रेणु के रिपोर्ताज


रेणु के रिपोर्ताज से गुजरते हुए

“अपनी बची - खुची आंखें / और आंखों का बचा-खुचा पानी / छोड़ गया वह/ समय की शिला पर / पाषाणी कान में फुसफुसाकर / कितना कुछ बता गया ...शिला पर ठहरी एक - एक बूँद पर / चमक रहा है अभी भी/  उसके समय का मिज़ाज / अभी भी टकरा रही है शिलाखंड से/  उसकी आवाज़ / वहाँ रखी उसकी आंखें / अभी भी ढूंढ रही हैं कोई बात या घटना / वह लौटेगा शायद और लिखेगा अभी / इस समय का रिपोर्ताज !”
रेणु के रिपोर्ताज पढ़ते हुए मन में लोक- रागात्मकता भरने लगती है। इस रागात्मकता के भीतर से कभी करुण भाव उभरता है तो कभी विद्रोह या संघर्ष की भाव – भूमि निर्मित होने लगती है। ऐसा लगता है – ये महज  रिपोर्ताज नहीं बल्कि रेणु का आत्म- परिचय भी है। उनके संघर्षधर्मी व्यक्तित्व और रागात्मक दृष्टि की झलक यहाँ भी  है । इस विधा में भी उनका स्वर बहुत संयत है। विद्रोही तेवर अथवा  प्रतिरोधी आवेग में उनकी लेखकीय चेतना मानवीय संवेदना से कभी विपथ नहीं होती, न ही करूणा से कटकर कहीं भटकती है। मनुष्य के भीतर और बाहर की सड़ी- गली व्यवस्था के विरुद्ध उठ खड़े होने का जो साहस ऊपजता है उसे इन रिपोर्ताज में मानवीय संवेदना और करुणा जैसे कोमल – तरल भावों के साथ सफलतापूर्वक  साधा गया है। 
इनमें अभिव्यंजित यथार्थ से होकर गुजरते हुए हम अपने  ही संसार से टकराते हैं। यह संसार जटिल भी है और कठिन भी। रेणु के कथा – संसार      की जड़ें  भी अपने पूरे फैलाव के साथ इसी कठिन - जटिल संसार के यथार्थ में गहरी जमी दिखती हैं । इस यथार्थ का प्राण- तत्व है लोक-संस्कृति जो रेणु के साहित्य की आत्मा है और जिसे लेकर रेणु ने अपना लेखकीय स्वरूप गढ़ा है । इसी यथार्थ को देखते – सोचते उनकी कथा – दृष्टि विकसित हुई है और लिखते - लिखते परिपक्व भी। उनकी अधिकतर कहानियों और उपन्यासों में इसकी प्रतिध्वनि साफ – साफ सुनाई पड़ती है या कहें कि उनकी कई कालजयी रचनाओं के गुणसूत्र इन रिपोर्ताज में ढूंढे जा सकते हैं । 
ये रिपोर्ताज दरअसल आजादी के पहले और बाद के दशकों का तेजी से बदलता मिज़ाज और परिवर्तनकामी आवाज़ दोनों दर्ज हैं।
रेणु ने स्वयं लिखा है- “ गत महायुद्ध ने चिकित्सा शास्त्र के चीर – फाड़ विभाग को पेनसिलीन दिया और साहित्य के कथा विभाग को रिपोर्ताज।” उनके इस कथन को,  इस विधा के रचनात्मक उत्कर्ष अथवा सामयिक विमर्श के मद्देनजर यहाँ थोड़ा विस्तार देना समीचीन लगता है कि एक नई विधा के रूप में उभरने के बाद रिपोर्ताज ने भी हिन्दी को कुछ श्रेष्ठ सर्जनात्मक प्रतिभाएं दीं जिनमें से एक रेणु भी हैं जो अपनी अलग पहचान, अलग आभा और अनोखे स्वाद के साथ कभी ‘मिरदंगिया’ तो कभी संवदिया या राजेन, एकलव्य, या ज्ञान के रूप में खड़े हैं। पात्रों के साथ जीना और उनके साथ एकात्मता स्थापित कर जीना रेणु की ऐसी रचनात्मक शास्रीयता है जिसके कसाव में उनके रिपोर्ताज और कहानियां गलबहियाँ करते आगे बढ़ते हैं । 
रिपोर्ताज ने, निस्संदेह घटित घटनाओं को ब्यौरेबार प्रस्तुत करने की सहूलियत दी है जिनके व्यापक और दूरगामी  सामाजिक -राजनीतिक या सांस्कृतिक सरोकार होते हैं  और उन घटनाओं को नजरअंदाज करने का मतलब है इन सरोकारों से नजर चुरा लेना और सिर्फ  सुविधाजनक या अनुकूल परिस्थिति पाकर अपनी आभा को चमकाते रहना। रेणु ऐसे साहित्यकार बिल्कुल नहीं थे। उनके लेखन और अपने व्यक्तिगत या सार्वजनिक जीवन में उनके क्रिया कलापों के गहरे सामाजिक – सांस्कृतिक तथा राजनीतिक सरोकार थे जो उन्हें हमेशा बेचैन किए रहते थे। उनकी यह बैचेनी उनके कथा – संसार से कहीं अधिक उनके रिपोर्ताज में देखने को मिलती है।इनमें रेणु अपने समय और समाज से सीधा संवाद करते हैं । यही नहीं, कहीं बैठकर सिर्फ संवाद करना उन्हें कभी गंवारा नहीं था। वे कभी आजाद दस्ते के सिपाही के रूप में, कभी नेपाली क्रांति के जुझारू झंडाबरदार बनकर, तो कभी अपने खेत में गेहूँ की कटाई करते हुए तो कभी घोर गरीबी, महामारी, अभाव और असुविधाओं में जी रहे, हर क्षण संघर्ष करते  ग्रामीण   भारत की पिछड़ी – अति पिछड़ी आबादी के बीच रहकर सब कुछ सामने घटित होते देखते थे, देखकर कभी चुपचाप नहीं रह सकते थे बल्कि हमेशा जन – जीवन से संवाद करते, जनसाधारण के सरोकार को आगे रखकर सबको संघर्ष के लिए प्रेरित करते और स्वयं भी उसमें कूद पड़ते थे। एक अर्थ में रेणु सिर्फ साहित्यकार नहीं थे बल्कि एक जिम्मेदार सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता,संघर्षधर्मी और समाजवादी चेतना के वाहक एवं संवेदनशील पत्रकारिता के बड़े स्तंभ भी थे। कागज - कलम हो अथवा पिस्टल या गुरिल्ला – युद्ध, जन साधारण की बिखरी आवाज़ या उसके बदरंग चेहरे को  सामने लाने, आंदोलन अथवा सशस्त्र क्रांति को आगे बढ़ाने की बात, वे अपनी जिस्मो – जान तक देने के लिए तैयार रहते थे। 
हलांकि रेणु मूलतः कथागायक हैं। उनके रिपोर्ताज में भी इस गायन का स्वर बड़ी  मुखरता के साथ उभरा है। उनके रिपोर्ताज में घटित घटना या यथार्थ के दृश्य – परिदृश्य एवं तत्संबंधी तथ्यों के विवरण या ब्यौरे पर जितना फोकस है उससे कहीं ज्यादा फोकस घटना या दृश्य  की छानबीन और प्रस्तुति – शैली पर है जिससे वे इसमें रोचकता और सौंदर्य  पैदा कर अपनी सर्जनात्मक कुशलता की  गोल  सीमा -  रेखा खुद ही खींचते हैं जिसके घेरे में पाठक घटना या गतिशील दृश्य – चित्र की सघन बारीकियों में इस कदर खो जाता है कि उसे पता ही नहीं चलता कि वह कहानी पढ़ रहा है या रिपोर्ताज । कहानी में रिपोर्ताज है या रिपोर्ताज में कहानी, यह तय करना थोड़ा मुश्किल हो जाता है । यही खासियत रेणु को बाकी रिपोर्ताज – लेखकों से अलग करती है। 
कहानी में पसरा हुआ यथार्थ बहुधा वही यथार्थ होता है जिसे लेखक अपने पात्रों के अनुकूल सिरजकर उसे अधिकाधिक प्रभावशाली बनाकर प्रस्तुत करता है लेकिन रिपोर्ताज में यथार्थ ऐसा नहीं  रहता। इसके यथार्थ का अनुकूलन संभव नहीं। यहां लेखक यथार्थ से बिल्कुल सीधा टकराता है और प्रस्तुत्य अथवा कथ्य के प्रयोजन और प्राथमिकता गत्यात्मक बने रहते हैं। रेणु अपने रिपोर्ताज में कई बार ऐसी स्थिति का सामना करते हैं और इस गत्यात्मकता के सहारे अपने कैनवस को बड़ा कर एक साथ कई दृश्य दिखा जाते हैं और इस तकनीक में पाठक की संवेदना को चारों ओर से बांधकर झकझोर देने की पर्याप्त क्षमता होती है।  
रेणु के कुल उन्नीस रिपोर्ताज पाठकों के लिए उपलब्ध या प्रकाशित कहे जाते हैं। उनके बिखरे और लुप्तप्राय या गायब हो गए रिपोर्ताज को एक – एक कर ढूंढ निकालने,संकलित – संपादित कर पुस्तकाकार देने में भारत यायावर ने एक ऐतिहासिक कार्य किया है। रेणु के रिपोर्ताज के पुनर्गठन या प्रस्तुति में उनकी बहुत अहम भूमिका रही है। इसलिए इनकी रिपोर्ताज की पूरी समझ के लिए यायावर की रेणु - समझ को भी समझना एक जरूरी और प्रीतिकर कार्य हो जाता है। 
इन उन्नीस रिपोर्ताज में प्रमुख हैं – विदापत नाच, जै गंगा, डायन कोशी, हड्डियों का पुल, हिल रहा हिमालय, सरहद के उस पार, भूमिदर्शन की भूमिका,  घोड़े की टाप पर लोहे की रामधुन, एकलव्य के नोट्स, रसोई के बस में चार रात, समय की शिला पर : सिलाव का खाजा,  पटना जल – प्रलय आदि।
‘बिदापत – नाच’ में रेणु बिदापत नाच का  परिचय देकर  जिस तरह बात शुरु करते हैं वह सचमुच अद्भुत है। मुसहर दलित की टोली में महाकवि विद्यापति के पद पर थिरकता दलित चेतना के वाहक विकटा का मन लोकगीत के पद में हंसते – हंसाते समाज की पूरी दंश -कथा कह जाता है। ये पद भले ही विद्यापति के नाम पर चल पड़े हों, मगर इनसे विद्यापति का नाम जोड़कर नाच लेना इतना तो साफ कर ही देता है कि विद्यापति के गीत में जो लोक – संस्कृति के सरस और सुरुचिपूर्ण तत्त्व हैं, उन्हीं के बल पर सामाज की जातीय विविधता को तमाम विषमताओं के बावजूद एक धागे में बांधकर रखा जा सकता है। अभिजात्य या उच्च जाति के संस्कार लिए इस महाकवि की पहुंच समाज की सबसे भीतरी या रिमोट क्लास तक कितनी गहरी थी यह देखने योग्य बात है । यही नहीं, इसमें रेणु ने हीनता – ग्रंथि से ग्रस्त लोक – संस्कृति के भदेस रूप को बड़े आत्मविश्वास के साथ आभिजात्य या शहर की सोफिस्टिकेटेड जीवन – संस्कृति के समक्ष खड़ा किया है। भारत यायावर ने इसे “विनम्रतापूर्ण चुनौती” कहा है। 
‘नए सवेरे की आशा’ एक किसान मार्च का रिपोर्ताज है। इसमें रेणु का वामपंथी रूप खुलकर सामने आया है। आजादी से पहले तीस के दशक के बाद से ही समाजवादी – वामपंथी बुद्धिजीवी या नेता जिस आजादी की बात करने लगे थे उसके सामने सन् 47 की आजादी अधूरी थी,समाजवादी नज़र में शायद झूठी भी। आजादी के बाद इन लोगों ने जनता की  सामाजिक – आर्थिक आजादी के लिए  नेतृत्व देने की जो कोशिश की, लोकजीवन को जिस हद तक झकझोरा और संघर्ष की राष्ट्रीय – अंतरराष्ट्रीय दांव – पेंच से जनसाधारण को अवगत कराया, इससे जिस  आंदोलनकारी संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार होती गई, इन सारी चीजों की “ट्रेजेक्ट्री” इसमें मौजूद है।  यही नहीं 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जन –मानस के पटल पर आई दिशाहीनता और अनिर्णय की स्थिति को इसमें बड़ी संवेदनशीलता और जिम्मेदारी से रेखांकित किया गया है । 
‘हड्डियों का पुल’ तो  रिपोर्ताज के कवर में लिपटी मानवीय पीड़ा की आर्द्र पांडुलिपि है जिसके पृष्ठों की गिनती मुश्किल है। अकाल-जनित भुखमरी जहाँ आम गरीब जनता के लिए मौत की काली छाया लेकर आती है वहीं जमाखोरों और तथाकथित उदार – दानी धन्नासेठ वर्ग के लिये यह लाभलाभ का मौसम या अवसर के रूप में आती है।  भुखमरी में भगिया अपना सब कुछ खो बैठती है और सत्ता अकाल -भूखमरी की खबर को अपने मजबूत प्रचार- तंत्र से  झुठलाने की संगठित कोशिश करती है।  रेणु ने कोशी अंचल  के इस दुष्काल की जो जमीनी सच्चाई  देखी उससे वे बहुत आहत हुए थे। सत्ता हमेशा अपने प्रचार -तंत्र या मीडिया की ताकत से सच्चाई या जमीनी बातों को ढाँपने में सफल हो जाती है और जो सुनाई – दिखाई जाती है उसमें झूठ के अलावा कुछ रहता नहीं। 
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