डर

डर 

“तो क्या ‘पहलवान’ जी गिरफ़्तार...?”
लोग एक – दूसरे से दबी जुबान से पूछ रहे थे। किसी को पक्का पता नहीं था कि पहलवान जी गिरफ़्तार हुए या फरार ! पर एक बात तो पक्की थी कि वे इस गाँव या इलाके में कल से नहीं हैं। वे जब गाँव या आस – पास के इलाके में रहते हैं तो कुछ और ही रौनक रहती है और लोगों को हवा में एक खास तरह की वज़न- सी महसूस होती है। आज सुबह से ही न तो कोई रौनक है न ही हवा में कोई ऐसी वज़न है जो यहाँ उनकी मौजूदगी की आहट देती हो। 
यद्यपि वह वो पहलवान नहीं थे जो जन्माष्टमी अथवा दशहरा आदि के मेले की कुश्ती या बाहर किसी ओलंपिक जैसे खेल- महाकुंभ में जाकर जोर – आजमाइश करते हैं। उनकी पहलवानी कुछ अलग किस्म की थी। पुलिस अथवा विरोधी गैंग को धूल चटाने में जो उनकी ताकत और पैंतरे थे, वे किसी पहलवान से कम नहीं थे। अपराजेयता के तमाम लोक – स्वीकृत पैमाने पर वे खरे उतरते थे इसलिए लोग उन्हें ‘पहलवान’ कहा करते थे। स्थानीय पुलिस और मीडिया भी उन्हें  ‘पहलवान’ नाम से ही जानते थे। उनकी ताकत की महिमा ही थी कि दर्जनों आपराधिक मामलों के दर्ज होने के बावजूद पुलिस उन्हें हाथ लगाने से कतराती थी। उनके ऊपर किसी बड़े मंत्री की छत्रछाया थी। उनके पैंतरों का आलम यह था कि शत्रु गैंग के खिलाफ साम, दाम, दंड, भेद से लेकर गुरिल्ला युद्ध तक उनकी कार्यवाही में शामिल था। जातीय गैंगवार में उनकी बहादुरी का कोई सानी नहीं था। 
बहुत कम दिनों में ही ‘पहलवान’ जी के व्यक्तित्व और महिमा में इतना विस्तार और वृद्धि हुई थी कि अब उन्हें सिर्फ ‘पहलवान’ कहना निहायत बेअदबी और उनकी शख्सियत की तौहीन माना जाने लगा था। इसलिए लोगों की जुबान पर उनके लिए ‘पहलवान’ के साथ ‘जी’ सहज चढ़ ही आता था।  हालांकि उनका असली नाम जंगबहादुर  था।  
पुलिस उन्हें तीन दिनों से ढूँढ रही थी। इसके लिए तीन जिले से लगी सीमा पर पूरी नाकेबंदी कर दी गई थी। गाँव और उसके आस – पास या बाहर सड़कों पर पुलिस की जीपें कभी भी धूल उड़ाती पहुँच जातीं और बड़े- बड़े बूटोंवाले सिपाहियों के दल कंधों  पर राइफल लटकाए कभी भी, कहीं भी प्रकट हो जाते। लोगों का नाकों – दम हो रखा था। घर से निकलने से पहले तीन बार सोचना पड़ता था। क्या पता वे किसे कब उठा ले जाएँ और पूछने लगें – “बोल ‘पहलवान’ को किधर छुपाकर रखा है ?” और चुप्पी साध लेने पर सिपाही का मोटा डंडा सीधा मुँह में ...लात – घूँसे अलग से और माँ – बहन की ऐसी की तैसी सो मुफ्त में। नौजवानों के मन में यह सवाल उठता - ये पुलिस समझती क्या है आपने आपको ? 
सौखी को याद है एक बार पुलिस उसे भी उठाकर ले गई थी। कोसी के उस पार से। उसके मालिक रामबहादुर बाबू ने अपने सगे भाई जंगबहादुर  पर पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराई थी। वह इस केस का एकमात्र गवाह था। उसका बयान लेने  के लिए उसे पुलिस उठाकर ले गई थी। मामला भुट्टे की लूट या चोरी का था। सौखी रामबहादुर  के कोशी पार के खेतों की फसल का रखवाला था। रखवाली का यह काम उसे अपने पिता से विरासत में मिला था। कोशी के उस पार रामबहादुर  का बीस बीघे का लंबा – चौड़ा प्लाट था। इसे  बीस बिग्घी’ कहते थे। साल में तीन महीने खेत में  बाढ़ का पानी पसरा रहता। जाते – जाते बाढ़ जमीन में नयी जान डाल जाती।  कार्तिक आते – आते खेत में मक्के के हाइब्रिड बीज बोये जाते थे। जमीन सोना उगलती थी। 
खानदानी बँटवारे में वह जमीन रामबहादुर  के हिस्से आई थी। लेकिन उसके छोटे भाई जंगबहादुर बाबू को यह बाँटवारा स्वीकार नहीं था। ‘आँखो – गुरो’(गाँव में बँटवारे के लिए लगाई जानेवाली एक प्रकार की लाटरी जैसी तरकीब ) से क्या संपत्ति बाँटी जाती है ? सो क्या मकई – धान का बँटवारा था ?” – ऐसा जंगबहादुर की घरवाली ने कहा था। उस वक्त जंगबहादुर की शादी ही नहीं हुई थी अन्यथा उसकी घरवाली ऐसा हरगिज़ नहीं होने देती। रामबहादुर   थे कि तैयार ही नहीं थे। दुबारा बाँटवारे का मतलब था दिल्ली और मुंबई से अन्य दोनों भाइयों को भी बुलाना और बँटवारे के लिए फिर से उन्हें  राजी करना। दोनों भाई गाँव आने के लिए जल्दी तैयार भी नहीं होते। दो – चार दिन गाँव में रहकर रोज की किच- किच या  खट खट उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं थी। यहाँ आकर अपने रक्त की चाप और चीनी बढ़ाना उन्हें स्वीकार नहीं था। जंगबहादुर बाबू की घरवाली सबसे ज्यादा ‘खरमंगल’ करती।
फलत: विवाद का हल निकलने के बजाय वह गहराता ही गया। लड़ाई खूनी ...कानूनी ...। पुलिस- थाने से लेकर केस मुकदमे का दौर शुरू हुआ। जालसाजी और झूठे मुकदमे सब जायज हो गए। तब जंगबहादुर    ‘पहलवान’ जी नहीं कहलाते थे।
रामबहादुर  ने थाने में केस दर्ज कराया था – 
दिनांक.... को हथियारों से लैस करीब बीस लोगों ने रातोंरात उसके ‘बीस बिग्घी’ में जमा सारे भुट्टे लूट लिये। तीन घंटे में सारा खलिहान खाली हो गया। लुटेरे आधी रात को नाव से उतरे और उस पर सारे भुट्टे ढो ले गये और ये सब जंगबहादुर के इशारे पर ... रखवाला सौखी को भी भुट्टे की तरह ‘डंगाया’। जान बच गई बस...”
सौखी यह सब सुनकर अचंभित हो गया था। लेकिन अपने मालिक से कैसे पूछता कि वह ऐसा क्यों कर रहे हैं? काहे की लूट, काहे की मार... और यह केस...झूठी गवाही में मुझे ....?”
“तुम नहीं समझोगे सौखी, तुमसे जब पुलिस पूछेगी तो तुम बस इतना बता देना और तेरा काम पूरा–“हजूर, बीस लोग होंगे...बीस बीघा का भुट्टा...सब ढो ले गए...और मुझे बहुत मारा पीटा..ये देखिए पीठ पर सटासट दाग, हजूर” 
“और इसके लिए इस बार एक मन भुट्टा ऊपर से...।” एक मन भुट्टा सुनकर सौखी का मन डोल गया था । 
मामला कोर्ट तक गया तो बतौर गवाह सौखी पेश हुआ। गवाह के कटघरे में पहली बार खड़ा हुआ था सौखी। उसकी धड़कनें बढ़ गई थीं। 
प्रतिवादी वकील ने सौखी से पूछा  – ‘ अच्छा यह बताइए घाट में नाव है ? 
“जी है”
लेकिन सौखी को यह समझ में नहीं आया कि यह नाव बीच में क्यों आ गई।
“कितनी है और कितनी बड़ी है?”
“हजूर एक है और वह छोटी है, डोंगी है।”
“और सारे भुट्टे नाव से ढोकर ले गए?”
“हाँ हजूर, वे तो आँधी की तरह आए और तूफ़ान की तरह सब कुछ उड़ा ले गए ।”
“नाव कितनी बार इस पार से उस पार और उस पार से इस पार आई? 
सौखी को वकील साहब की बुद्धि पर तरस आ गई और उसने पूरे आत्मविश्वास से कहा, “हुजूर एक बार आई और एक बार गई, चोर - लुटेरा क्या दोबारा लौटकर आता है ?” 
“और लुटेरे के जाने के बाद जब आप घाट पर आए तो आप नाव खेकर उस पार गए मालिक को बताने? 
“जी हजूर, मालिक को न बताते तो क्या आपको...?”
“मि. सौखी जितना पूछ रहा हूँ उतना ही जवाब दें।” 
सौखी थोड़ा डर गया। अपने नाम के पहले ‘मिस्टर’ सुनकर उसे लगा इसका मतलब कहीं ‘झूट्ठा’ तो नहीं है ? झूट्ठा सौखी ? वह सामने बैठे मालिक की ओर देखने लगा। 
“आप इधर देखें, मि. सौखी, लुटेरे के जाने के कितनी देर बाद आप घाट पहुँचे ?”
“हुजूर, तुरत दस मिनट में।“
“तब घाट पर कोई था ?”
“वहाँ रात को और कौन रहेगा हजूर?”
“सौखीजी “हाँ या ना में बताइए।”
पहली बार अपने लिए किसी के मुँह से ‘जी’ सुनकर सौखी का जैसे जी जुड़ा गया वरना मालिक टोले में तो उससे कम उम्र के लोग भी उसे  ‘सौखिया’ ही कहते थे और वह चुपचाप सुन लिया करता था ।
“सौखी जी, हाँ या ना में बताइए।”
शायद दुबारा ‘जी’ सुनने के लिए वह चुप था। 
“सौखी जी...?”
“ना”
तब वकील साहब जज की ओर मुखातिब होकर बोले थे – 
“सर, यह आदमी झूठ बोल रहा है, बीस बीघा के भुट्टे घंटा भर में कोई कैसे ढो सकता है वो भी डोंगी में ? उस पर तीन-चार से ज्यादा लोग बैठ ही नहीं सकते। वो भी नाव एक ही बार इस पार से उस पार गई। और मार्के की बात यह है कि लुटेरे जब लूट कर नाव से ही गए तो फिर नाव घाट के इस पार कैसे आई ? खुद चलकर तो आएगी नहीं। यह आदमी झूठ बोल रहा है सर ?”
वकील की दलील सुनकर सौखी सन्न रह गया। उसके दिमाग़ की सारी नसें एक साथ झनझना उठीं। उसका झूठ पकड़ा जाएगा इसका उसे बिल्कुल अंदाजा नहीं था। मालिक ने तो इसे आसान मामला बताया था। वह मन ही मन मालिक को कोस रहा था और सोच रहा था –दिल्ली- पंजाब जाएगा लेकिन रखवाली का काम अब ...नहीं चाहिए मन – भर भुट्टा। गवाह का कटघरा उसे कैद लग रहा था। वह जान छुड़ा कर भागना चाह रहा था लेकिन कैसे और कहाँ भागता ? उसने देखा – पीछे बैठे रामबहादुर  उसकी तरफ आँखें तरेर कर देख रहे थे। 
जज महोदय ने सौखी से एक सीधा सवाल किया- क्या देखा आपने ?”
सौखी का धैर्य जवाब दे गया। झूठी गवाही देने के जुर्म में कहीं...
सौखी ने झट से सच कबूल कर लिया - हजूर मेरी कोई गलती नै है , इ सब तो रामबहादुर  ने... सो मैंने बोल दिया। उसका नमक खाया हूँ हजूर तो..”
जज महोदय सौखी के भोलेपन पर मुस्कुरा उठे थे। रामबहादुर  केस हार गए। भाई को जेल भेजने की उनकी मनोकामना अधूरी ही रह गयी थी। यह दस साल पहले की बात है ।   
लेकिन आज सौखी सोच रहा था – दस साल बाद ही सही आखिर मालिक की मनोकामना पूरी हो ही गई। 
तीन दिनों तक चले गहन आपरेशन के अंतिम दिन कोशी नदी के दोनों तरफ से रात चली भयानक गोली- बारी में करीब दर्जन भर अपराधी मारे गए और एक सिपाही भी शहीद हो गया । पहलवान जी का एक भी गुर्गा बच नहीं पाया। कोसी की दक्षिणी कछार लाशों से पटी – पड़ी थीं।
सौखी उस रात सो नहीं पाया था। ऐसा धड़ाम धुडुम कभी नहीं सुना था। हर धांय धड़ाम के उठते ही वह अपना चेहरा शतुरमुर्ग की तरह जमीन में रोप लेता और रखवाली के काम को कोसता। सुबह-सुबह उसने देखा था – पुलिस ट्रेलर पर लाशें बोझकर ले जा रही थी। लाशें ही नहीं, इधर – उधर बिखरी अपराधियों से जुड़ी सारी चीजें वे चुन – चुनकर ले गई। कछार के सफेद बालू पर सिर्फ लाल – लाल धब्बे रह गए थे। 
पूरा इलाका सन्न था, लेकिन सबसे ज्यादा सन्न था सौखी। मालिक की मुराद पूरी होने की खुशी तो थी पर एक प्राणघातिनी चिंता उसे खाए जा रही थी। अब रात को खेती की रखवाली के लिए उस पार कैसे जाएगा ? कोसी पार खेत में रात - भर अकेला कैसे रहेगा ? इतने सारे जवान लोग एक साथ अकाल मौत के हवाले हुए हैं।  
“भूत..., बाप रे, भूत नहीं शैतान...जब ये जिंदा रहते हुए शैतान थे, तो मरने के बाद तो और भी सक्खड शैतान ...।” 
उसे याद आया – दरोगी काका का वो वाक़या- जब वह रात को सुनसान अंधेरे में भैंस लेकर चराने निकला था। उस दिन उसे रात का अनुमान नहीं लगा। वह एक – दो बजे रात को ही निकल गया था। ऐसे वह रोज चार बजे निकलता था और आगे कोई न कोई भैंसवाले मिल ही जाते थे। उस रात कोई नहीं दीख रहा था और जो दिखा वह अत्यंत डरावना था। 
“शैतान ? बाप रे ! भाग।” – दरोगी पूरी ताकत से चिल्लाया था। पूरा बैहार  गुँजायमान हो उठा था। लोग दौड़कर बचाने आ गए थे। लेकिन देर हो चुकी थी।
कहते हैं- शैतान ने उसे भैंस की पीठ से उठाकर जमीन पर पटक – पटक मार दिया था। दरोगी की लाश पड़ी थी और भैंस बगल में खड़ी उसे देख रही थी कि वह कब उठेगा। पानी भी नसीब नहीं हुआ बेचारे को। 
पोस्ट मार्टम में डाक्टर ने लिखा था – मौत का कारण दिल का दौरा है। मासिव हर्ट फेल्योर, कभी कभी अचानक डर से...।”
पर गाँव में शायद ही किसी को इन बातों पर विश्वास हुआ कि दरोगी की मौत डर से हुई थी । सौखी ने तो देखते ही कहा था - डर से कहीं आदमी मरता है ? डर से क्या नाक से खून निकलेगा ?
बाद में भैंस मालिक ने उसकी जवान बेवा के साथ क्या किया, दुनिया जानती है। 
‘नहीं, नहीं, वह अपने बीवी – बच्चों  को ...”- सौखी के मन में एक सख्त निर्णय रूपाकार ले रहा था। 
दो मन भुट्टे की मजूरी पर बीस बीघे खेती की रखवाली वो भी लगातार दो महीने तक ? ऊपर से जान आफत में डालकर ? दस साल पहले भी वही दो मन मिलते थे और आज भी वही...पिछले साल उसने बीस – पच्चीस भुट्टे ज्यादा क्या लिए थे, मालिक के मनेजर ने बोरे से निकलवा लिया था। ‘मनेजर’ भी ऐसा चुनकर रखा है रामबहादुर  ने। छाती में बाल नहीं, आँख में हाल नहीं, सी नंबर का कट्ठर - चंठ आदमी, मनेजरी को अपनी मालकियत समझता है ! 
“न,न, वह अभी जाकर अपनी घरवाली को तो समझाएगा ही और मालिक टोला जाकर  उनको भी जबाव दे आएगा “आज से अब रात को रखवारी मुसकिल है, कोई दूसरा रखवाला देख लीजिए मालिक ।”
“ पहलवान क्या गया, तुमलोग अभी से ही हाथ से बाहर ...?” – मालिक के मुँह से ऐसी बातें सुनकर सौखी को ताज्जुब हुआ।
“तो पहलवान जी की गिरफ्तारी से मालिक को कोई खुशी नहीं हुई ? उलटा, उनका चेहरा उतरा – उतरा क्यों  लग रहा था ?” – सौखी सोच में पड़ गया था।  
“लेकिन मालिक, वो तो आपका...?” 
“दुश्मन था सौखी, मेरे लिए दुश्मन था लेकिन दुनिया के लिए हम..।”
सौखी समझ गया। पहलवान जी का डर मालिक के लिए कितने काम का था। अंदरूनी लड़ाई की कटुता से यह डर कहीं बड़ा था।  
“लाठी – डंडे से क्या रखवाली होती है?  तुम तो बस भुट्टों की रखवाली करते हो सौखी, खेत का रखवाला तो कोई और है, नहीं तो बीस बिग्घी कब का संथालों के पेट में चला गया होता।”
सौखी समझ चुका था कि खेत का असली रखवाला वह नहीं बल्कि पहलवान जी का डर है। उसकी नज़र अनायास लाठी पर टिक गई। लाठी कभी इतनी खोखली और इतनी हल्की नहीं लगी थी। चेहरे पर मद्धिम उदासी पसर गई और हाथ से लाठी छूटकर जमीन पर गिर गई। 
“और तुम लोग किसी भरम में मत रहो, पहलवान गया है तो फिर आएगा।” – मालिक की बात में पहलवान जी को लेकर जो उम्मीद थी उसमें सौखी को चेतावनी की आहट साफ – साफ सुनाई पड़ी।
सौखी आगे कुछ नहीं बोल पाया। उसने जमीन पर गिरी हुई लाठी फिर से उठा ली।


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