हिन्दी दिवस: कुछ सवाल

भाषा – संस्कृति, धर्म से भी बुनियादी चीज है। जब धर्म- संप्रदाय नहीं थे तब भी भाषा थी, संस्कृति थी। लोगों ने धर्म बदले, संप्रदाय बदले लेकिन उनकी भाषा- और संस्कृति कमोबेश वही रही। धर्म में बदलाव से भाषा- संस्कृति में कुछ बदलाव आए भी लेकिन भाषा- संस्कृति की मूल आत्मा वही रही और उससे लोगों का लगाव उतना ही बुनियादी बना रहा। यह बात सिर्फ भारत जैसे देश पर लागू नहीं होती। लगभग सभी देशों में जहाँ धर्म प्रचार या धर्म युद्ध के बल पर बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हुआ, वहाँ भी बिल्कुल ऐसा ही हुआ । लोगों ने नए धर्म अपनाए लेकिन अपनी मूल भाषा या संस्कृति की भावना की कीमत पर नहीं । धर्म को वहाँ की भाषा या संस्कृति ने अपने स्वरूप में समाहित किया न कि उस भाषा- संस्कृति के स्वरूप को अपनाया जिसमें धर्म मूलतः पैदा हुआ। दक्षिण एशिया के देशों ने जो बौद्ध धर्म अपनाया, उसे अपनी स्थानीय भाषा- संस्कृति के अनुसार इस तरह अपनाया कि बौद्ध धर्म का स्वरूप वहाँ के अनुसार तैयार हुआ । यही बात इस्लाम पर भी लागू होती है। दक्षिण- पूर्व एशिया के देशों में इस्लाम को मान्यता मिली लेकिन उनकी भाषा- संस्कृति बुनियादी रूप से पूर्ववत् ही रही। अफ्रीका या भारत में जो इसाइयत या इस्लाम फैला उससे यहाँ की मूल संस्कृति में कोई बड़े बदलाव नहीं हुए। 
भाषा- संस्कृति कितना मौलिक तत्व है कि लोगों ने जहाँ अपनी भाषा- संस्कृति पर खतरा महसूस किया वहाँ धर्म के नाम पर एकीकरण के प्रयास को भी सफल नहीं होने दिया । पूर्वी पाकिस्तान का पाकिस्तान से विभाजन इसका आधुनिकतम और अकाट्य उदाहरण है। दोनों हिस्से समान धर्मावलंबी थे, इस्लामी बंधुत्व के आधार पर नया राष्ट्र बना था। फिर टूट क्यों गया ? पश्चिमी पाकिस्तान के विरुद्ध बंगलादेश के लोगों में इतना रोष क्यों था ? असली मामला भाषिक- सांस्कृतिक अस्मिता का था। पूर्वी पाकिस्तान के लोग उर्दू - पंजाबी  बोले बिना भी इस्लाम के अनुयायी बने रह सकते थे। तो वे अपनी सांस्कृतिक पहचान कैसे गँवा सकते थे ? इस्लाम वहाँ उन्हें जोड़कर रखने में कामयाब क्यों नहीं हो पाया जबकि राष्ट्र का निर्माण ही इस्लाम के आधार पर हुआ था। इसका फिर वही जबाव होगा कि दोनों जातियों के सांस्कृतिक हित बिल्कुल भिन्न थे जिन्हें सिर्फ एक धर्म के झंडे तले एक साथ साधना मुश्किल था। एक तरह से देखा जाए तो बांगलादेश का निर्माण या पाकिस्तान का विभाजन धार्मिक- साम्प्रदायिक राजनीति पर किसी सांस्कृतिक विजय से कम नहीं था। इस विजय ने यह भी साबित कर दिया कि जिस आधार पर भारत का विभाजन हुआ वह बिल्कुल कृत्रिम था और सबसे बड़ी बात कि भारतीय समाज की सांस्कृतिक चेतना के विरुद्ध था भले ही ही वह धार्मिक- राजनीतिक दृष्टि से तर्कसंगत या स्वाभाविक परिणति जैसा लगता हो।   इस बात को धर्म- संप्रदाय के राजनीतिक ठेकेदार कभी नहीं समझेंगे। इसे सिर्फ आम जनता ही समझ सकती है। 
यह बात जब मैं हिन्दी दिवस पर कह रहा हूँ तो इसका मतलब साफ है कि हमें भी इसकी समझ होनी चाहिए । आए दिन हिन्दी- उर्दू के अस्तित्व या अस्मिता के संघर्ष की बात होती रहती है । लोग पूछते रहते हैं हिन्दी में उर्दू कितनी और उर्दू में हिन्दी कितनी। दूसरी, क्या उर्दू किसी खास संप्रदाय की भाषा है ? भाषा में हिन्दू मुसलमान क्यों? दूसरी बात चूंकि उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा है इसलिए यह मुसलमानों की भाषा हो गई ? क्या एकमात्र पाकिस्तान ही उर्दू- संस्कृति का हकदार है? हमारा इसमें कोई हिस्सा नहीं? तमाम ऐसे प्रश्न हैं जिनपर ठंडे दिमाग से सोचना होगा। सच्चाई तो यह है कि बात इस हद तक आ गई है कि उर्दू हिन्दी के बिना और हिन्दी उर्दू के बिना जीवित ही नहीं रह सकती। पाकिस्तानी उर्दू के पैरोकार  जो वहाँ की उर्दू में अरबी - फारसी या तुर्की शब्द ठूंस ठूंसकर अपनी उर्दू को इस्लामी संस्कृति के करीब दिखाना चाहते हैं, भी कुछ हद तक संस्कृत के हिन्दी- प्रचलित तद्भव शब्दों के प्रयोग से बच नहीं पाते। हिन्दी में भी यह कोशिश हुई थी, ऐसा मुझे लगता है । हिन्दी कविता- साहित्य का जो छायावादी युग है वह भाषा की दृष्टि से कहीं न कहीं संस्कृत - निष्ठता के प्रति आग्रह को इंगित करता है। सिर्फ निराला इसके अपवाद हो सकते हैं । "कामायनी" जो छायावाद के चरमोत्कर्ष का महाकाव्य है, की भाषा किसी भी दृष्टि से वह नहीं है जो प्रेमचंद की है। प्रेमचंद का गद्य भी कमोबेश उसी काल का गद्य है। ऐसा कैसे हो सकता है कि एक ही कालखंड में सबसे बड़े कवि की भाषा उसी कालखण्ड के सबसे बड़े कहानीकार- उपन्यासकार की भाषा से मेल नहीं खाएगी ? कहीं तो "टेंजेंट" ( स्पर्शज्या) होना चाहिए ? हो सकता है मेरी समझ अल्प हो लेकिन इस सवाल पर विशेषज्ञ को सोचना चाहिए । हिन्दी- उर्दू का सामंजस्य आधुनिक इतिहास में मुझे लगता है उसी कालखंड से टूटना आरंभ हुआ। धर्म आधारित भारत विभाजन ने इसे हवा भी दी होगी। 
हिन्दी- उर्दू की लड़ाई सबसे ज्यादा अभी हिन्दी ग़ज़ल के नाम पर है। इसमें कोई दो राय नहीं कि ग़ज़ल मूलतः उर्दू की विधा नहीं है लेकिन यह भी सच है कि उर्दू ने बहुत पहले इसे विधिवत् रूप से अपनाया और इसमें विपुल साहित्य लिखा गया। आधुनिक हिन्दी में ग़ज़ल देर से आई और इसी कारण हिन्दी के ग़ज़लगो , ग़ज़ल की शास्त्रीयता साबित करने के लिए उर्दू ग़ज़लगो की तरफ झांकते होंगे, यह स्वाभाविक रूप से होता होगा। उर्दू के कई लोग हिन्दी को उच्चारण या लेखन की दृष्टि से कमतर भी आंकते थे। मुझे याद है, बचपन में किसी उर्दू के शिक्षक ने मुझसे कहा था कि उर्दू सीख लो तो उच्चारण सही हो जाएगा । कहीं न कहीं उर्दू के लोग श्रेष्ठता की ग्रंथि से ग्रस्त थे, इसमें कोई दो राय नहीं । लेकिन वे कभी यह नहीं मानते थे कि इसका धर्म या मजहब से कोई संबंध है। कई हिन्दू शायर या अदीब हुए जिन्होंने उर्दू में बिना किसी मजहबी पूर्वाग्रह के उच्च कोटि के साहित्य लिखे भले ही उनमें यह भावना रही होगी कि वे बेहतर भाषा में लिख रहे हैं। 
यहाँ एक और बात गौरतलब लगती है कि जब ‘ब्राह्मण’ को बिरहमन कहने में उर्दूवाले अदीब हिचकते नहीं बल्कि इससे उनकी भाषिक शुद्धता भी मार नहीं खाती, न ही ग़ज़लका शब्द- शिल्प बिगड़ता है तो ‘शह्र’ को शहर कहने में हिन्दी वाले ही हिन्दी ग़ज़लकारों को कटघरे में क्यों खड़े करने लगते हैं ? ‘शह्र’ शब्द के वजन या बह्र  को ‘शहर’ के वजन या बहर के मुताबिक चलने क्यों नहीं दिया जाता ?  जो शब्द हिन्दी में आ गए हैं और धड़ल्ले से प्रयुक्त हो रहे हैं उनके  वर्ण की गणना उर्दू अनुशासन के दायरे में क्यों?  ये सारे विवाद हिन्दी में कुछ विशुद्धतावादी उर्दूदाँ लोग कर रहे हैं जिन्हें इस बात का बिल्कुल एहसास नहीं है कि भाषा में शब्दों को पहचाने की क्षमता होती है  और हिन्दी में यह क्षमता किसी अन्य भाषा से कम नहीं । 
मुझे तो ।हिन्दी- उर्दू की बात ही बेमानी लगती है। इस दौर में शुद्धता एक काल्पनिक या वायवीय अवधारणा होकर रह गई है । अंग्रेजी अगर इस अवधारणा को पकड़कर रहती तो वह आज वहाँ नहीं होती जहाँ वह अभी है। क्या अंग्रेजी के लिए अस्तित्व या अस्मिता कोई अर्थ नहीं रखती ? यह सिर्फ हिन्दी के लिए है  या अन्य भारतीय भाषाओं के लिए ही है ? 
हिन्दी अपनी जीवनी शक्ति संस्कृत से लेती है और लेती रहेगी लेकिन इसे जिस हवा में सांस लेनी है उसमें खुलापन न हो तो यह परिवर्तन को समेट नहीं पाएगी। अभी जो भी परिवर्तन है उसका "ड्राइविंग फोर्स" तकनीक है जिसके त्वरण का भी अपना त्वरण है, मतलब गति तो बढ़ ही रही है, जिस दर से गति बढ़ रही है, वह दर भी बढ़ती जा रही है। इसके साथ हिन्दी को कैसे समायोजित करना है, यही असली समस्या है अभी न कि यह कि शेष भाषाओं से कैसे निपटना है। समकालीन हिन्दी का जो लोकतंत्रीकरण हुआ है, वही उसे बचाएगा और आगे भी बढ़ाएगा। बोलियों से इसकी दूरी जितनी घटेगी, इसमें उतना ही 'लोक' और भी ध्वनित होगा। दूसरी भाषाओं के शब्द इसे समृद्ध ही करेंगे । इसे अंग्रेजी की तरह 'डिस्टिलेशन आफ लैंगुएजेस" बनना है तो इसकी 'रिसेप्टीविटी' को बढ़ाना ही होगा। इसकी शब्द- धारिता बढ़ाने के लिए शुद्धता के पूर्वाग्रह या रूढ़ि से नीचे उतरना ही पड़ेगा । सिर्फ हिन्दी दिवस मनाकर हम जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकते। कुल मिलाकर सवाल भाषा का है जिसमें हम बोलते हैं,  लिखते हैं,  जीते और मरते हैं। यह हिन्दुत्व या इस्लाम का सवाल नहीं बल्कि हमारी जातीय संस्कृति का सवाल है जिससे आँखें चुराने का मतलब है अपनी आँखें खो देना, अपनी आत्मा को मार देना। अभी बस इतना ही । 
 

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