अवधू चुप रहु, मुख नहिं खोलहु


दूरदास के पद / दिलीप दर्श 


अवधू, चुप रहु, मुख नहिं खोलहु। 
राखहु भेद छुपाकर भीतर, बाहर कुछ नहिं बोलहु। 

खोलहु मुख जब बाहर, पहले भीतर खुद को तोलहु। 
सबद - सबद को जिह्वा पर लै मधुर - मधुर कुछ घोलहु। 

बोलहु बरफी हरदम, कबहूँ नीम न सीधे बोलहु।
मान - हानि का जुग नाजुक यह जोखिम क्योंकर मोलहु ? 

नंगा भी अब कहत हे अवधू ! बटन न ऐसे खोलहु। 
दूरदास की मानहु नहिं तो जाहु कचहरी डोलहु। 

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