसियाहट तथा बेचैनी और स्पष्ट हो गई।

अंटी, हमलोग बि...यू...से...” – अब्दुल ने दबी जुबान से जवाब दिया था। हकलाहट में  ‘हार’ और ‘पी’ अंदर से बाहर नहीं आ सके थे ।

माणिक चुप्पी साधे रेशमा का चेहरा देख रहा था। ‘बि...हार, यू...पी सुनकर रेशमा की आक्रामकता और तीखी हो गई थी।

चौक पर कोई और नारियल पानी नहीं बेचेगा। गन्ना जूस बी नहीं। इदिर से निकल, कहीं और जाके अपना शोरूम लगा, नहीं तो..”-कहते हुए रेशमा ने ठेलों पर कसकर पाद प्रहार किया। दस बीस नारियल भड़भडाकर गिर गए।

अब्दुल सन्न था लेकिन माणिक रेशमा से उलझने के बजाय नारियल उठा रहा था।

मम्मा, जाने भी दो, बेचारे कहाँ- कहाँ से कमाने- खाने आए हैं।”- सुचिता अपनी मम्मा को समझाते हुए पीछे खींच रही थी।

तू इसकी तरफदारी कर रहेली है? ये बाहेर का आदमी इदिर आके ठेले लगाएगा तो इदिर का लोग किदिर कू जाएगा ?”

कौन है बाहर का आदमी मम्मा ? यू पी, बिहार क्या देश के बाहर हैं ?” सुचिता का सवाल मम्मा के सवाल से कहीं बड़ा था और रेशमा के लिए शायद एक आइना भी था जिसमें उसका बौद्धिक बौनापन साफ दिख रहा था । वह बौखलाकर बरस पड़ी - “तू कालेज क्या पढ़ने लगी, बड़ा - बड़ा बात करने लगी है, मोंय ठेले लगाने नहीं देगी इदिर।”

चौक पर पहले से ही बीसियों ठेले- खोंमचे और रेहड़ियाँ लगती थीं। कब कौन से ठेले लग जाते और कब फिर गायब हो जाते, कहना मुश्किल होता था।  वड़ा पाव, पाव भाजी, इडली डोसा से लेकर फल- सब्जी, फिश, चिकन, आमलेट आदि से लेकर चाय सिगरेट, तंबाकू आदि इन ठेलों पर नौ बजे सुबह से ही मिलने शुरू हो जाते थे। परन्तु ग्राहकों की चहल पहल तो शाम को ही होती थी। यही चहल-पहल धंधे की चमक बचाए - बनाए रखती थी।

लेकिन ठेले खोंमचे कुकुरमुत्तों की तरह ऐसे ही बढ़ते रहें तो क्या यह चमक बची - बनी रह पाएगी? यह सवाल सिर्फ रेशमा का नहीं था लेकिन रेशमा को यह सबसे ज्यादा चुभता था क्योंकि औरों के लिए नारियल भले ही एक फल हो, पर रेशमा के लिए तो यह जीवन था और उसका पानी जीवन - रस से कतई कम नहीं था। नारियल पानी बेचकर ही उसने परिवार चलाया। इज्जत से गुजारा किया और बेटी को पाला पोसा, पढ़ाया भी। पाव भजिया से लेकर फल सब्जी तक...क्या - क्या धंधे नहीं किए लेकिन नारियल पानी बेचना कभी नहीं छोड़ा।

परन्तु पिछले दो सीजन से यह रस सूख रहा था। राज्य में लौह खनन पर पाबंदी के कारण पिछले तीन चार सालों से जो मंदी आई थी उसमें छोटे छोटे कारोबारी वैसे भी करीब- करीब तबाह हो चुके थे।  शाम तक थैली आधी भी नहीं भर पाती थी। इसलिए उसने सोच - समझकर हाल में एक गन्ना - जूस  की मशीन भी डाली थी। परन्तु अब क्या ?...

“बस एक दो दिन की बात है मम्मा, देखना, खुद ही चले जाएँगे ये लोग। इधर धंधा ही कितना है !”

लेकिन रेशमा के सवाल रुक नहीं रहे थे- उदिर से मार भगाया तो अपना घर मुलुक वापिस काहे कु नहीं गया ? उदिर धंदा काहे कु नहीं करता जो इदिर रेशमा के धंदे के पीछे पड़ेला है तुम सब्बी लोग ?”

“बाहरी आदमी का जिन्न इधर भी है गुरु!”- अब्दुल ने माणिक से कहा पर माणिक के दिलो-दिमाग पर यह ‘जिन्न’ नहीं, एक साँवली सूरत छा रही थी। 

“बेटी कितनी समझदार है, कितनी अच्छी है ! और माँ कैसी डाकिन पिशाचिन लगती है  !’ माणिक यह कहना चाह रहा था लेकिन सुचिता की तरफ बस देखकर रह गया ।

अन्य दुकानदार यह सब चुपचाप  देख रहे थे। रेशमा किसकी सुनती है ? बात धंधे की हो तो वह और भी नहीं सुनेगी। उसका बड़बड़ाना अभी भी बंद नहीं हो रहा था। अब्दुल से अब रहा नहीं गया। उसने ऐंठकर करारा जवाब दे ही दिया

“हमलोग लंदन से नहीं आए हैं अंटी, और इ गोवा कौनो दुबई में नहीं है, कामतानाथ से पूछो जाकर, उ हमलोग को यहाँ क्यों भेजे हैं।” 

माणिक ने तत्क्षण उसे चुप तो कर दिया परन्तु रेशमा भड़क गई - “वो  कामतानाथ ? तिरा गाँववाला है क्या ? तो जा, तू दाबोलिम में जाके ठेले लगा। इदिर काये कू आया ? और वो क्या वाघ है रे ? खा जाएगा मिरे कू ?”

शाम तक ठेले नहीं हटाए तो देख लेना” -  धमकी देकर वह तेजी से अपनी दुकान के पास आ गई।  

उसको तू क्या बोलती है रेशमा ? तू तो खुद ही...” – अपने ग्राहक को ब्रेड आम्लेट पकड़ाते हुए बाजू से पीटर ने एक पुरानी चिनगारी जगा दी।  रेशमा की देह में जैसे आग लग गई।

“मोंय गोवन हूँ गोवन, गोवन से शादी की मोंयने”- रेशमा ने अपनी छाती ठोंकते हुए पीटर को दो टूक सुनाया। उसकी पहली बात भले ही सही नहीं थी लेकिन दूसरी जरूर सही थी।

बीस - बाइस साल की रही होगी जब वह गोवा आई थी और एक स्थानीय लड़का से प्रेम- विवाह रचाकर यहीं बस गई थी। पति टैक्सी चलाता था। क्रिसमस के महिने में एयरपोर्ट पर देशी-  विदेशी पर्यटकों की भीड़ एकाएक बढ जाती थी। यह  भीड़ अभी भी हर साल आती है लेकिन उसे अब अंदर तक काटती है। इस मौसम में उसका पति कितना कमाता था !  रात को रात नहीं देखता था, दिन को दिन नहीं हर साल इस सीजन में एक दो तोले जूलरी तो जरूर खरीद देता था। चौदह साल गुजर गए उसके गुजरे हुए जब जुआरी ब्रिज के हाइवे पर एक भयानक सड़क हादसे में उसकी जान चली गई थी। उस वक्त उसकी बेटी सुचिता सिर्फ सात साल की थी। अब तो वह बड़ी हो गई है ।

रेशमा कहती भी है इत्ती बड़ी कि कालेज में पढ़कर ‘हुशार’ हो गई है।” इतनी होशियार कि वह मम्मा को समझाती है - “ये बाहरी वाहरी सब पोलिटिक्स है मम्माअपने ही देश में लोग बाहरी कैसे हो गए? और वह भी तो बाहर से ही आई थी।

बेटी की इस बात वह चुप्पी साध लेती।

“...और जगह में ही क्या रखा है रेशमा ? यहाँ धंधा नहीं है तो जगह बदली कर देखो न ? क्या पता नई जगह धंधा अच्छा चले।” पीटर ने बाजू से फिर छौंक लगाई और रेशमा की चुप्पी टूट गई- “वह काये कु बदलेगी जगह ? जगह बदलें वे, जो अब्बी आया धंदे में, मोंय तो चौदह साल से यहाँ है और यहीं रहेगी, मोंय किदिर नहीं जाती, इससे पूछो न ? इस लोग को अपने गाँव- मुलुक में धंदा क्यों नहीं मिलता जो ट्रेन भर भरके उदिर से आते हैं  ?”

पीटर लाजवाब हो गया ।

हालांकि इन तमाम सवालों पर पिछले कुछ दिनों से चौक- चौराहों पर खूब चर्चा होती थी लेकिन यहाँ सिर्फ चर्चा चलती थी। बाहरी लोगों के साथ मारपीट -या उन्हें मार भगाने जैसी किसी घटना की अबतक कोई खबर नहीं थी। परन्तु पड़ोसी राज्य में  बाहरी लोगों को मारा पीटा और भगाया जा रहा है,यह खबर रोज सुनने को मिलती थी।

परन्तु माणिक और अब्दुल इस बार अपनी जगह नहीं बदलेंगे।  क्यों बदलेंगे ? कितनी बार बदलेंगे ? जगह बदलते- बदलते तो नाशिक से यहाँ आ गए। सबको सब जगह कमाने - खाने का हक है या नहीं ? फिर इस बार तो सरपंच कामतानाथ की कृपा दृष्टि भी है। देखते हैं कौन यहाँ से भगाता है। कोई नाशिक नहीं है जो बाहरी आदमी...।

नाशिक याद आते ही अब्दुल के सामने पूरा घटना- क्रम घूम जाता है ठेले खोमचे वालों,  दिहाड़ी मजूरों आदि को बलवाइयों ने किस तरह दौड़ा दौड़ाकर पीटा था। सबसे ज्यादा हमले मूँगफली, भजिया, फल सब्जी बेचनेवालों पर हुए थे। किसी को कलाई गँवानी पड़ी तो कुछ लोगों को टांगें। डरे हुए हजारों लोग रातोंरात अपने अपने राज्य जानेवाली ट्रेनों में सवार हो गए थे। माणिक भी घर जाना चाहता था।

परन्तु - “गाँव में है ही क्या ? खेती बारी के सिवाय ? खेती में भी रखा ही क्या है, तुम्हीं ने कहा था न गुरु ? और अभी..?” - अब्दुल ने उसे याद दिलाया था।

माणिक फिर भी रुकने को तैयार नहीं था किंतु  अब्दुल की एक बात - “ परदेस में और है कौन ? एक तू ही तो है और अब तू भी छोड़कर...से माणिक के पैरों में जैसे मनों पत्थर बँध गए थे।

मगर अब जाएँगे कहाँ ?”

ऊपरवाले ने बहुत बड़ी दुनिया बनाई है गुरु ।

लेकिन ऊपरवाले की इस दुनिया पर कब्जा तो नीचेवालों का ही है उस्ताद।” माणिक की बातों से अब्दुल को लगा - दुनिया एकाएक फिर छोटी हो गई, शायद नाशिक से भी छोटी। उसके कानों में फिर वही आवाज गूँज उठी  - “ मारो स्साले बाहरी को...।” भला हो उस मौलवी का जो उसने दोनों को रात भर मस्जिद में छुपाकर रखा माणिक डर के मारे रात भर नहीं सोया था। सुबह- सुबह अब्दुल को ख्याल आया था -  कामतानाथ का। पिछले साल जब गाँव में उनसे मुलाकात हुई थी तो उन्होंने कहा था – “कभी गोवा आना हुआ तो बताना। वहाँ दाबोलिम पंचायत का सरपंच हूँ मैं।”

अब्दुल को ताज्जुब हुआ था – “ गोवा में हमारा गाँव वाला सरपंच ?”

लेकिन इसमें ताज्जुब होने जैसी कोई बात नहीं थी।  यहाँ  यू पी के यदुवंशियों का पूरा कुनबा ही बसा हुआ था। उनके पुरखे दो तीन पीढ़ियाँ पहले ही यहाँ आकर बस गए थे। उस वक्त यह खाली और जंगली पहाड़ी इलाका हुआ करता था।

बिरादरी के संख्या- बल पर कामतानाथ पिछली तीन बार से चुनाव जीतते आ रहे हैं । सालों से सरपंच हैं। स्थानीय प्रशासन या सरकारी महकमों में उनकी अच्छी- - खासी पहुँच भी है।

कामतानाथ ने कहा था यह गोवा है। कोई लफड़ा नहीं। ठीक से धंधा करो, बाद में राशन कार्ड और वोटर आईडी भी बनवा देंगे।”

पहले पैर जो जम जाए उस्ताद, वोटर आईडी बाद में देखेंगे।”- माणिक ने अब्दुल से कहा था।

सही गुरु, पहले इस अंटी से जान तो बचे? शाम तक का टेम दिया है पहले उस पर तो सोचो।” अब्दुल ने जवाब देते हुए सरपंच कामतानाथ को फोन कर दिया।

रेशमा ने देखा   शाम को सरपंच कामतानाथ की गाड़ी चौक पर लगी थी।  कामतानाथ कुछ कहना चाह रहा था कि रेशमा ने टोक दिया साहेब,  मेरे कु भूल गिया लगता, अब सिरफ अपने गाँववाले कु ही पछानता है।”

सरपंच ने मुस्कुराते हुए कहा था - नहीं रेशमा, ये भी अपने ही भाय बंद हैंदो पैसे कमाने आए हैं सो मिल जुलकर कमाओ खाओ।” इस पर रेशमा तत्काल जल भुन गई थी। मगर अब कर ही क्या सकती थी ? अब्दुल और माणिक के ऊपर बड़े हाथ का साया था। उन्हें देखकर वह कबतक नाक भौंह सिकोड़ती ? थोड़ी नरमी तो आनी ही थी।

देखते ही देखते मई धमक गया। गाँव से माणिक के लिए बार - बार फोन आ रहा था। शायद उसकी माँ की तबियत ठीक नहीं थी। अब्दुल ने पूछा तो माणिक ने कुछ और ही बताया। खुशखबरी थी। अब गाँव में ही रोजगार मिलेगा। जोगेंदर ठेकेदार कभी झूठ नहीं बोलता। बाहर काम करनेवाले लोगों के लिए वह वाकई एक बड़ा मौका था।

अब्दुल ने उत्सुकतावश पूछा था – “ आखिर यह कौन सा ‘पोरजेक्ट’ है गुरु जो... ?”

दअसल बिहार में एक बड़ी परियोजना की शुरुआत होनेवाली थी। उसमें भारी संख्या में मैट्रिक - इंटर पास युवकों की अलग-अलग काम के लिए अभी से भर्ती हो रही थी। माणिक भी इंटर पास था।

लेकिन अब्दुल तो...उसके अब्बा ने बच्चों के नाम पर सिर्फ गेहूँ- चावल उठाने के लिए सरकारी स्कूल में उनके नाम लिखवाए थे। अब्दुल अपने सात भाइयों में सबसे छोटा था। माँ उसे जन्म देते ही दुनियाँ से रुखसत हो गई थी। अब्बा काम करने गैराज में जाते तो उसे भी साथ ले जाते। बचपन से ही गैराज के काम में उसका दिल लग गया था। स्कूल छूट ही गया।

तो क्या यह मौका भी छूट जाएगा ?

नहीं छूटेगा अब्दुल। तेरे बारे में भी बात की है। ठेकेदार कह रहा था - थोड़ा खर्चा बरचा लगेगा बस।”

दे देंगे पर काम तो मिल जाएगा न ? वो भी अपने गाँव इलाके में ?”

“हाँ, इस तरह दर दर की ठोकर तो नहीं खाएँगे ? दो पैसे कम ही मिलें मगर इज्जत से तो रहेंगे ?”

माणिक ने गौर किया अब्दुल बिहार को भी अपना ही गाँव- इलाका मानता है।

“बिल्कुल, यू पी के लोगों को वहाँ कोई बाहरी कैसै कहेगा ?”- माणिक के इस सवाल से अब्दुल को बड़ी तसल्ली हुई थी।

“बाहरी भी कहेगा लेकिन जानवर की तरह दौड़ा दौड़ाकर मारेगा तो नहीं ?”

अब्दुल के सामने नाशिक का वह घटनादृश्य अचानक पुनर्जीवित हो उठा – “पाव भजिया वाला....मूँगफलीवाला घूँसा खाते हुए भी हाथ जोड़कर कह रहा है अब नै बाबू ...अब नै.. और वह शोर गुल... मारो स्साले बाहरी को...।”

नहीं, नहीं, वहाँ तो ऐसा नहीं होगा”-अब्दुल को पूरा भरोसा था।

“अरे नहीं, पहले चल तो अब्दुल, वहाँ तेरी शादी भी...मस्जिद टोला में गफूर मियाँ की बेटी  ...”

“ना गुरु ना

“तो क्या अभी भी अंगूरी का इंतजार है ?”

अंगूरी का नाम सुनते ही अब्दुल सिहर गया था। बला की साँवली सूरत थी वह। जलगाँव, पुणे, मुंबई...कहाँ कहाँ पानी नहीं पिया था उसने पर जन्नत की झलक तो उसे नाशिक में ही मिली थी। दो यार आखिर उसे वहीं मिले थे।  एक माणिक और दूसरी अंगूरी। उसका  ‘पानी पूरी’ चौक पर कितनी जल्दी मशहूर हो गया था।अंगूरी पहली बार वहीं मिली थी। बाद में तो वह वहाँ रोज आने लगी थी। वह काम में भी अब्दुल के थोड़ा  - बहुत हाथ बँटाती और दो – चार बार पानी – पूरी उड़ाकर शाम तक घर चली जाती। अंगूरी के इश्क में अब्दुल अलग ही संसार बुनने लग गया था।

माणिक ने उसे कई बार समझाया भी था कि परदेश में दो चीजें संभालकर रखनी होती है उस्ताद, एक तो जीभ ....

“और दूसरी ?”

माणिक के जवाब पर अब्दुल की हँसी छूट पड़ी थी।

“लेकिन तू भी तो उस दिन सुचिता से  हँस हँसकर... ?”

“नहीं, नहीं चिल्लर लेने गया था उस्ताद।”

“तो चिल्लर के साथ कोई आइसक्रीम भी देता है क्या ?”

माणिक थोड़ा सकुचा गया था। सुचिता सचमुच अच्छी है। आंटी भी उतनी बुरी नहीं।

“पोरजेक्ट की खबर सुनकर आंटी तो बहुत खुश होगी गुरु ?”

“क्यों?”

“बमभोला ही रह गए तुम, अरे हम नहीं रहेंगे तो चौक पर फिर अकेले ही राज करेगी न ?”  

माणिक को फिर झटका लगा क्या परियोजना की खबर सचमुच पक्की है ? वह सुचिता से जरूर पूछेगा। वह अंग्रेजी अखबार भी पढ़ती है।”

परियोजना की खबर सचमुच पक्की थी। बात अब सिर्फ मोबाइल फोन तक ही नहीं रही। आज रविवार के एक अंग्रेजी अखबार की हेडलाइन्स में था - ‘मेगा रीवर्स कनेक्ट प्रोजेक्ट बिगीन्स इन गांगेटिक प्लेन’।

सुचिता ने इसे विस्तार से बताया था। उत्तर भारत की कई नदियों को ऐसे राज्यों या इलाकों से जोड़ा जाएगा जहाँ पानी के अभाव में सुखाड़ पड़ता है और सैकड़ों किसान हर साल आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं। कहीं कहीं तो पीने के लायक पानी भी लोगों को नसीब नहीं। आजादी के इतने सालों बाद भी लोग नदी नाले का पानी पीने को मजबूर हैं।

सुचिता की बातों से अब्दुल की कोई और ही बत्ती जल उठी थी – “पानी हमारे इलाके से वहाँ जाएगा जहाँ लोगों ने बाहरी कहकर हमलोगों को जानवर की तरह मारा पीटा और हकाला ?”

अपना पानी भी किसी को देना नहीं चाहते?  लोग तो अनजान जरूरतमंद को खून भी देते हैं उस्ताद ।” माणिक की बात पर अब्दुल को ताज्जुब हो रहा था ।

 “सही है, उधर पानी से लोग मर रहे हैं और इधर पानी के लिए लोग तरस रहे हैं। यह मार पीट क्या लोग खुद कर रहे हैं? कोई करवा रहा है ये सब, वोट और  कुर्सी के लिएइधर भी आम आदमी अगर अच्छा नहीं है तो इतने साल  बाहर रहे कैसे ? ”सुचिता की बात से माणिक सहमत था।

“मगर हमलोग अपना धंधा ही तो करते हैं, किसी का कुछ दबाकर तो नहीं बैठते न ? तो फिर ...?” – अब्दुल समझने को तैयार नहीं था।

“धन्य है वह धरती कि वहाँ जाकर हमने दो चार पैसे कमाए और अपने - अपने घर भरे अब्दुल। रोजगार- धंधे के लिए क्या वे हमारे यहाँ आते हैं जो हम यहाँ आकर उनके  रोजगार- धंधे पर कुंडली मारकर बैठ जाते हैं ? उन्हें इस पर कुछ न कुछ तो...और वे गलत क्या कहते हैं? हमारी सरकारें क्या करती हैं हमारे लिए ?” माणिक ने बात साफ की ।

अब्दुल कैसे समझता ? उसकी नजरों में अभी भी वह मूंगफली वाला ...बलवाई भीड़...नहीं, नहीं पानी क्या, हवा भी ...?

तो क्या उधर ऐसी मार पीट नहीं  होती ? वहाँ जब जात - मजहब के नाम पर अपने ही लोगों को मारते हैं, तब याद नहीं रहता कि सभी एक ही राज्य के भाई बंद हैं ?”

अब्दुल के पास कोई जवाब न था।

छोड़, पानी की बात पानीवाले जानेंगाँव जाना कि नहीं ?”

माणिक थोड़ा सकपकाया।

“लेकिन तुमने तो कहा था गाँव में रखा ही क्या है और अभी खुद ही ...? गफूर मियाँ का गाँव पहुँचने की इतनी जल्दी?  इतनी बेताबी अच्छी नहीं उस्ताद।” माणिक ने चुटकी ली।

परन्तु वह गोवा को इतनी जल्दी कैसे ‘बाय’ बोल सकेगा ? वह सौम्य साँवला मुख- मंडल,   उसकी मोहक मुस्कान....कैसे भूलेगा वह ? उसे कैसे बताएगा ?  बिना बताए वह चुपचाप कैसे जाएगा ? उस दिन अंटी आखिर क्यों पूछ रही थी कि घर में और कौन कौन है ? कितनी ‘परोपट्टी’ है। वह सरपंच कामतानाथ को सब कुछ बता देगा। यहाँ का राशन कार्ड भी बनवा लेगा। नहीं, नहीं वह गोवा से घर वापस नहीं जाएगा, यहीं घर बसा लेगा, गाँव में रखा ही क्या है ? वहाँ की सारी जमीन बेचकर बीमार बूढ़ी माँ को भी यहीं ले आएगा लेकिन ....।

तुमने तो कहा था -  अपना घर- मुलुक, अपना देस, दो पैसे कम मिलेंगे तो भी चलेगा ? ख्वाब दिखाकर अब खुद पीठ दिखा रहे हो ? और वह परदेशी लड़की ?  उसका क्या भरोसा  ?  न जात का पता न भात का, क्या कहेगा जात समाज ? वो भी इतनी पढ़ी लिखी कि तुमको बेचकर कब खा जावे, पता ही न चले...मेरे गाँव में एक ऐसा ही...” – अब्दुल ने उसे राजी करने के लिए अपने गाँव का एक वाक़या सुनाया तो माणिक सोच में पड़ गया था ।

उसे अब्दुल की बात चुभ रही थी ख्वाब दिखाकर अब पीठ दिखा रहे हो ?”

एक अच्छी घरवाली हो और घर में ही कमाने-खाने के लिए कोई धंधा या रोजगार हो और इज्जत से जी सकें यही तो सपना था जो माणिक ने अब्दुल की आँखों में बोया था । इस खानाबदोशी जिंदगी में यह कैसे मुमकिन है ? कभी तो ठहरना ही पड़ेगा ? फिर बिहार और यू पी में फरक ही क्या है ! वो भी अगर ससुराल...। अब्दुल की कल्पना भी उड़ान भरने लगी।

ठेकेदार का फोन फिर आया, “ अगले शनिवार तक जूमो, नहीं तो भेकेन्सी खत्तम और सुनो ...हैलो, हैलो,  ...वो जो तुम्हारा दोस्त है, यू पी वाला है न ? उसको ऊपर से दस हजार और लगेंगे।

अब्दुल कान लगाकर सुनने की कोशिश कर रहा था। तभी माणिक ने मोबाइल का स्पीकर आन कर दिया ।

माणिक ने पूछा, “ क्यों ? पांच से सीधे पन्द्रह कब हो गए, ददा भाय?”

क्या है कि माणिक, एक तो वह मैट्रिक पास भी नहीं है, पाँच हजार तो उसी के हुए और...हैलो, हैलो हैलो...!”

“...हैलो....और दूसरा, क्या है कि वह यू पीवाला ... वह तो बाहरी है ना ?”

काॅल कट गया।

ठेकेदार की बात सुनकर अब्दुल पूरी तरह हिल गया पैरों तले की जमीन खिसक गईउसने देखा -  माणिक की नज़रें नीचे झुक गई  थीं। उसे ऐसी उम्मीद बिल्कुल नहीं थी।

कोई बाहरी नहीं है अब्दुल” उसने फिर भी अपने दोस्त के कंधे पर हाथ रखकर कहा था।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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