घाट - घाट का पानी

यह उन दिनों की बात है जब मैं महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के एक तालुका में पदस्थापित था। रायगढ़ का मराठा साम्राज्य के इतिहास में अति महत्वपूर्ण स्थान रहा है। रायगढ़ का किला जहाँ शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हुआ था, एक जमाने में मराठा साम्राज्य की राजनीतिक शक्तिपीठ हुआ करता था। आज यह एक जिले के रूप में है और इसकी राजनीतिक महत्ता सीमित होकर रह गई है। हाँ, चुनावी या दलगत राजनीति में आम लोगों की सक्रियता और भागीदारी अच्छी - खासी है। 
द्रुत गति से नगरीकरण होने के बावजूद यह इलाका आज भी  प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर है और  हरे - भरे पहाड़ी वन  से यहाँ की धरती पटी पड़ी है। स्थानीय लोग आम तौर पर उतने ही मिलनसार और आत्मीयता से भरे मिलते हैं जितने देश के अन्य भागों में मिलते हैं। मैं इस इलाके में करीब तीन साल रहा, ऐसा बहुत कम हुआ कि मुझे लगा हो कि मैं किसी अनजानी जगह पर आया हूँ। केवल आरंभिक दिनों में मुझे कुछेक अप्रिय स्थिति का सामना करना पड़ा था वह भी वहाँ के आम लोगों के कारण नहीं बल्कि किसी दल - विशेष की वज़ह से। उन दिनों वहाँ मराठी- गैर मराठी के नाम पर एक दल विशेष काफी हंगामा मचा रहा था।  उस दल के एक स्थानीय नेता ने हमें यहाँ तक धमकी दे डाली थी कि वे हमारा पुतला फूँकेंगे। मैं यह जानकर अति प्रसन्न था कि वे सिर्फ पुतला ही फूँकेंगे, हमें नहीं। जिस दिन वह व्यक्ति हंगामा खड़ा करने के लिए दफ्तर परिसर में पहुँचा था, संयोग से मेरे सामने एक सज्जन बैठे थे। वह स्थानीय महाविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक थे। मेरी उनसे यह पहली मुलाकात थी। उन्होंने उस उपद्रवी पुतलाफूँक पुरुष को मराठी में  समझाने की कोशिश की। वह पुरुष थे कि कुछ सुनने के लिए तैयारही नहीं थे। उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि वह स्वयं मराठी मानुष हैं और इसलिए समझा रहे हैं। फिर मैंने उन्हें शांत करने की कोशिश की। मैंने एक सवाल पूछा - "यहाँ शिवाजी चौक देखा आपने ?"
उन्होंने कहा- "देखा है, शिवाजी महाराज तो हमारे आदर्श हैं, अब आपको उन पर भी आपत्ति है ?" 
"बिल्कुल आपत्ति नहीं है, लेकिन उस चौक पर शिवाजी महाराज की जो प्रतिमा है उसके नीचे क्या लिखा है?"
"वो छोड़ो क्या लिखा है। जो लिखा है मराठी में लिखा है।"- उन्होंने बड़े आत्मविश्वास से उत्तर दिया और मैंने दुगुना आत्मविश्वास से कहा - "नहीं, मराठी में नहीं है।"
पतलाफूँक पुरुष फौरन चुप हो गए और प्राध्यापक महोदय की ओर देखने लगे। प्राध्यापक महोदय ने उन्हें मुसकुराते हुए मराठी में बताया- ब्रज भाषा में है, मराठी में नहीं।"
पुतलाफूँक पुरुष अवाक् थे लेकिन उनके चेहरे पर उभरती उत्सुकता साफ दिखाई दे रही थी। स्थिति को भांपकर मैंने बीच में पूछा - "तब तो आपको यह भी पता नहीं होगा कि वे पंक्तियाँ लिखी किसने हैं? "
वह फिर चुप थे और उनकी आक्रामकता का तापमान तत्काल नीचे उतर रहा था। वातानुकूलन का असर भी साफ दिखने लगा था।
"जी कोई बात नहीं, आप जान लें, वे पंक्तियाँ उस भाषा या बोली में हैं जो मथुरा क्षेत्र की है, जिस कवि ने उन्हें लिखा है उनका जन्म उत्तरप्रदेश में हुआ है और जिनकी महिमा उनमें गायी गयी है वह महाराष्ट्र में पैदा हुए हैं।" - मेरी इन बातों पर प्राध्यापक महोदय तो मुस्कुरा रहे थे परन्तु उस पुतलाफूँक पुरुष के मुखमंडल पर अचंभित होने का भाव प्रकट हो रहा था। 
"पर तुम कहना क्या चाहते हो साहब ?"- उस पुरुष ने मुझसे पूछा।
"कहना क्या है भाई ? आप सोचें यह किस जमाने की बात है, जब न कोई बस- ट्रेन थी न कोई हवाई जहाज। मोबाइल और इंटरनेट की तो बात ही नहीं है। उस जमाने में लोगों का जेहन कितना खुला था। जिस भाषा और समाज में वे पैदा नहीं होते थे उन भाषा और समाज की बोलियों और व्यक्तियों को भी वे खुलकर अपनाते थे। वे असली देशभक्त थे या आज हम असली देशभक्त हैं? उस कवि को क्या क्या पड़ी थी कि महाराष्ट्र में अकर ब्रज में ही लिखते। उनके लिए मराठी सहित अन्य भाषाएँ या बोलियाँ भी तो थीं। मराठी में लिखकर तो वह शिवाजी महाराज को और अधिक प्रसन्न कर सकते थे। क्या शिवाजी महाराज ने उन्हें अपनी बात मराठी में लिखने को कभी मजबूर किया?  तो आप कौन होते हैं अपनी बात दूसरों पर थोपकर 'धरतीपुत्र' होने का दावा करनेवाले?  क्या आप शिवाजी महाराज के मूल्यों को आगे बढ़ा रहे हैं या उनकी सोच की हत्या करना चाहते हैं?  क्या आपको पता है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में लोग बड़े आदर से शिवाजी महाराज और अंबेडकर की तस्वीरें लगाते हैं? क्या उस वक्त वहाँ के लोगों के जेहन में मराठी मानुष का सवाल उठता है ? अगर नहीं तो यह विरोध क्यों? हमारा पुतला क्यों फूँका जाएगा ?"
पुतलाफूँक पुरुष के मुखमंडल पर पसीने की बूँदें फिर से उभरने लगीं। प्राध्यापक ने मुझे बीच में रोकते हुए कहा- साहब, अब वे पंक्तियाँ भी सुना दें न ?"
मैंने कहा - "सर, वे पंक्तियाँ अभी भी वहाँ हैं। मैं जब पहली बार शिवाजी चौक से गुजरा था तो मैं अचंभित हुआ था, उन पंक्तियों पर नहीं बल्कि उस सोच पर जिसने वहाँ के लोगों को उस जमाने में उदारवाद की ओर प्रेरित किया, अपनी जड़ों के फैलाव को पहचानने की कोशिश की।"
प्राध्यापक महोदय ने बस 'सब पाॅलिटिक्स" है सर"
मैंने कहा - "लोग पोलिटिक्स करें, लोकतंत्र पोलिटिक्स के बिना चलेगा भी नहीं लेकिन ये तो समझें कि कैसी पोलिटिक्स करें। लोगों को जोड़ना है या तोड़ना है ?" 
उस पुतलाफूँक पुरुष ने भी  जब उन पंक्तियों को सुनने की इच्छा जतायी तो मुझे सुनाना पड़ा- 
 
"इंद्र जिमि जंभ पर बाड़व सुअंब पर
रावण सदंभ पर रघुकुल राज है।
पौन बारिवाह पर संभु रतिनाह पर......।"

उस पुतलाफूँक पुरुष से  मुझे और भी बहुत कुछ कहना था। फिलहाल इतना ही आवश्यक था और किंचित् पर्याप्त भी।
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