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घर - वापसी

 
पहलू पूरे पन्द्रह साल बाद आज गाँव लौटा है। आठ -नौ साल का रहा होगा जब उसे गाँव छोड़कर जाना पड़ा था। कहाँ गया किसी को पता नहीं था। कौन था जो पता भी करता ! अम्मी बचपन में गुजर गई थी और अब्बू...। ननिहाल में भी कोई रहा नहीं था।
आज गाँव के मस्जिद - टोला में पीपल के पेड़ के नीचे पहलू को छंगुरीदास के साथ खड़े देखकर लोग अचंभित हैं । सबसे ज्यादा अचंभित है अच्छे मियाँ ।
पीपल के नीचे प्रतिष्ठित शिवलिंग है। कुछ महिलाएँ नहा- धुलाकर  उस पर जल चढ़ाने आई हैं यादव टोली से। एक बूढ़ी पूछ रही है- “इ सदरिया का बेटा है ? टूअर- टापर ...च् च् च्...। वह बिल्कुल करीब आकर उसे थोड़ी देर निहारती है और कुछ कहती हुई उलटकर अपनी राह पकड़ लेती है।  
परन्तु अच्छे मियाँ को अभी भी भरोसा नहीं हो रहा है । होगा भी कैसे ?
“पहला है यह ? सदरी का बेटा ? यह अभी किधर से उग आया छंगुरी ?”
अच्छे मियाँ के मुँह से ‘छंगुरी’ सुनकर छंगुरीदास अंदर ही अंदर कुढ़ गया था।
तुम्हारा फोकनिया- डोकनिया सब ‘बेरथ’ गया अच्छे, उमिर आ गई, तमीज नहीं आई ?”
छंगुरीदास अच्छे अच्छों को नहीं छोड़ता। वो जमाना गया जब लोग उसे छंगुरी भी नहीं बल्कि ‘छंगुरिया’ कहकर बुलाते थे। आज वह छंगुरीदास है। संतमत का पक्का सत्संगी, आजीवन वैष्णव और पूर्ण ब्रह्मचारी। कहते हैं, वह जब दस बरस का था गुरुमहाराज ने उसे एक रात सपना दिया था और सपने में ही उसने गुरु महाराज का चेला बनना भी कुबूल कर लिया था। बाद में कुछ लोगों ने मज़ाकिया लहजे में आपत्ति भी ज़ाहिर की थी – “ अरे सपने में कोई किसी का चेला बनता है ? झूठ बोलता है छंगुरिया ।”
लेकिन उसने इसका बड़ा माकूल और शास्त्र - सम्मत जवाब दिया था और सबकी बोलती बंद हो गयी थी ।
जब राजा हरीसचंद सपने में राज पाट भी दान कर सकते हैं तो कोई सपने में चेला क्यों नहीं बन सकता ? ‘अधियातमी’ बात कैसे समझोगे मूरख? साठ के पहले ‘अक्कल’ खुली है किसी की इस गुअरटोली में ?”
वह यहीं तक रुकता नहीं था।
– “भोला मियाँ कैसे सत्संगी बन गया था ? पूछो जाकर, उसको भी तो गुरु महाराज ने सपने में ही दर्शन दिए थे ?”
सपने में दर्शन वाली बात कितनी सही थी, नहीं मालूम परन्तु यह सही था कि मस्जिद टोले का भोला मियाँ नमाज़- रोजा को तिलांजलि देकर भोला दास जरूर बन  गया था। छंगुरीदास उन्हें अपना गुरु भाई मानता था ।
संतमत की स्थानीय साधु मंडली में भोला मियाँ के साथ छंगुरीदास को भी मंचासीन किया जाता और ‘परवचन’ देने के लिए पांच मिनट का वक्त भी दिया जाता । फिर शुरू हो जाता उसका मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि साधन, नादानुसंधान, सुरत शब्द योग...। तीस साल तक गुरु - सेवा की तब जाकर मेवा के रूप में छंगुरी को भी ‘दास’ की उपाधि मिली थी और परसाद के रूप में ‘अधियातमी’ ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
कहते हैं जब भोला दास ने चोला छोड़ा तो मस्जिद टोला के लोग उन्हें देखने के लिए भी नहीं आए । छंगुरीदास ने टोले में जाकर उन्हें कब्र मिट्टी देने की बात उठाई तो मौलवी ने फौरन मना कर दिया था। तब छंगुरीदास ने ही गुरु- भाई के रूप में उन्हें मुखाग्नि दी थी और अपने चेलों के सहयोग से दाह संस्कार कराया था। श्राद्ध- कर्म में गाँव का पंडित नहीं आया तो बाहर से आर्य समाजी को बुलाया था। उसके अपने टोलावासी इस ‘धरमभ्रष्ट’ कार्य के विरोध में एक जुट हो गए थे लेकिन छंगुरीदास अपनी जगह खड़ा रहा था।  
गाँव में जिसके साथ कोई नहीं खड़ा रहता उसके साथ खड़ा रहता है छंगुरीदास !
... और आज वह पहलू के साथ खड़ा है। पन्द्रह सालों में पहलू को पहली बार लग रहा था कोई तो है जो अब उसके साथ है वरना अबतक किसने कब पूछा – “अपना किल्ला- खुट्टा कब गाड़ोगे पहलू ?” अपनी मिट्टी से उखड़कर उसने अपनी जड़ें कहाँ- कहाँ रोपने की कोशिश नहीं की। मगर जड़ें कहीं जमीं नहीं। अकेले इतने साल कहाँ- कैसे गुजारे यह सिर्फ पहलू को ही मालूम है।
अब्बू था तो वह दंगाइयों की भेंट चढ़ गया था। बैल की जगह गायों को हल में लगाकर जोता था बदरू मियाँ ने और कयामत पूरे मस्जिद- टोले पर आई थी। परन्तु कयामत का सबसे ज्यादा कहर  पहलू पर बरपा था।
....उस भरी दोपहरी को यादव टोला के बंडू पहलवान ने देखा था गाय के कंधे पर हल का पालो।  गाय को कोई हल में जोतेगा ? चाबुक से पीट पीटकर  गाय की पीठ छलनी कर दी थी बदरू ने। पालो की रगड़ से गाय की गरदन छलछला उठी थी।  
उठ साली, अभी दस कट्ठा और जोतना है और तुम नखरे...?” शायद पानी के लिए गाय डिकरती रही और निर्दय बदरू उस पर चाबुक बरसाता रहा। गाय ने तड़प तड़पकर दम तोड़ा था।
निमुँहा धन को मारा है बदरू तुमने, मैं तुम्हें ...” – बंडू पहलवान ने उसके हाथ से चाबुक छीनते हुए धमकी दी। बात धमकी तक नहीं रही। पहलवान ताबड़तोड़ वही चाबुक बदरू पर बरसाने लगा।
अब नै पहलवान, आज पहली बार ही गाय को..., बैल बीमार...माफ कर दो पहल...।” – बदरू ने पहलवान को समझाने की कोशिश की थी।
सो क्या गाँव के सारे बैल मर गए थे ? अपने बीमार थे तो उधारी पर ले आते।”
एक दिन की ही तो बात...”
गाय की गरदन पर एक दिन में घाव होता है तुरुक ? आज तुम्हें ...।” पहलवान ने पटक पटककर मार डाला था बदरू को।
पूरा मस्जिद टोला उमड़ आया था। हाथ में हथियार और मुँह से - या अली... निकलो बंडुआ...मारो..काटो..पकड़ो...टीक - टीकावालों को...मंदिर मूर्ति तोड़ो..या अली...। खबर फैली कि पीपल के पेड़ के नीचे शिवलिंग को...।
उधर हनुमान मंदिर के पास बंडू पहलवान सैकड़ों का जत्था लेकर मुस्तैद था।...जय बजरंग बली...घेरो, पकड़ो.. एक भी तुरुक बचने नहीं पाए।
जबतक पुलिस हस्तक्षेप करती दंगे की आग गाँव से बाहर आस- पास के इलाके में भी फैल चुकी थी। शाम तक अन्य गाँवों से आए लोगों ने मस्जिद टोले में आग लगा दी। सुबह तक मस्जिद टोले में बांग देने के लिए एक मुर्गा तक नहीं बचा था। जो घर अधजले या बचे रह गए, लोग उसका सामान उठाकर अपने अपने घर ले गए दंगाइयों ने बाँस बल्ली तक नहीं छोड़ा। सब खोलकर ले गए ।
लकवा ग्रस्त सदरी भाग नहीं पाया था और अपने बेटे पहलू को हकलाते हुए कहता रहा – “भाग पहलू, भाग...।” आठ साल का पहलू लाचार बाप को अपने कंधे पर उठाने की बार - बार कोशिश करता रहा लेकिन नाकामयाब रहा।
“मेरे अब्बू को बचा लो, मेरे अब्बू को ...” चिल्लाते हुए वह अब्बू के दोनों हाथ पकड़ जमीन पर घसीटता भी रहा मगर वह उन्हें बाहर नहीं ला सका था। भगदड़ में किसे किसकी पड़ी थी ! लोग अपनी अपनी जान लेकर भाग रहे थे। आग में अपने बाप को जिंदा जलते हुए देखा था पहलू ने !
दंगे की आग ठंडी तो हुई परन्तु महीनों तक इलाके में अर्धसैनिक बलों का कैंप लगा रहा।  मस्जिद टोले में लोग एक - एककर लौटने लगे थे। लेकिन पहलू नहीं लौटा।
आज वह लौटा है तो अच्छे मियाँ की आँखों में चुभ क्यों रहा है ?
तुमको यह कहाँ मिला छंगुरीदास?” अच्छे मियाँ ने उत्सुकता ओढ़कर पूछा।
पहलू से ही पूछ लो।” छंगुरीदास ने उत्तर दिया।
इतने साल लग गए, कहाँ थे पहलू ?”
पहलू ने कुछ जवाब नहीं दिया और पीपल की ठीक बगल में खड़े एक घर की तरफ देखता रहा।
उधर क्या देख रहे हो पहलू ?, आओ...।-अच्छे मियाँ ने बात फेरी लेकिन पहलू की नज़र उस घर की तरफ लगी रही।
इतने साल बाहर रहे तो गाँव में दिल लगेगा ?”
अब पहलू गाँव में ही रहेगा अच्छे।” छंगुरीदास की बात सुनकर अच्छे को जैसे झटका लग गया।
रहे न गाँव में। मेरा घर है न ? अपना ही बच्चा है पहलू।”- अच्छे ने दरियादिली दिखाई।
यह तो ठीक है चचाजान, लेकिन मेरी डीहवाली जमीन...।” – पहलू ने तनिक लंबी साँस छोड़ते हुए कहा ।
अच्छे मियाँ एक क्षण के लिए  सोचता रह गया। उसे लगा – “जरूर छंगुरीदास ने कोई मंतर मारा है।
कौन सी जमीन, पहलू ?” अच्छे ने ताज्जुब- भरे लहजे में पूछा था।
अब्बू की डीहवाली जमीन। इतनी जल्दी भूल गए, चचा ?”
हम तो नहीं भूले पहलू मगर तुम भूल जाओ अब।”
क्यों?”
उस पर अब मदरसा है।”
मदरसा तो पहले भी था।”
था लेकिन मेरी जमीन पर था।”
“तो वहाँ से उठकर अब्बू की जमीन पर कैसे गया ?”
दंगा में सब कुछ जल गया था तुम्हें नहीं मालूम ? मस्जिद, मदरसा...।”
“अगर मस्जिद फिर वहीं बनी तो मदरसा भी पुरानी जगह पर ही बनना था ?”
पहलू बेटा, गलती किसकी है? एक बार कभी तो लौट आता।”
अरे अच्छे, गाँव छोड़कर सदरी का बेटा गया था पर सदरी की जमीन तो कहीं नहीं गयी थी न?” - छंगुरीदास ने बीच में टोका।
छंगुरीदास, शैतान की ज़बान में मत बोलो। पहलू को गुमराही में डाल रहे हो तुम।”
गुमराही के आरोप पर छंगुरीदास इतना क्रुद्ध हुआ कि उसकी मुट्ठी भिंच गयी और उसकी झूलती हुई छठी ऊँगली में भी एकाएक हरकत - सी आ गयी।  
अपनी जमीन खाली कराने के लिए सदरी की जमीन पर मदरसा तुमने बनवाया और मुझे शैतान कह रहे हो ?”
मैंने तो अपने बाप की जमीन ही खाली कराई है न ? किसी की हथियाई तो नहीं?”
अच्छे, पूरे गाँव से पूछ लो, वह जमीन तुम्हारे अब्बू ने सालों पहले मदरसे के लिए दान कहकर दी थी, उस जमाने का मौलवी गवाह है ।”
तो ‘कब्बर’ में जाकर पूछो उस मौलवी को।”
अरे मौलवी गया, मैं तो था न ?”
छंगुरीदास, यह सब तुम्हारी कारस्तानी है।”
मैं दुद्धा दास हूँ अच्छे, गुरु महाराज की कसम, झूठ नहीं बोलता।”
“कोई कागज पत्तर है किसी के पास ?” अच्छे ने बड़े आत्मविश्वास से पूछा।
जुबान की भी तो कोई कीमत होती है अच्छे।”
अब कागज़ बोलता है छंगुरीदास, जुबान नहीं।”
तो यह मदरसा किस कागज के तहत मेरे अब्बू की जमीन पर बनाया गया ? आपके लिए कागज़ और मेरे अब्बू के लिए?
“यह टोले के लोगों से पूछो पहलू, मुझे अपनी जमीन लेनी थी, मैंने ले ली, बस्स्स।”
पहलू के सवाल का अच्छे के पास इसके अलावा और कोई जवाब नहीं था।
मैं भी अपने अब्बू की जमीन लेकर ही रहूँगा।”
तो जाकर ले लो अपनी जमीन, तोड़ दो मदरसा।”
पहलू ने कोई जवाब नहीं दिया। परन्तु छंगुरीदास से नहीं रहा गया।
मदरसा टूटेगा, अच्छे।”
तो इस बार दंगे की वजह तुम बनोगे छंगुरीदास ।”
दंगा का नाम मत लो।  हक की लड़ाई है यह।”
तो लड़ो न, पूरा मस्जिद टोला से लड़ो, मुझसे सींग क्यों भिड़ा रहे हो ?”
तबतक टोले के लगभग सारे लोग जमा हो चुके थे। सबने एक स्वर से कहा – ‘नहीं, मदरसा नहीं टूटेगा।
छंगुरीदास का रुख थोड़ा नरम पड़ गया लेकिन लोगों को समझाने की कोशिश जारी रही।
तो हम ‘सतियाग्रह’ करेंगे। इसी पीपल के नीचे, भोला बाबा साच्छात है।”
सतियाग्रह’ का नाम सुनकर वहाँ इकट्ठे लोगों के चेहरों पर हवाई उड़ने लगी। तब तो पुलिस, प्रशासन, नेता सब उतरने लगेंगे और मदरसा फिर ...।
लेकिन पहलू इतने साल से था कहाँ ? अभी अचानक कहीं से ऊपर हो गया तो मदरसा गिराने के लिएसतियाग्रह’ करवाने आ गया? सामने खड़े एक अधेड़ मौलवी ने कहा।
“पहलू ऊपर नहीं हुआ है इसे छंगुरीदास ने कहीं से ऊपर कर लाया है।” अच्छे ने मौलवी के सवाल को एक नया आयाम दे दिया।
अच्छे सही कह रहा था। पहलू आया नहीं है उसे लाया गया है। वह तो लौटकर गाँव आना ही नहीं चाहता था। जहाँ कोई अपना न हो वहाँ लौटकर क्या आना ? कोई अपना होता तो उसका अब्बू क्या जलकर मरता ? पूरे टोले में सिर्फ उसके अब्बू की ही जान गयी थी। बाकी लोग सुरक्षित बच निकले थे। टोले में ‘एकघरा’ था उसका अब्बू। न कोई दियाद न गोतिया । जात का तुरुक धोबी। बाकी सभी ऊँचे खानदानवाले मुसलमान थे और उनकी खवासी में ही उसकी जिंदगी बीती थी । पहलू गाँव लौटकर क्यों आता ? टोलावाले की खवासी करने ? एक पेट था, हाथ गोर दुरुस्त था तो मेहनत- मजूरी कर शहर में पाल लेता। सो उसने वही किया। सालों तक आसाम रोड के ‘हैदराबादी बिरयानी’  होटल में बर्तन धोता रहा। रोज आह भर बिरयानी खाने को मिलता था। गाँव में रोज कौन बिरयानी खाता है ? जहाँ भी रहा, होटलों में ही रहा। खा- पीकर हृष्ट-पुष्ट गबरू जवान हो गया था वह।
कोई तीन साल पहले वह पूर्णिया शहर लौट आया था। होटल में काम करना उसे अब बिल्कुल पसंद नहीं था तो एक बड़ी टेंट हाउस कंपनी में काम का जुगाड़ लग गया। शहर और आस - पास के इलाके में जहाँ कहीं शादी, श्राद्ध भोज,  उत्सव अथवा यज्ञ, कथा -  सत्संग आदि जैसे आयोजन के लिए पंडाल, शामियाने का काम कंपनी को मिलता तो पहलू वहाँ- वहाँ जाता। अपने साथी कारीगरों के साथ खूँटे- खंभे लगाता और निकालता । इन  तीन सालों में उसने कितने खूँटे खंभे गाड़े और निकाले, कितने शामियाने- पंडाल लगाए और समेटे। कितनी शादियाँ देखीं, कितने उत्सव- आयोजन देखे। कितनों को याद रखेगा वह? उनमें उसके लिए याद रखने लायक था भी क्या !    
लेकिन पिछले पंडाल की बात वह शायद ही कभी भूलेगा। संतमत - त्संग का विशाल आयोजन और उसका पंडाल उसकी आँखों में आज भी पूरे वितान के साथ खड़ा है। बड़े बड़े खंभों पर चतुर्दिक् उन्मुख दर्जन- भर लाउडस्पीकर । लाउडस्पीकर से आती उद्घोषणा की वह आवाज उसके कानों में अभी भी गूँज रही है-  “नाम छंगुरीदास, मोकाम- चुल्हाय टोला, फरसियागंज, थाना...जिला...कोई इनके गाँववाले हैं तो खूँटा नंबर – 108 के पास आ जाएँइन्हें मिर्गी का दौरा पड़ा है। हालत बहुत खराब है। फौरन डाक्टर के पास...”
छंगुरीदास? कहीं छंगुरी चचा..अब्बू का लंगोटिया ...?”
पहलू सचमुच चौंक पड़ा था। विशाल पंडाल के अंदर और बाहर सब तरफ लोग ही लोग थे। ठंडा पानी का एक बोतल लेकर वह मंच के पीछे लगे छोटे - से टेंट से निकल पंडाल की तरफ तेजी से दौड़ पड़ा था। कड़ी धूप में पंडाल के आखिरी छोर तक पहुँचते वह पसीने से तर - तर हो चुका था। कुछ ही देर में वह वह खूँटा नंबर- 108 के पास खड़ा था।
उसने देखा वहाँ अधेड़ उम्र का आदमी बेतहाशा  हाथ पैर फेंक रहा है। ...लंबी काली दाढ़ी, साँवला चेहरा, गले में कंठी, दुबली काया...। नमक छिड़कने पर केंचुआ भी इसी तरह छटपटाता हैअब्बू भी आग में इसी तरह...! पहलू की नज़र एक क्षण के लिए  स्थिर हो गई थी । छंगुरी दास ही था वह। दाहिनी हथेली में सचमुच छह उँगलियाँ थीं।
कोई चमड़े का जूता चप्पल तो कोई  पानी, पानी ...पानी के छींटे मारोकह रहा था। पहलू ने छंगुरीदास की नाक पर पानी के छींटे मारे।
छंगुरीदास ने आँखें खोल दीं और उसके कान से कबीर- बानी टकरायी “ पानी बिच मीन प्यासी, मोहि सुनि...।” कोई  मंचासीन महात्मा प्रवचन कर रहे थे।
चचा, मैं पहलू...पहलू खान।”
“पहलू ? सदरी का बेटा ?” छंगुरीदास की आवाज अभी भी लड़खड़ा रही थी लेकिन पहलू को देख उसकी आँखों में थोड़ी चमक आ गई थी।
तू जिन्दा है पहलू? गाँव में तो हल्ला है कि तू...?”
पहलू ने उसकी तरफ पानी का बोतल बढ़ाया - “ लो चचा, बरफ का ठंडा पानी पीओ, सब तरास चला जाएगा।
छंगुरी दास ने जी भरकर पानी पिया। कलेजा ठंडा हुआ और गले में नमी उतर आई।
अरे चचा, डाक्टर भी है यहाँ, अभी चलिए।”
छंगुरीदास को लगा इस दूर देस में भी गौंवां मिल गया। पहलू को सत्संग में देख उसके चेहरे पर अतिरिक्त संतोष उभर रहा था। उसे लग रहा था – “भोला मियाँ के बाद अब शायद पहलू भी कहीं...।”
उसने पूछ ही लिया- “ तुम कब से सत्संग में ...पहलू ?”
“ नहीं, नहीं सत्संग में नहीं चचा, मैं तो...।”
तो किल्ला- खुट्टा गाड़ते हो ?”
छंगुरीदास के चेहरे पर अतिरिक्त संतोष की जो झलक थी वह अचानक गायब हो गयी।
सिर्फ किल्ला- खुट्टा ही नहीं सामयाना, पंडाल सजावट, जेनरेटर, लाइट का भी काम है। कंपनी के मैनेजर ने अभी दो दिन इधर ही रहने को कहा है। ... कहीं कोई किल्ला खुट्टा ...हें हें हें
अपना किल्ला- खुट्टा कब गाड़ोगे, बेटा ?”
लेकिन कहाँ चचा ?”
गाँव में, जनमभूमि पर बेटा, और कहाँ?”
छंगुरी दास ने जैसे उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया था और पहलू की आँखें भर आई थीं । उसका कंठ अवरुद्ध हो गया था। छंगुरीदास समझ गया था शायद कुछ सुनने की जरूरत नहीं रही। उसने उसके सर पर हाथ रखकर कहा- “तू मेरे साथ गाँव लौटेगा पहलू, तेरी घर वापसी...।”
अब गाँव जाकर क्या करेंगे चचा ?”
अपनी जमीन से कटकर आखिर कबतक इस तरह?”
लेकिन वहाँ अब मेरा है ही कौन ? कौन पहचानेगा मुझे ?”
एक बार चलकर तो देखवहाँ जाएगा तो कोई पहचानेगा न ?”
पहलू छंगुरीदास की बात काट नहीं सका था। लेकिन अभी टोले के इस सामूहिक सुर को काटना मुश्किल हो रहा था वह पीछे हटनेवाला नहीं था।
यह सिर्फ मदरसा नहीं बल्कि बाल बच्चों काभविसहै पहलू, ंच को बुलाकर कुछ रास्ता निकाल लो, थोड़ा उन्नीस- बीस कर फैसला कर लो ।” किसी अमनपसंद बुजुर्ग की सलाह थी।
सही कहा, आखिर इसी समाज में रहना है तुमको छंगुरीदास कितने दिन काम आएगा ?” अच्छे ने प्यार से कहा।
पहलू का दिल थोड़ा डोल गया था – “ इसी समाज में ...छंगुरीदास कितने दिन ...।”
दस गाँव से पंच बुला लाओ तुमलोग लेकिन पहलू को जमीन नहीं मिली तो ‘सतियाग्रह’...।”
छंगुरीदास, ढेर दरद हो रहा है तो अपने टोले में दे दो जमीन।” -अच्छे ने चिढ़कर कहा।
नहीं, पहलू रहेगा तो अपनी ही जमीन पर, इसी समाज में।” – छंगुरीदास ने पुनः दुहराया।
मगर समाज- बिरादरी तो तब न, जब कोई इसका मान रखे?”
लेकिन बिरादरी का धरम क्या है अच्छे ? कमजोरों को खाओ ?”
अबतक गाँव के अन्य टोलों से भी कुछ लोग आ गए थे। यादव गंगोत्री, धानुक,ताँती सभी टोलों में यह खबर कानों - कान पहुँच गयी थी। पंचायत समिति सदस्य नोखेलाल को मौका मिल गया। पिछले चुनाव में छंगुरीदास ने उसका साथ देना तो दूर, सरेआम खुलकर विरोध भी किया था।
सत्संग- भजन छोड़कर चुनाव प्रचार के बाद अब  सतियाग्रह कब से करने लगे छंगुरीदास ? नोखेलाल ने चुटकी ली।
“सत्संग हो या सतियाग्रह, दोनों में ‘सत्त’ की बात है नोखे।
“इस सत्त असत्त में पूरे गाँव को फिर  …।” – नोखेलाल ने पन्द्रह साल पुरानी बात ताजा कर दी।
उस बार बंडू पहलवान ने तो इस बार इस छंगुरीदास की वजह से …।” – नोखेलाल की बगल में खड़े एक अधेड़ उम्र के आदमी ने कहा
तो पहलू क्या ऐसे ही बेघर…?” -  छंगुरीदास ने  पलटकर पूछा ।
मस्जिद टोलावाले मर गए क्या? जो तुम…?
क्यों पहलू की फिकर सिर्फ मस्जिद टोलेवाले ही करेंगे ?”
“वे उसकी बिरादरी के हैं तो और कोई क्या करेगा ?”
बिरादरी को फ़िकर होती तो पहलू की खोज पूछ क्यों नहीं की, नोखे ?”
तो खोज पूछ गैर बिरादरी के लोग करेंगे?”
नोखेलाल की बात सुनकर सामने खड़ा पहलू थोड़ा असहज हो गया था और नोखेलाल की मौजूदगी की अनदेखी करने की कोशिश कर रहा था
“बिरादरी क्या,गैर बिरादरी क्या ? पहलू पूरे गाँव- समाज का बच्चा है,नोखे।”- छंगुरीदास ने नोखेलाल की तंगदिली को आइना दिखाया।
“तो तुड़वाओ मदरसा और करवाओ फिर दंगा और मार -काट।  एक पहलू के चलते सारे …।”
इस बात पर मस्जिद- टोले की पूरी जमात सहमत दिखी। अच्छे कुछ ज्यादा ही आश्वस्त दीख रहा था।
छंगुरीदास ने नोखेलाल पर निशाना साधा - “अब क्यों दंगा से डर लगता है नोखे ?”
“कैसी बातें कर रहे हो छंगुरीदास ? होश में तो हो ?”
“मेरा मुँह न खुलवाओ । पिछला दंगा में…।” – छंगुरीदास पूरी बात नहीं कह सका।
पिछला दंगा में क्या? तुम्हारे भाई बंडू पहलवान ने ...?” इस बार छंगुरीदास को थोड़ी मिर्ची लगी।
इस्माइल बाबू के घर से धान गेहूँ के बोरे और मुर्गे मुर्गियाँ रातों- रात किसने उठाए थे नोखे ?” – छंगुरीदास ने बात पूरी कर ही दी।
इस्माइल बाबू का बेटा भी वहीं खड़ा था। उसने इस पर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं दी पर उसके चेहरे पर हल्की- सी मुस्कान जरूर दौड़ गई थी।
बाकी मुर्गे मुर्गियाँ किस टोले के पेट में गए छंगुरीदास वो भी तो बताओ।”
छंगुरीदास चुप रहा ।  
नोखेलाल का पानी भी थोड़ा उतरा- उतरा लग रहा था लेकिन उसका प्रत्यारोप थम नहीं रहा था।
“और छोटन मियाँ की बकरी और भैंस ? कौन खोलकर ले गया था ?”
छंगुरीदास को मालूम था कि यह काम उसके भाई बंडू पहलवान ने ही किया था।
यही नहीं, उसके घर के बाँस बल्ले और खर पुआर के बोझे भी टोली के ही दो भाई रामेसर और जगेसर उठा ले गए थे। सालों बाद हुए अलगौझे की पंचैती में बँटवारे को लेकर उनके बीच जब तू तू मैं मैं शुरू हुई तो रामेसर की घरवाली ने ताना भी दिया था – “खर- पुआर के बोझे जगेसर अकेले लाया था जो अपने घर का छप्पर छान लिया? एक बार भी पूछा ?”
इस पर पंच ने कहा भी था – “अब जगेसर का छप्पर आधा कर बाँटोगी कनिया?”
पंच छंगुरीदास ने कहा था सारा पाप अकेले सर पर लेकर मत रहो जगेसर, आधा छप्पर दे दो रामेसर को।”
कहते हैं उस पंचैती में मस्जिद- टोले से एक पंच के रूप में छोटन मियाँ भी था। वह छंगुरीदास की चुटकी पर खूब हँसा था।
अरे छोटन, हँसते हो ?  अहमद कंपोटर (कंपाउंडर) तो झकसू कंपोटर को बाद में मारने दौड़ा था। दंगा के महीनों बाद एक दिन उसने अपनी दवा सूई का थैला झकसू के हाथ में देखा था।”
लेकिन अभी नोखेलाल के प्रत्यारोप पर दुबारा हँसने के लिए छोटन मियाँ इस दुनियाँ में नहीं है ।
...और अभी आरोप- प्रत्यारोप का वक्त है ?
गड़ा मुर्दा उखाड़कर क्या हासिल? अभी जो असली और जिंदा सवाल है, वह है - पहलू के अब्बू की जमीन का !
पहलू ने गौर किया - दंगे की खुदाई में जमीन की बात काफी पीछे छूट गयी थी।
लेकिन जबतक छंगुरीदास है, जमीन की बात पीछे नहीं छूट सकती, न ही दबाई या उड़ाई जा सकती है। कुछ भी हो, वह पहलू के साथ खड़ा रहेगा। उसके हक के लिए सतियाग्रह करेगा, अनशन पर बैठेगा, दस गाँव से पंचों को भी बुलाएगावह तबतक संघर्ष करता रहेगा जबतक मस्जिद टोलावाले कह न दें – “यह रही तुम्हारी जमीन पहलू, मदरसा कहीं और।”
पन्द्रह साल बाद  ही सही, पहलू की भी घर वापसी किसी दिन जरूर होगी।
कहते हैं,छंगुरीदास का संघर्ष बेकार नहीं गया था ।
 
 
 

 

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‘फणीश्वरनाथ रेणु: कथा का नया स्वर’ भारत यायावर की एक व्याख्यापरक आलोचना - कृति है ।  अनन्य प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, कुल दो  खंडों में विभाजित और लगभग 240 पृष्ठों में रचित इस पुस्तक में रेणु के कथा – रिपोर्ताज को, भाषा, शिल्प, शैली और कथ्य की दृष्टि से रेशेवार खोलने का महत्प्रयास हुआ है। पहले खंड में रेणु के कथा – साहित्य पर 11 आलेख हैं और दूसरे खंड में उनके लिखे उन्नीस रिपोर्ताज पर 12 आलेख हैं । आलोचना की प्रचलित पद्धतियों, खासकर समाजशास्त्रीय और रूपवादी पद्धतियों से इतर यायावर ने  रेणु – साहित्य की भीतरी तह तक पहुँचने के लिए एक अपनी ही दृष्टि विकसित की है जिसके मूल में लोकजीवन का राग – बोध है और जिसके बिना रेणु की रचनाओं में भटका तो खूब जा सकता है मगर पहुँचा कहीं नहीं जा सकता। यायावर इस कृति में ऐसे मुकाम पर पहुँचते हैं जहाँ खड़े होकर आम पाठक या सांस्कृतिक रूप से विजातीय पाठक भी रेणु की सर्जनात्मक धड़कनों को प्रत्यक्ष महसूस कर सकते हैं ।    कई बार आलोचनात्मक  या समीक्षात्मक  कृति की समीक्षा करना शोरबे का शोरबा बनाने जैसा लगता है लेकिन यायावर की इस पुस्तक को पढ़ते हुए कई बार यह भी लगता

पैर कविता

पैर / कविता  उन्हें अंदाजा था कि  शांति काल के दिन लेकर आएंगे  सभी पैरों के लिए  अवसर की समानता के अधिकार शांतिकाल की रातें आरक्षित रहेंगी  सपनों के लिए  सपने देखते - देखते  बीत जाएँगी शांति काल की रातें अवसर और सपनों के बीच कुछ पैर पद्म हो जाएँगे कुछ हो जाएँगे पद्मश्री भी कुछ बनकर रह जाएँगे छाले  कुछ बांध लेंगे घुंघरू  कुछ बैठ जाएँगे धरने पर या रैली में   कुछ खड़े ही रहेंगे कतार में कुछ मैराथन में  कुछ टूट जाएँगे कुछ रूठ भी जाएँगे पैर होने की कीमत चुकाएंगे शांतिकाल में  कुछ संसद में कुछ संसद के मार्ग में  कुछ मार्ग के बाएं, कुछ दाएँ  आगे बढ़ते हुए पैर  चोटी चढ़ते हुए पैर  पीछे हटते हुए पैर गलती से एक - दूसरे से सटते हुए पैर

ग़ज़ल / आसमानी तख्त से

ग़ज़ल /  आसमानी तख्त से नीचे उतरकर देखिए।  खूबसूरत है जमीं भी, चल- ठहरकर देखिए।  तब दिमागी शोर का एहसास भी हो जाएगा।    दिल के सन्नाटे से तो पहले गुज़रकर देखिए।  और भी है बहुत कुछ रफ्तार के बाहर यहाँ,  इक दफा रफ्तार से पूरा उबरकर देखिए।  आप भी महसूस कर लेंगे जमाने का दबाव वक्त के सीने पे थोड़ा – सा उभरकर देखिए। रोज औरों को सुधरने की नसीहत दे रहे कारगर होगी नसीहत, खुद सुधरकर देखिए।  देखते हैं आप उनके हाथ ही पत्थर वो क्यों  आपके हाथों में भी तो है वो पत्थर देखिए।