जात न पूछै शिक्षक की

मित्रो, आज सुबह सुबह फेसबुक पर एक पोस्ट देखा। पोस्ट में दो - तीन तस्वीरें भी थीं। फेसबुक पर जितनी तस्वीरें देखी हैं उनमें से ये तस्वीरें मेरे लिए बहुत खास हैं । क्योंकि इनमें एक संदेश है, सामाजिक संदेश। 
ये हैं मेरे मित्र जितेन्द्र झा। जब मैं शिक्षक था, इनका सान्निध्य मिलता रहता था। एक शिक्षक के रूप में ये बहुत योग्य और जिम्मेदार शिक्षक हैं । आज मुझे लगा ये एक छात्र के रूप में भी एक कृतज्ञ छात्र हैं । इस तस्वीर में वे अपने बचपन के शिक्षक का चरण - स्पर्श करते दीख रहे हैं । ये शिक्षक हैं श्री गुलाब यादव। इनसे मेरा कोई  व्यक्तिगत परिचय नहीं है। लेकिन मुझे लगता है जितेन्द्र जी सही कह रहे हैं कि वे योग्य शिक्षक होंगे क्योंकि शिक्षक होने के बाद , या इतने सालों बाद भी उनका छात्र उन्हें अगर इस तरह याद कर रहा है या कृतज्ञता जता रहा है जो उस ज्ञान, शिक्षा और संस्कार की दाद देनी चाहिए जो इस शिक्षक ने अपने बाल - छात्रों में डाले। इसका दूसरा पहलू अधिक महत्वपूर्ण है जो बिल्कुल सामाजिक है , जिसमें एक साफ संदेश है। 
मेरी बात अटपटी लग सकती है लेकिन अगर उसमें कुछ दम है तो जरूर विचार करना चाहिए । मेरा कहना है अगर ब्राह्मण जाति इतनी ही श्रेष्ठ है तो उसका सर किसी किसी क्षत्रिय या पिछड़ी जाति के चरणों पर क्यों झुकेगा ? लेकिन यहाँ झुका है और पूरी श्रद्धा के साथ झुका है। यह सिर किसी सवर्ण का नहीं, यह सिर एक शिक्षार्थी का है, विद्यार्थी का है। यह चरण किसी अवर्ण या पिछड़े का नहीं, किसी शिक्षक का है, किसी विद्यावान् का है जिसने समाज को कुछ दिया है। कहाँ है वह जातिवादी बोध ? कहाँ है वह पूर्वाग्रह जो दीवार पैदा करता है? कौन हैं वे जो इस दीवार पर अपनी अपनी छत डालकर अपने अपने कमरे बनाते हैं जिनकी खिड़कियाँ कभी खुलती ही नहीं ? भेद का भावबोध आखिर कौन बोता है ? इसकी पहचान जरूरी है । 
भेद के भावबोध से ग्रस्त लोग कहीं भी हो सकते हैं किसी भी जाति में हो सकते हैं । यह भावबोध किसी जाति की बपौती नहीं, यह नितांत व्यक्तिगत संस्कार है, व्यक्तिगत निर्णय है। इस भावबोध को जाति- व्यापक बनाने का मतलब है जातिवादी मानसिकता से सहमत होना। 
इसलिए मेरा मानना है कि जाति अच्छी या बुरी जैसी कोई चीज नहीं है । जाति सिर्फ वंशानुगत सामाजिक  पहचान है। यह पहचान यह तय नहीं करेगी कि व्यक्ति का विकास- पथ क्या होगा ? व्यक्ति की विकास- यात्रा उसकी निजी प्रतिभा और संस्कार तय करेंगे। कौन ऊँच है और कौन नीच उसका आचरण तय करेगा। सिर्फ किसी खास जाति में पैदा होने से कोई श्रेष्ठ- अश्रेष्ठ घोषित नहीं हो सकता। अगर इसकी घोषणा या मान्यता का आधार जाति है तो यही है जातिवाद ।
मुझे याद है, प्रसिद्ध समाजवादी राजनेता शरद यादव ने संसद में एक भाषण में एक महत्वपूर्ण बात कही थी- "जाति इस देश का सबसे बड़ा दर्द है तो यह एक सच्चाई भी है।" उनकी इस बात में जो सामाजिक यथार्थ है उसे हम झुठला नहीं सकते। 
इसमें आपका या हमारा क्या दोष है या क्या उपलब्धि है कि हम दलित- पिछड़ी जाति में पैदा हुए और आप सवर्ण जाति में अवतरित हुए ? यह तो संयोग है। ठीक है कि संयोग भी अगर जीवन का एक बड़ा सत्य बन ही गया तो इसमें क्या बुराई या अच्छाई है कि हम खुद को किसी खास जाति का आदमी बताएं ? 
असली समस्या जाति नहीं है। असली समस्या हिन्दू,  मुस्लिम या ब्राह्मण- दलित नहीं है। असली समस्या है इन सबके ऊपर चल रहा "वाद"जो एक को दूसरे के खिलाफ खड़ा करता है और वे वाद एक - दूसरे की प्रतिक्रिया में ही कमजोर और मजबूत होते रहते हैं । कोई भी प्रतिक्रियावादी वाद कल्याणकारी नहीं हो सकता । प्रत्येक प्रतिक्रिया का हित हमेशा एकपक्षीय ही होता है । उसमें सबके हित की बात सोचना ही बेमानी है । 
यह भी गौरतलब है कि जाति आप मिटा ही नहीं सकते क्योंकि आप परंपरा और इतिहास नहीं मिटा सकते। परंपरा या इतिहास को समयानुकूल परिमार्जित या व्याख्यायित कर सकते हैं, उसे आमूल नष्ट करने का मतलब है सामूहिक आत्महत्या ! 
एक बात और, आप मजहब बदल सकते हैं, संस्कृति भी बहुत हद तक बदली जा सकती है लेकिन जाति बदली नहीं जा सकती। आप यादव हैं तो आजीवन यादव ही रहेंगे, राजपूत हैं तो जाति से ब्राह्मण नहीं होंगे । होने की जरूरत भी क्या है? 
मेरे विचार से वर्ण व्यवस्था को जाति के समकालीन संदर्भों में समझा जाना चाहिए । ब्राह्मण,  क्षत्रिय,  वैश्य और शूद्र दरअसल हम जातिधारियों के लिए बस एक विकल्प या आदर्श के रूप में होना चाहिए । हम किसी भी जाति के हों हमारे पास ये चार विकल्प हों और विकल्प को चुनने की आजादी हो। होना यह चाहिए कि हम जाति से जुलाहा हों तो वर्ण से ब्राह्मण हों। हम जाति से ब्राह्मण हों तो वर्ण से शूद्र बनने की आजादी या विकल्प होना चाहिए । हमें जाति से वर्ण तक जाना होगा। सारी गड़बड़ियां शुरू होती हैं तब जब हम वर्ण से जाति की तरफ आते हैं । हमें इतिहास से वर्तमान नहीं बल्कि वर्तमान से इतिहास को समझना होगा। आखिर समकालीन दृष्टि का फिर मतलब ही क्या है ? हम जहाँ खड़े हैं वहीं से चलना है और वहीं से देखना भी है। 
इस देश में जाति के विरुद्ध बहुत कुछ हुआ, परिणाम क्या निकला ? न जाति गई न जातिवाद गया। इसके उलट जाति - बोध बढ़ता ही गया। देश की बहुत सारी प्रतिभाएँ जाति प्रथा के विरुद्ध लड़ती कप गईं, परिणाम सबके सामने है। आपकी जाति रहेगी ही क्योंकि यह आपके हाथ में नहीं है। आप पैदा होते ही किसी जाति के हो जाते हैं । इसमें कुछ खूबी या खामी,  कुछ हानि या लाभ जैसी कोई बात है ही नहीं । इसमें जब खूबी या खामी ढूंढने की कोशिश होगी तभी जातिवाद पैदा होता है अन्यथा जाति अपने आप में कोई निर्णायक तत्व है ही नहीं । 
जितेन्द्र भाई और श्री गुलाब यादव को बहुत-बहुत बधाई और आभार भी कि हमें कुछ सोचने का अवसर मिला !


 

 

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