पेशे से केमिकल इंजीनियर कवि
अखिलेश श्रीवास्तव समकालीन हिन्दी कविता में अनुभूति का अलग रसायन घोलते हैं जिसमें पाठकों के स्वाद- बोध को निखारने की पूरी क्षमता है। उनकी कविता चमत्कृत नहीं करती बल्कि चमत्कृत लगती चीजों की असलियत खोलती है । यहाँ प्रस्तुत उनकी कविताओं में समकालीन मानवीय संवेदना के संवेदनशील इलाके की शिनाख्त की जा सकती है ।गेहूँ का अस्थि विसर्जन :खेतों में बालियों का महीनोंसूर्य की ओर मुंह कर खड़ा रहनातपस्या करने जैसा हैउसका धीरे धीरे पक जाना हैतप कर सोना बन जाने जैसाचोकर का गेहूँ से अलग हो जानाकिसी ऋषि का अपनी त्वचा कोदान कर देने जैसा हैजलते चूल्हे में रोटी का सिंकनागेहूँ की अंत्येष्टि जैसा हैरोटी के टुकड़े को अपने मुंह में एकसार करउसे उदर तक तैरा देनागेहूँ का गंगा में अस्थि विसर्जन जैसा हैइस तरहतुम्हारे भूख को मिटा देने की ताकतवह वरदान हैजिसे गेहूँ ने एक पांव परछ: महीने धूप में खडे़ होकरतप से अर्जित किया था सूर्य सेभूख सेतुम्हारी बिलबिलाहट का खत्म हो जानागेहूँ का मोक्ष हैइस पूरी प्रक्रिया में कोई शोर नहीं हैंकोई आवाज नहीं हैंशांत हो तिरोहित हो जानामोक्ष का एक अनिवार्य अवयव है !मैं बहुत वाचाल हूंबिना चपर चपर की आवाज निकालेएक रोटी तक नहीं खा सकतामुजफ्फरपुर :देवकी नंदन खत्री के शहर में बची रह गई है अय्यारीशाम होते होते सफेद लिबास में लिपटे अय्यार बदल जाते हैं काले धुँएँ मेंकहकहे गूँजते हैं औरराजा के महल में हर रात गायब हो जाती है एक लड़की !वैसे ये लड़कियाँ अपनी पूरी उम्र गायब ही रहीना माँ को मिली न पिता कोरोज खोजती रही गुमशुदगी के पोस्टर में अपना चेहरापलक झपकते हीगुम हुई चुप्पाई लिए कस्बों सेबीच सड़क गली गलिआरों सेजैसे बरसात में चलते हुए गटर के खुले मैनहोल पर पड़ गया हो पांव !कुछ प्रेम में बरगलाई गईकुछ रात तक मारी जाने वाली थीकुछ ज़हर नहीं खा पाईकुछ इतनी डरपोक थी कि ट्रेन से कटने जातीतो उसकी आवाज़ से डर जातीआत्महत्या के असफल प्रयासों के किस्सों से भरी हैं ये लड़कियाँसुनाती हैं तो कमरा ठहाकों से भर जाता हैकुछ इतनी अनपढ़ थी कि स्वर्ग की तलाश में अपनी देह सहित भागीबहुत भटकने के बाद सदेह स्वर्ग न मिलने के मिथक का पता चलातो हताश होकर शून्य में निहारने लगीनर्क के दरवाजे खुले मिले तो उसी में घुस गई !इनकी स्मृति में जस की तस है उन मर्दों की सूरतजिन्होंने इन्हें पहले पहल तौला और बेच दियावैश्विक मंदी के दौर में भी हाथों-हाथ बिकी ये लड़कियाँ !तुम्हारी भाषा वज्जिका में स्त्री को धरती कहते हैंपर अभी हम बच्चियाँ हैंतुम अपने भाषा संस्कार में हमें गढ़ई कहनाना, ना हम बहुत गहरे धँसे है गढ़ई सेतुम हमें कुआँ कहनापर हम कैसे कुएँ हैजो खुद चलकर जाते हैं प्यासे के पासइस तरह भाषा से भी बहिष्कृत हैंउसके मुहावरे हम पर लागू नहीं होते !खादी, गांधी टोपी, भगवा चोला, सत्यमेव जयतेसब इस घुप्प अंधेरे कमरे की खूंटी पर चढ़ते उतरते रहते हैंजन मन गण नहीं हैगन धन गणिकायें हैं मुजफ्फरपुर की ये लड़कियाँपिता:पिता कभी नही गये माॅल में पिक्चर देखनेएक बार गये भी तोचुरमुरहा कुर्ता और प्लास्टिक का जूता पहन करअंग्रेजी न आने वाली शक्ल भी साथ ले गये थेलिहाजा खुद पिक्चर हो गयेकई लोगों ने उनकी हिकारती समीक्षा कीऔर नही माना आदमीपिता की रेटिंग तो दूर की कौड़ी माने।दालान से लेकर गन्ना मिल के कांटे तकजो खैनी हमेशा साथ रहीजिसे वो अशर्फी की तरह छिपा कर रखते थेंपेट के ऊपर बनी तिकोनी जेंब मेंमाॅल के दुआरें पर ही छींन ली गईमाया के इन्द्रप्रस्थ में निहत्थें ही घुसे पिता ।फर्श उनकी पीठ से ज्यादा मुलायम थामाटी सानने के अभ्यस्त पांव रपटने को ही थेकि तलाशने लगें कोई टेकअजीब जगह है यहदूर दूर तक कोई आधार ही नही दिखताफिर खिखिआयें किमाॅल में बाढ़ नही आती जोहर दो हाथ पर बल्ली लगाई जाएँ ।रंगीन मछलियों की तैंरन देखीं पररोहूं, मांगुर नही कर पायेठंड में खोंजने लगे गुनगुनाती धूपहर पांच मिनट में पोंछ ही लेते गमछे से मुंहपसीना कही नही था पूरे देह मेंपर उसकी आदत हर जगह थी ।भूख लगी तो थाली नही गदौरी देखने लगे पिताऐसी मंडी वो अबतक नही देख पाये थेभुने मक्के का दाम नही बतायेंगे किसी कोवरना पूरा जॅवार बोने लगेगा भुट्टा ।माॅल के अंदर का दृश्य इतना उलट थाखेत के दृश्य सेकि बिना स्क्रीन में गये पलट कर बाहर भागे पितामैंने रोकने की कोशिश कीपर वो उस कोशिश की तासीर समझते थे सोनहीं रूके ।पिता जीवन भर खेत, खैंनी और चिन्नीं में ही रहेमाॅल में गुजारे समय को वो अपनी उम्र में नही गिनते ।कवि कर्म :मैं खाली पड़े तसलो मेंताजमहल की मजार देख लेता हूँसरकार की चुप्पी में सुन लेता हूँपूंजी की गुर्राहट ।तुम नदी की कल-कल सुननामैं सुनूंगा उसमें ज़हर से गला घुटने परघों-घों की आवाज़शीशम के दरख़्त कटने परएक लंबी चोंss मेंउसकी अंतिम कराह सुनता हूँउस दिन कोयल की कूक मेंशोक का वह पंछी गीत सुन लेता हूँजो बेघर होने पर गाई जाती है ।मैं मृग के नयन बाद में देखता हूँउसके पहले ही उन आंखों मेंभेड़ियों का डर देख लेता हूँमैं देख लेता हूँखाली कनस्तरों का अकेलापनठंडे चूल्हे की कँपकँपाहटसुन लेता हूँखेत में दवाई छिड़कने सेकीटों की सामूहिक हत्या होने परफ़सल का विलापमैं दुख देख लेने का आदी बन चुका हूँमदिरा पीकर मुजरे में भी बैठता हूँतो साथी नचनियां की नाभि देखते हैंमैं पेट देखता हूँ और अंदाजता हूँकितने दिन से भूखी है ये ठुमकिया।तुम मेरे आंखों पर घोड़े का पट्टा भी बांध दोतब भी दो सोटों के बीच समय निकाल करदेख ही लूंगा राह पर छितरे हुए दुखपथिक की प्यासतुम मेरे हिस्से का सारा शहद ले लोफिर भी मैं चख ही लूंगा तुम्हारे हिस्से का विषमैं दुख भक्षक हूँ, विषपायी हूँमैं कवि हूँमेरे रूधिर का रंग नीला है ।इसबार :इस बार साझा हो गयी है संस्कृतियाँजब साझा लिख रहा हूँ तो भी एक ठक्क हुयी है मन मेंकि अलग कब थेइस बार सालों बाद उतरे एक साथ सड़क परतख्तियां लिये हाथों मेंइंकलाब जिंदाबाद के नारे के साथपत्थर फेंके, लाठीयां खाई, जेल गयेबरसों बाद तुम भी उतने ही भाई हुएजितने है सिख ईसाईमुझे मालूम है तुम अपने होआगे रिश्ते की औपचारिकता,उसकी दुनियादारी निभानामुझे भी जवाब देना पड़ता है घर मेंजब लौटता हूँ फूटा सर लिये हुएअब कश्मीर सहित कहीं भी शरणार्थी शिविर बनेतो उतर आना सड़क पर कि कहीं नहीं जायेंगे बड़े भाईकोई मंदिर टूटता दिखे तोपत्थर लेकर दौड़ा लेना आक्रांताओं कोदौड़ कर रामायण को वैसे ही अपनी सदरी में छुपा लेनाजैसे कुरान हो ।इतना डटकर खड़े रहना साथ मेंकि अतीत के सारे नफ़रत के किस्से खत्म हो जायेप्रेम की ऐसी चादर बिछाना किनादिर, गजनी के किस्से जो आजतक घूम रहे है गली चौराहो परहमेशा के लिए दफ़न हो जायेबस इतना करोराजनीति कान पकड़ लेगीअनपढ़ रह लेगी परह से हिन्दूम से मुस्लिमका ककहरा न पढ़ेगी ।घास :पाँवो तले रौदें जाने की आदत यूँ हैंकि छूटती ही नहींकिसी फार्म हाऊस के लान में भी उगा दिया जाँऊतो मन मचल ही जाता हैमालिक के जूती देख कर !इस आदत के पार्श्व में एक पूरी यात्रा हैंपूर्व एशिया से लेकर उत्तर यूरोप तक कीजिसे तय किया है मैनेकुछ चील कौवों के मदद सेमैं चील के चोंच से उतना नहीं डरताजितना आदम के एक आहट से डरता हूँमैंने आजतक बिना दंराती लिये हुये आदमी नहीं देखा !शेर भले रहते हो खोंहो मेंपर बयां,मैना,कबूतर के घर मैंने बनाये हैंमैंने ही पाला उन सबकोजिनके पास रीढ़ नहीं थीमसलन सांप,बिच्छू और गोजर !मैंने कभी नहीं चाहाकि इतना ऊपर उठूं जितना ऊंचा है चीड़या जड़े इतनी गहरी जमा लूंज्यो जमाता हैं शीशमधरती को ताप से जितना मैंने बचाया हैंउतना दावा देवदार के जंगल भी नहीं कर सकतेजिन्होंने छिका रखी हैं चौथाई दुनिया की जमीन !मैं उन सब का भोजन हूँजिनकी गरदन लंबी नहीं हैं !मैं उग सकता हूँसाइबेरिया से लेकर अफ्रीका तकमैं जितनी तेजी से फैल सकता हूँउससे कई गुना तेजी सेकाटा और उखाड़ा जा रहा हूँ ।मैं सबसे पहला अंत हूँकिसी भी शुरुआत का !मैं कटने पर चीखता तक नहींजैसे पीपल,सागौन और दूसरे चीखते हैंमेरे पास प्रतिरोध की वह भाषा नहीं हैंजिसे आदमी समझता होजबकि उसे मालूम हैं कि मुझे बससूरज से हाथ मिलाने भर की देर हैंऐसा कोई जंगल नहींजो राख न कर सकूं !मुझे काटा जा रहा है चीन मेंमैं मिट रहा हूँ रूस मेंरौंदा जा रहा हूँयूरोप से लेकर अफ्रीका तकपर मेरे उगने के ताकतऔर डटे रहने की जिजीविषा का अंदाजा नहीं है तुमको !मैं मिलूंगा तुम्हें चांद परधब्बा बनकरऔर हांमंगल का रंग भी लाल हैं !आचार्य वशिष्ठ :इस बार तो नहीं था कोई खिलजीन तो कोई आततायी पुस्तकालयों में आग लगाकरजलते शोध पत्रो से मांस पका रहा थाइस बार तो अल्लाह हू अकबर के नारे नहीं थेन घोड़ो के टापों की आवाज थीन कराह रही थी पाटलिपुत्रइस बार जो कुछ हुआ नालंदा मेंजय श्रीराम के नारों के बीच हुआशोधपत्र गुम हो गयेएक आचार्य की लाशघोड़े की पीठ पर उल्टी टंगी रही घंटो तकराजदंड के ठीक नीचेजबतक जिंदा है तर्कलिखे जा रहे है शोधपत्रतब तक ना आ सकती है अल्लाह की हुकूमतना राम का राज स्थापित हो सकता हैइन्हें स्थापित करना हैतो जलाने होंगे सारे शोध पत्रमारने होंगे सारे आचार्यअंदर खाने के सारे विक्षिप्त आचार्य हो चुके हैसारे आचार्यों को विक्षिप्त करने हेतुतब आतताइयों की दौड़ थीअब सुशासन की भोर हैपर समय की सापेक्षता की चुनौती देते आचार्य वशिष्ठतुम्हारे लिये आरक्षित है घोड़े की पीठजा रे नालंदातेरी भी किस्मतखादी :मेरे गांधी बनने मेरे तमाम अडचनें हैंफिर भी चाहता हूँ कि तुम खादी बन जाओमैं तुम्हें तमाम उम्र कमर के नीचेबाँध कर रखना चाहता हूँऔर इस तरह कर लेता हूँ खुद को स्वतंत्रघूमता हूँ सभ्यता का पहरूआ बनकर !जबतक तुम बंधी होमैं उन्मुक्त हूँगर कभी आजाद होझंड़ा बन फहराने लगीतो मै फिर नंगा हो जाऊँगा !चरखे का चलनासमय का अतीत हो जाना हैअपनी बुनावट मे अतीत समेटे तुमटूटे तंतुओ से जुड़ते जुड़ते थान बन जाती होसभ्यताओ पर चादर जैसी बिछती होऔर उसे बदल देती हो संस्कृति मेंजैसे कोई जादूगर रूमाल से बदल देता हैपत्थर को फूल में !इस खादी के झिर्री से देखो तोतो एक बंदर, पुरुष में बदलता दिखता हैंवस्त्र लेकर भागा है अरगनी सेबंदर के हाथ अदरक हैचखता है और थूक देता है ।जिब़हखाने :सदियों से रेते जा रहे बकरेक्या जिब़हबेला में अब भी करते होंगे प्रार्थनाक्या अब भी अंतिम बार घास खाते हुएवो थोड़ी घास ईश्वर के लिये छोड़ देते होंगे !अब भी कहते होंगे किहे ईश्वरआज कसाई के गड़ासे कोएक हरी लकड़ी के डंठल में बदल दो !तब भी जबदांतों को गड़ासे के धार वाला वरदान परआज तक तथास्तु नहीं हुआ औरवो कभी कसाई का अंगूठा चबा नहीं पाये !सफेद खाल केहरा या भगवा कर देने की अरदास भीलंबित है सालों सेयह भी कि उनका शिकार शेर करे या भेडियाउन्हें आदमी के हाथोंमरना एकदम पसंद नहींशिकार होना अलग बात हैखाल खिंचवाना अलग बात !अगर आज तक हलाल हुए बकरोंकी अंतिम मिमियाहट को जोड़ देतो इतना नाद पैदा हो सकता हैकि कान के पर्दे फट जाने सेईश्वर बहरा हो जाये !इस मिमियाहट का अनुवादईश्वर की भाषा में कौन सा कवि करेगा !हाथ न होने का दुख कितना बड़ा हैहोता तो कसाईयो से मिला लेतेपर उनके पास सिर्फ गर्दन हैंकितना भी गले लगो गड़ासे सेएक अहिंसक गला, गड़ासे का मन कभी नहीं बदल सकता !वो गडासे का धर्म जानना चाहते हैऔर यह भी उसका ईश्वरबकरों के ईश्वर से इतना शक्तिशाली कैसे हैबकरे किसी दूसरे ईश्वर की तलाश मेंकभी चार मीनार की तरफ भागते हैंकभी दौड़ते है मंदिर वाली गली मेंइन्हीं दोनों के बीचज़िबहखाने हैं ।बिसात:अब शब्दों की बिसात ही क्या रहीहत्या शब्द पढ़ता हूँ तोसाथ में चाय के लिये आवाज लगा रहा होता हूँआत्महत्या शब्द सुनता पढ़ता हूँतो रस्सी, फंदा, करेंट, पुल, नदी, रेल पटरी वगैरह याद आते हैआदमी का चेहरा याद नहीं आता ।विशेषण न हो तोशब्दों की अपनी कोई औकात बची नहीं हैजैसे हत्या के आगे सामूहिक लगेतो कुछ हथियार, दराती, रंदा याद आते हैंमरने वाले फिर भी याद नहीं आतेसामूहिक आत्महत्या पर भीजहर का नाम ही पढ़ता हूँकितने थे कौन थेकौन पढ़ता हैकवि तक नहीं पढ़ता ।इन दिनोंहमें संवेदनशील बनाने की क्षमताथोड़ी बहुत बची है तो शब्दसामूहिक बलात्कार मेंयह शब्द आते ही मुझे वह लड़की याद आ जाती हैउम्र लिखी हो तो अनुमानता हूँ लंबाईराज्य लिखा हो तो खोज लेता हूँ गाँवसमय खोजता हूँरात लिखा होतो दुपहरिया में ही रात कर लेता हूँबारिश लिखी होतो अपना भी छाता फेंक देता हूँखेत लिखा हो तो कंकरीट के जंगल बीचइतनी जगह बना ही लेता हूँ किगन्ने का खेत सोच सकूँइतना संवेदनशील हो जाता हूँकि उसी क्षणकपड़े उतार कर वही पहुँच जाता हूँएकाध घंटे बादएक लाश के मुड़वारी बैठकरकविता लिखता हूँकविता में नख शिख लिखता हूँबस यह नहीं लिखताकि एक लाश नेदूसरी लाश पर कविता लिखी ।बिसातअब शब्दों की बिसात ही क्या रहीहत्या शब्द पढ़ता हूँ तोसाथ में चाय के लिये आवाज लगा रहा होता हूँआत्महत्या शब्द सुनता पढ़ता हूँतो रस्सी, फंदा, करेंट, पुल, नदी, रेल पटरी वगैरह याद आते हैआदमी का चेहरा याद नहीं आता ।विशेषण न हो तोशब्दों की अपनी कोई औकात बची नहीं हैजैसे हत्या के आगे सामूहिक लगेतो कुछ हथियार, दराती, रंदा याद आते हैंमरने वाले फिर भी याद नहीं आतेसामूहिक आत्महत्या पर भीजहर का नाम ही पढ़ता हूँकितने थे कौन थेकौन पढ़ता हैकवि तक नहीं पढ़ता ।इन दिनोंहमें संवेदनशील बनाने की क्षमताथोड़ी बहुत बची है तो शब्दसामूहिक बलात्कार मेंयह शब्द आते ही मुझे वह लड़की याद आ जाती हैउम्र लिखी हो तो अनुमानता हूँ लंबाईराज्य लिखा हो तो खोज लेता हूँ गाँवसमय खोजता हूँरात लिखा होतो दुपहरिया में ही रात कर लेता हूँबारिश लिखी होतो अपना भी छाता फेंक देता हूँखेत लिखा हो तो कंकरीट के जंगल बीचइतनी जगह बना ही लेता हूँ किगन्ने का खेत सोच सकूँइतना संवेदनशील हो जाता हूँकि उसी क्षणकपड़े उतार कर वही पहुँच जाता हूँएकाध घंटे बादएक लाश के मुड़वारी बैठकरकविता लिखता हूँकविता में नख शिख लिखता हूँबस यह नहीं लिखताकि एक लाश नेदूसरी लाश पर कविता लिखी ।शिकायत :कविता में जब प्रेम बरसाता हूँबिना तुम्हारा नाम लियेशब्दों के बीच कहीं रख देता हूँतुम्हारा कहा कोई शब्दतो भले ही शिल्प बिगड़ता होपर उस कविता से भीनी खूश्बू आती हैजैसे तुम्हारी दी हुई मोरपंखीखोल ली हो रात बिराततुम्हें ही छुपा कर रखता हूँ कविता मेंजब धूप होती हैबारिश लिख देता हूँतुम्हें भीगते हुए देखता रहता हूँ कविता के भीतर हीकई कविताओं की पहली पंक्ति में बैठकी है तुम्हारीजबकि मैं कहीं अंतिम पूर्ण विराम के पास टंगा हुआटुकुर टुकुर ताकता रहता हूँ तुम्हेंमैं कई बार रचता हूँ एक दुनियाजिसमें मैं हूँ और साथ में तुम भी होएक पगडंडी हैसाथ चलने के हजार बहाने हैदूर जाने का एक भी नहींजिंदगी से शिकायत हैखुद से बहुत ज्यादा और थोड़ी बहुत दुनिया से भीकपाट बंद कर लेता हूँतीनों बाहर खड़े रह जाते हैऔर मैं इस पार उतर आता हूँ कविता मेंयह सोमवार भी तुम्हारे साथ बीता ।पुरबिया :हम भगा दिये जायेंगेअगर कमल नहीं खिलाचिड़िया नही चहचहाईआप मेरे इकहरे देह का गणित देखियेअसम में सिर्फ एक पुरबिहा घुस जाये तोवो सम होकर विभाजित हो जायेआप मेरे भाषा की आग देखियेमुंबईकर को बम्बईया कह दूँतो जल जाये आठ दस झोपड़ियाँयूँ समझिये हम सूरज हैउगे भले पूरब में, ढलते हुए हमें पश्चिम पहुँचना हैवहीं किसी स्टेशन पर अस्त हो जाना हैहम किसी और के हिस्से की धरती पर खड़े हैहमनें अभी अभी जो एक घूँट पानी पिया हैउससे लातूर के खेत लहलहा उठतेकुछ लोग मेरे छाती पर चढ़े हैऔर रास्ता खोज रहे है मेरे फेफड़ों काजो साँस मैंने ली है उसमें इतनी हवा है किकम से कम दो गुजराती जिंदा रह जाते सदियों तकमेरे पीछे भीड़ हैमेरे आगे समंदर हैपीछे से भागो भागो की आवाज हैसंमदर यही आवाज दुगुनी करके लौटा रहा हैभागो भागो भागो भाग जाओयहाँ तक कि बलिया से चली ट्रेन मेरठ में रूकती हैतो आवाज आती है भाग जाओमुझे लगता है किसी दिन आरा में मेरे पुश्तैनी गाँव का पड़ोसीमुझे पुरबिया पुरबिया कहते हुये भगा न दे ।बिहारी :पूछो तो कहेंगे दिल्ली के हैऔर ठेलोगेतो ज्यादा से ज्यादा मथुरा बता देंगेपूछो मथुरा में कहाँ सेतो कहेंगे राधे राधेट्रेन का नाम पूछो तो बतायेंगे पश्चिम एक्सप्रेसपुरबिया का नाम भूले से भी नहीं धरेंगे ।उनकी शिनाख्त सतुआ या लिटठी से होगीया फिर किसी ठेकेदार के नाम लिखी चिट्ठी सेनये जमाने का हुआ तोगोल्ड स्टार का जूता मिल जायेगा पैरों में ।गांव से निकलते है तो पटीदार को लगता हैसल्तनत बन गई होगी अबतक परदेश मेंपरदेश में मालिक को बताते हैबाइस बिस्से का चक है गाँव में सड़क किनारे हीदुख को झूठे सुख की परछाई से कितना भी ढकेकुछ न कुछ उघारे दिख ही जाता हैगाँव में डरने के लिये बस बरम होते हैसफर में टी टी और जी आर पी से डरते हैउतरते है तो पुलिस, हवलदार, ठेकेदार और साथी कामदार से डरते हैंसड़क भी मुफीद जगह नहीं रहीपटरी पर आँख लग गई तोचोर समझने पर अडी भीड़ से डरते हैये राह में नहीं अधर में लटके लोग हैएकदिन भागते भागते पहुंचेगे देश के अंतिम छोर तकजबरन सामूहिक रूप से पोटली में भरकरसंमदर में उतारे जायेंगेजैसे नक्शे में पोटली सा श्रीलंका दिखता हैदो तीन छीट बिन्दुओं की रस्सी से संमदर में उतरता हुआ ।दायें- बायें :संसद दायें तरफ है7 RCR दायें तरफ हैनीति आयोग दायें तरफ हैयहाँ तक किसाहित्य अकादमी दायें तरफ हैऔर सर्वोच्च न्यायालय भी !वो खींच लेना चाहते हैसारी जमीनसारी नदियांसारा जंगलदाहिनी तरफ ही !हमसे कहा जा रहा हैआप सभ्य नागरिक हैनियमो का पालन मुस्तैदी से करेहमेशा बायें तरफ चलें !मै इस स्वतंत्र, संप्रभु गणराज्य मेंकुत्ता बनना चाहता हूंजो यूँ ही चलते चलतेबेधड़क घुसता है कही भीबिना खदेड़े जाने के खौफ लिए !□□□अखिलेश श्रीवास्तवसंपर्क : 9687694020
सारी कविताएँ एक सांस में पढ़ जाने की उत्सुकता जगाती हैं पर एक-एक कविता स्वयं से बाँध लेती है, देर तक गूँजती है मन में अपने कथ्य की गहराई, साधारण शब्द-विन्यास में नए नए बिंब रच देने की क्षमता पर चकित करती हुई।
ReplyDeleteहाल में मुझे दुख से इतनी ताज़ा करहती हुई कविताएँ नहीं दिखीं।
अभी तो 2-3 ही पढ़ी है, लेकिन कई कई बार।
बहुत-बहुत धन्यवाद । आपकी टिप्पणी कवि तक पहुँचेगी।
Deleteआभार भाई
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