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अवधू भ्रम भयो इक भारी

अवधू भरम भयो इक भारी । 
एक हमीं हरिचंद देस में बाकी भ्रष्टाचारी। 

एक हमीं जनता के सेवक कुर्सी के अधिकारी।
शेष सभी बस चूसक- शोषक लोभी कुर्सीधारी।  
 
एक हमीं हैं धुले दूध के, धवल श्वेत पटधारी।
औरन की तो लंगोटी भी दाग जड़ित अति कारी। 

हम तो एक फकीर, देह पर धोती आधी  धारी।
आगे नाथ न पीछे पगहा, नहिं घर, नहिं इक नारी। 

लोभ,मोह - माया को कबहूँ कनखी तक नहिं मारी।
बैठ ध्यान में सेल्फी खैंचैं यहि बस एक बिमारी । 

त्यागमूर्ति व तपोनिष्ठ हम, नीति - नियम में  भारी।
जो भी घेरा डारै हम पर, उनपर घेरा डारी।

कबहूँ झाड़ू, कबहूँ साइकिल, कबहूँ हाथी भारी।
कबहूँ कमल, कटारी बनकर प्रकटैं बारी - बारी। 

हमरे पौरुष के आगे नतमस्तक दुनिया सारी । 
दूरदास यह देस धन्य है धन्य पुरुष अवतारी।

 

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