अखिलेश श्रीवास्तव की कविताएँ

पेशे से
केमिकल इंजीनियर कवि
अखिलेश श्रीवास्तव समकालीन हिन्दी कविता में अनुभूति का अलग रसायन घोलते हैं जिसमें  पाठकों के स्वाद- बोध को निखारने की पूरी क्षमता है। उनकी कविता चमत्कृत नहीं करती बल्कि चमत्कृत लगती चीजों की असलियत खोलती है । यहाँ प्रस्तुत उनकी कविताओं में समकालीन मानवीय  संवेदना के संवेदनशील इलाके की शिनाख्त की जा सकती है । 


गेहूँ  का अस्थि विसर्जन : 

खेतों में बालियों का महीनों 
सूर्य की ओर मुंह कर खड़ा रहना 
तपस्या करने जैसा है 
उसका धीरे धीरे पक जाना है 
तप कर सोना बन जाने जैसा 

चोकर का गेहूँ से अलग हो जाना 
किसी ऋषि का अपनी त्वचा को
दान कर देने जैसा है 

जलते चूल्हे में रोटी का सिंकना 
गेहूँ की अंत्येष्टि जैसा है 
रोटी के टुकड़े को अपने मुंह में एकसार कर 
उसे उदर तक तैरा देना 
गेहूँ का गंगा में अस्थि विसर्जन जैसा है 

इस तरह 
तुम्हारे भूख को मिटा देने की ताकत 
वह वरदान है 
जिसे गेहूँ ने एक पांव पर 
छ: महीने धूप में खडे़ होकर 
तप से अर्जित किया था सूर्य से 

भूख से 
तुम्हारी बिलबिलाहट का खत्म हो जाना 
गेहूँ का मोक्ष है 

इस पूरी प्रक्रिया में कोई शोर नहीं हैं
कोई आवाज नहीं हैं
शांत हो तिरोहित हो जाना 
मोक्ष का एक अनिवार्य अवयव है !

मैं बहुत वाचाल हूं 
बिना चपर चपर की आवाज निकाले
एक रोटी तक नहीं खा सकता 

मुजफ्फरपुर : 

देवकी नंदन खत्री के शहर में बची रह गई है अय्यारी 
शाम होते होते सफेद लिबास में लिपटे अय्यार बदल जाते हैं काले धुँएँ में 
कहकहे गूँजते हैं और 
राजा के महल में हर रात गायब हो जाती है एक लड़की !

वैसे ये लड़कियाँ अपनी पूरी उम्र गायब ही रही 
ना माँ को मिली न पिता को 
रोज खोजती रही गुमशुदगी के पोस्टर में अपना चेहरा 
पलक झपकते ही 
गुम हुई चुप्पाई लिए कस्बों से 
बीच सड़क गली गलिआरों से 
जैसे बरसात में चलते हुए गटर के खुले मैनहोल पर पड़ गया हो पांव !

कुछ प्रेम में बरगलाई गई 
कुछ रात तक मारी जाने वाली थी 
कुछ ज़हर नहीं खा पाई 
कुछ इतनी डरपोक थी कि ट्रेन से कटने जाती 
तो उसकी आवाज़ से डर जाती 
आत्महत्या के असफल प्रयासों के किस्सों से भरी हैं ये  लड़कियाँ 
सुनाती हैं तो कमरा ठहाकों से भर जाता है
कुछ इतनी अनपढ़ थी कि स्वर्ग की तलाश में अपनी देह सहित भागी 
बहुत भटकने के बाद सदेह स्वर्ग न मिलने के मिथक का पता चला 
तो हताश होकर शून्य में निहारने लगी  
नर्क के दरवाजे खुले मिले तो उसी में घुस गई !

इनकी स्मृति में जस की तस है उन मर्दों की सूरत 
जिन्होंने इन्हें पहले पहल तौला और बेच दिया 
वैश्विक मंदी के दौर में भी हाथों-हाथ बिकी ये लड़कियाँ !
 
तुम्हारी भाषा वज्जिका में स्त्री को धरती कहते हैं 
पर अभी हम बच्चियाँ हैं 
तुम अपने भाषा संस्कार में हमें गढ़ई कहना 
ना, ना हम बहुत गहरे धँसे है गढ़ई से 
तुम हमें कुआँ कहना 
पर हम कैसे कुएँ है 
जो खुद चलकर जाते हैं प्यासे के पास 
इस तरह भाषा से भी बहिष्कृत हैं
उसके मुहावरे हम पर लागू नहीं होते !

खादी, गांधी टोपी, भगवा चोला, सत्यमेव जयते 
सब इस घुप्प अंधेरे कमरे की खूंटी पर चढ़ते उतरते रहते हैं
जन मन गण नहीं है 
गन धन गणिकायें हैं मुजफ्फरपुर की ये लड़कियाँ 

पिता: 

पिता कभी नही गये माॅल में पिक्चर देखने 
एक बार गये भी तो 
चुरमुरहा कुर्ता और प्लास्टिक का जूता पहन कर 
अंग्रेजी न आने वाली शक्ल भी साथ ले गये थे  
लिहाजा खुद पिक्चर हो गये 
कई लोगों ने उनकी हिकारती समीक्षा की 
और नही माना आदमी 
पिता की रेटिंग तो दूर की कौड़ी माने।

दालान से लेकर गन्ना मिल के कांटे तक 
जो खैनी हमेशा साथ रही 
जिसे वो अशर्फी की तरह छिपा कर रखते थें 
पेट के ऊपर बनी तिकोनी जेंब में
माॅल के दुआरें पर ही छींन ली गई 
माया के इन्द्रप्रस्थ में निहत्थें ही घुसे पिता ।

फर्श उनकी पीठ से ज्यादा मुलायम था 
माटी सानने के अभ्यस्त पांव रपटने को ही थे 
कि तलाशने लगें कोई टेक 
अजीब जगह है यह
दूर दूर तक कोई आधार ही नही दिखता 
फिर खिखिआयें कि 
माॅल में बाढ़ नही आती जो 
हर दो हाथ पर बल्ली लगाई जाएँ ।

रंगीन मछलियों की तैंरन देखीं  पर  
रोहूं, मांगुर नही कर पाये 
ठंड में खोंजने लगे गुनगुनाती धूप 
हर पांच मिनट में  पोंछ ही लेते गमछे से मुंह 
पसीना कही नही था पूरे देह में 
पर उसकी आदत हर जगह थी ।

भूख लगी तो थाली नही गदौरी देखने लगे पिता
ऐसी मंडी वो अबतक नही देख पाये थे 
भुने मक्के का दाम नही बतायेंगे किसी को 
वरना पूरा जॅवार बोने लगेगा भुट्टा ।

माॅल के अंदर का दृश्य इतना उलट था 
खेत के दृश्य से  
कि बिना स्क्रीन में गये पलट कर बाहर भागे पिता
मैंने  रोकने की कोशिश की 
पर वो उस कोशिश की तासीर समझते थे सो 
नहीं रूके ।

पिता जीवन भर खेत, खैंनी और चिन्नीं में ही रहे 
माॅल में गुजारे समय को वो अपनी उम्र में नही गिनते ।


 कवि कर्म : 

मैं खाली पड़े तसलो में 
ताजमहल की मजार देख लेता हूँ 
सरकार की चुप्पी में सुन लेता हूँ 
पूंजी की गुर्राहट ।

तुम नदी की कल-कल सुनना
मैं सुनूंगा उसमें ज़हर से गला घुटने पर 
घों-घों की आवाज़
शीशम के दरख़्त कटने पर 
एक लंबी चोंss  में
उसकी अंतिम कराह सुनता हूँ 
उस दिन कोयल की कूक में
शोक का वह पंछी गीत सुन लेता हूँ
जो बेघर होने पर गाई जाती है ।

मैं मृग के नयन बाद में देखता हूँ 
उसके पहले ही उन आंखों में
भेड़ियों का डर देख लेता हूँ

मैं देख लेता हूँ
खाली कनस्तरों का अकेलापन
ठंडे चूल्हे की कँपकँपाहट
सुन लेता हूँ
खेत में दवाई छिड़कने से
कीटों की सामूहिक हत्या होने पर 
फ़सल का विलाप

मैं दुख देख लेने का आदी बन चुका हूँ
मदिरा पीकर मुजरे में भी बैठता हूँ
तो साथी नचनियां  की नाभि देखते हैं
मैं पेट देखता हूँ और अंदाजता हूँ 
कितने दिन से भूखी है ये ठुमकिया।

तुम मेरे आंखों पर घोड़े का पट्टा भी बांध दो 
तब भी दो सोटों के बीच समय निकाल कर
देख ही लूंगा राह पर छितरे हुए दुख 
पथिक की प्यास 

तुम मेरे हिस्से का सारा शहद ले लो 
फिर भी मैं चख ही लूंगा तुम्हारे हिस्से का विष 

मैं दुख भक्षक हूँ, विषपायी हूँ 
मैं कवि हूँ 
मेरे रूधिर का रंग नीला है ।

इसबार : 

इस बार साझा हो गयी है संस्कृतियाँ 
जब साझा लिख रहा हूँ तो भी एक ठक्क हुयी है मन में 
कि अलग कब थे 

इस बार सालों बाद उतरे एक साथ सड़क पर 
तख्तियां लिये हाथों में 
इंकलाब जिंदाबाद के नारे के साथ 

पत्थर फेंके, लाठीयां खाई, जेल गये 
बरसों बाद तुम भी उतने ही भाई हुए 
जितने है सिख ईसाई 

मुझे मालूम है तुम अपने हो 
आगे रिश्ते की औपचारिकता,उसकी दुनियादारी निभाना 
मुझे भी जवाब देना पड़ता है घर में
जब लौटता हूँ फूटा सर लिये हुए 

अब कश्मीर सहित कहीं भी शरणार्थी शिविर बने 
तो उतर आना सड़क पर कि कहीं नहीं जायेंगे बड़े भाई
कोई मंदिर टूटता दिखे तो 
पत्थर लेकर दौड़ा लेना आक्रांताओं को 
दौड़ कर रामायण को वैसे ही अपनी सदरी में छुपा लेना 
जैसे कुरान हो । 

इतना डटकर खड़े रहना साथ में 
कि अतीत के सारे नफ़रत के किस्से खत्म हो जाये 
प्रेम की ऐसी चादर बिछाना कि 
नादिर, गजनी के किस्से जो आजतक घूम रहे है गली चौराहो पर 
हमेशा के लिए दफ़न हो जाये 

बस इतना करो 
राजनीति कान पकड़ लेगी 
अनपढ़ रह लेगी पर 
ह से हिन्दू 
म से मुस्लिम
का ककहरा न पढ़ेगी । 


घास : 

पाँवो तले रौदें जाने की आदत यूँ हैं
कि छूटती ही नहीं 
किसी फार्म हाऊस के लान में भी उगा दिया जाँऊ
तो मन मचल ही जाता है
मालिक के जूती देख कर !

इस आदत के पार्श्व में एक पूरी यात्रा हैं
पूर्व एशिया से लेकर उत्तर यूरोप तक की 
जिसे तय किया है मैने 
कुछ चील कौवों के मदद से 
मैं चील के चोंच से उतना नहीं डरता 
जितना आदम के एक आहट से डरता हूँ 
मैंने आजतक बिना दंराती लिये हुये आदमी नहीं देखा !

शेर भले रहते हो खोंहो में
पर बयां,मैना,कबूतर के घर मैंने बनाये हैं 
मैंने ही पाला उन सबको
जिनके पास रीढ़ नहीं थी 
मसलन सांप,बिच्छू और गोजर !

मैंने कभी नहीं चाहा 
कि इतना ऊपर उठूं जितना ऊंचा है चीड़
या जड़े इतनी गहरी जमा लूं
ज्यो जमाता हैं शीशम 
धरती को ताप से जितना मैंने बचाया हैं
उतना दावा देवदार के जंगल भी नहीं कर सकते
जिन्होंने छिका रखी हैं चौथाई दुनिया की जमीन !

मैं उन सब का भोजन हूँ
जिनकी गरदन लंबी नहीं हैं !

मैं उग सकता हूँ
साइबेरिया से लेकर अफ्रीका तक 
मैं जितनी तेजी से फैल सकता हूँ
उससे कई गुना तेजी से
काटा और उखाड़ा जा रहा हूँ ।

मैं सबसे पहला अंत हूँ 
किसी भी शुरुआत का !

मैं कटने पर चीखता तक नहीं
जैसे पीपल,सागौन और दूसरे चीखते हैं 
मेरे पास प्रतिरोध की वह भाषा नहीं हैं
जिसे आदमी समझता हो
जबकि उसे मालूम हैं कि मुझे बस 
सूरज से हाथ मिलाने भर की देर हैं
ऐसा कोई जंगल नहीं 
जो राख न कर सकूं !

मुझे काटा जा रहा है चीन में
मैं मिट रहा हूँ रूस में
रौंदा जा रहा हूँ
यूरोप से लेकर अफ्रीका तक 
पर मेरे उगने के ताकत 
और डटे रहने की जिजीविषा का अंदाजा नहीं है तुमको !

मैं मिलूंगा तुम्हें चांद पर 
धब्बा बनकर 
और हां
मंगल का रंग भी लाल हैं !



आचार्य वशिष्ठ :

इस बार तो नहीं था कोई खिलजी 
न तो कोई आततायी पुस्तकालयों में आग लगाकर 
जलते शोध पत्रो से मांस पका रहा था 
इस बार तो अल्लाह हू अकबर के नारे नहीं थे
न घोड़ो के टापों की आवाज थी 
न कराह रही थी पाटलिपुत्र 

इस बार जो कुछ हुआ नालंदा में 
जय श्रीराम के नारों के बीच हुआ 
शोधपत्र गुम हो गये 
एक आचार्य की लाश 
घोड़े की पीठ पर उल्टी टंगी रही घंटो तक 
राजदंड के ठीक नीचे 

जबतक जिंदा है तर्क 
लिखे जा रहे है शोधपत्र 
तब तक ना आ सकती है अल्लाह की हुकूमत
ना राम का राज स्थापित हो सकता है 

इन्हें स्थापित करना है 
तो जलाने होंगे सारे शोध पत्र 
मारने होंगे सारे आचार्य 

अंदर खाने के सारे विक्षिप्त आचार्य हो चुके है 
सारे आचार्यों को विक्षिप्त करने हेतु 
 
तब आतताइयों की दौड़ थी 
अब सुशासन की भोर है 
पर समय की सापेक्षता की चुनौती देते आचार्य वशिष्ठ
तुम्हारे लिये आरक्षित है घोड़े की पीठ 

जा रे नालंदा 
तेरी भी किस्मत


खादी :  

मेरे गांधी बनने मेरे तमाम अडचनें हैं
फिर भी चाहता हूँ कि तुम खादी बन जाओ 
मैं तुम्हें तमाम उम्र कमर के नीचे
बाँध  कर रखना चाहता हूँ
और इस तरह कर लेता हूँ खुद को स्वतंत्र 
घूमता हूँ सभ्यता का पहरूआ बनकर !

जबतक तुम बंधी हो
मैं उन्मुक्त हूँ 
गर कभी आजाद हो
झंड़ा बन फहराने लगी 
तो मै फिर नंगा हो जाऊँगा !

चरखे का चलना 
समय का अतीत हो जाना है 
अपनी बुनावट मे अतीत समेटे तुम
टूटे तंतुओ से जुड़ते जुड़ते थान बन जाती हो
सभ्यताओ पर चादर जैसी बिछती हो
और उसे बदल देती हो संस्कृति में 
जैसे कोई जादूगर रूमाल से बदल देता है
पत्थर को फूल में !

इस खादी के झिर्री से देखो तो 
तो एक बंदर, पुरुष में बदलता दिखता हैं
वस्त्र लेकर भागा है अरगनी से
बंदर के हाथ अदरक है
चखता है और थूक देता है ।



जिब़हखाने : 

सदियों से रेते जा रहे बकरे 
क्या जिब़हबेला में अब भी करते होंगे प्रार्थना 
क्या अब भी अंतिम बार घास खाते हुए 
वो थोड़ी घास ईश्वर के लिये छोड़ देते होंगे !

अब भी कहते होंगे कि 
हे ईश्वर
आज कसाई के गड़ासे को
एक हरी लकड़ी के डंठल में बदल दो !

तब भी जब  
दांतों को गड़ासे के धार वाला वरदान पर 
आज तक तथास्तु नहीं हुआ और
वो कभी कसाई का अंगूठा चबा नहीं पाये !

सफेद खाल के 
हरा या भगवा कर देने की अरदास भी 
लंबित है सालों से

यह भी कि उनका शिकार शेर करे या भेडिया
उन्हें आदमी के हाथों 
मरना एकदम पसंद नहीं 
शिकार होना अलग बात है
खाल खिंचवाना अलग बात !

अगर आज तक हलाल हुए बकरों
की अंतिम मिमियाहट को जोड़ दे
तो इतना नाद पैदा हो सकता है 
कि कान के पर्दे फट जाने से
ईश्वर बहरा हो जाये !

इस मिमियाहट का अनुवाद 
ईश्वर की भाषा में कौन सा कवि करेगा !

हाथ न होने का दुख कितना बड़ा है
होता तो कसाईयो से मिला लेते 
पर उनके पास सिर्फ गर्दन हैं 
कितना भी गले लगो गड़ासे से 
एक अहिंसक गला, गड़ासे का मन कभी नहीं बदल सकता !

वो गडासे का धर्म जानना चाहते है 
और यह भी उसका ईश्वर 
बकरों के ईश्वर से इतना शक्तिशाली कैसे है 

बकरे किसी दूसरे ईश्वर की तलाश में
कभी चार मीनार की तरफ भागते हैं
कभी दौड़ते है मंदिर वाली गली में 

इन्हीं दोनों के बीच 
ज़िबहखाने हैं । 

बिसात: 

अब शब्दों की बिसात ही क्या रही 
हत्या शब्द पढ़ता हूँ तो 
साथ में चाय के लिये आवाज लगा रहा होता हूँ
आत्महत्या शब्द सुनता पढ़ता हूँ 
तो रस्सी, फंदा, करेंट, पुल, नदी, रेल पटरी वगैरह याद आते है 
आदमी का चेहरा याद नहीं आता ।

विशेषण न हो तो 
शब्दों की अपनी कोई औकात बची नहीं है 

जैसे हत्या के आगे सामूहिक लगे 
तो कुछ हथियार, दराती, रंदा याद आते हैं
मरने वाले फिर भी याद नहीं आते 

सामूहिक आत्महत्या पर भी 
जहर का नाम ही पढ़ता हूँ 
कितने थे कौन थे 
कौन पढ़ता है
कवि तक नहीं पढ़ता ।
 
इन दिनों
हमें संवेदनशील बनाने की क्षमता 
थोड़ी बहुत बची है तो शब्द 
सामूहिक बलात्कार में 
यह शब्द आते ही मुझे वह लड़की याद आ जाती है 
उम्र लिखी हो तो अनुमानता हूँ लंबाई
राज्य लिखा हो तो खोज लेता हूँ गाँव
समय खोजता हूँ 
रात लिखा हो 
तो दुपहरिया में ही रात कर लेता हूँ 
बारिश लिखी हो 
तो अपना भी छाता फेंक देता हूँ 
खेत लिखा हो तो कंकरीट के जंगल बीच 
इतनी जगह बना ही लेता हूँ कि 
गन्ने का खेत सोच सकूँ 

इतना संवेदनशील हो जाता हूँ 
कि उसी क्षण
कपड़े उतार कर वही पहुँच जाता हूँ 

एकाध घंटे बाद 
एक लाश के मुड़वारी बैठकर 
कविता लिखता हूँ 

कविता में नख शिख लिखता हूँ
बस यह नहीं लिखता 
कि एक लाश ने 
दूसरी लाश पर कविता लिखी । 

बिसात

अब शब्दों की बिसात ही क्या रही 
हत्या शब्द पढ़ता हूँ तो 
साथ में चाय के लिये आवाज लगा रहा होता हूँ
आत्महत्या शब्द सुनता पढ़ता हूँ 
तो रस्सी, फंदा, करेंट, पुल, नदी, रेल पटरी वगैरह याद आते है 
आदमी का चेहरा याद नहीं आता ।

विशेषण न हो तो 
शब्दों की अपनी कोई औकात बची नहीं है 

जैसे हत्या के आगे सामूहिक लगे 
तो कुछ हथियार, दराती, रंदा याद आते हैं
मरने वाले फिर भी याद नहीं आते 

सामूहिक आत्महत्या पर भी 
जहर का नाम ही पढ़ता हूँ 
कितने थे कौन थे 
कौन पढ़ता है
कवि तक नहीं पढ़ता ।
 
इन दिनों
हमें संवेदनशील बनाने की क्षमता 
थोड़ी बहुत बची है तो शब्द 
सामूहिक बलात्कार में 
यह शब्द आते ही मुझे वह लड़की याद आ जाती है 
उम्र लिखी हो तो अनुमानता हूँ लंबाई
राज्य लिखा हो तो खोज लेता हूँ गाँव
समय खोजता हूँ 
रात लिखा हो 
तो दुपहरिया में ही रात कर लेता हूँ 
बारिश लिखी हो 
तो अपना भी छाता फेंक देता हूँ 
खेत लिखा हो तो कंकरीट के जंगल बीच 
इतनी जगह बना ही लेता हूँ कि 
गन्ने का खेत सोच सकूँ 

इतना संवेदनशील हो जाता हूँ 
कि उसी क्षण
कपड़े उतार कर वही पहुँच जाता हूँ 

एकाध घंटे बाद 
एक लाश के मुड़वारी बैठकर 
कविता लिखता हूँ 

कविता में नख शिख लिखता हूँ
बस यह नहीं लिखता 
कि एक लाश ने 
दूसरी लाश पर कविता लिखी । 

शिकायत : 

कविता में जब प्रेम बरसाता हूँ 
बिना तुम्हारा नाम लिये 
शब्दों के बीच कहीं रख देता हूँ 
तुम्हारा कहा कोई शब्द 
तो भले ही शिल्प बिगड़ता हो 
पर उस कविता से भीनी खूश्बू आती है 
जैसे तुम्हारी दी हुई मोरपंखी 
खोल ली हो रात बिरात 

तुम्हें ही छुपा कर रखता हूँ कविता में 
जब धूप होती है 
बारिश लिख देता हूँ 
तुम्हें भीगते हुए देखता रहता हूँ कविता के भीतर ही 
कई कविताओं की पहली पंक्ति में बैठकी है तुम्हारी 
जबकि मैं कहीं अंतिम पूर्ण विराम के पास टंगा हुआ 
टुकुर टुकुर ताकता रहता हूँ तुम्हें 

मैं कई बार रचता हूँ एक दुनिया 
जिसमें मैं हूँ और साथ में तुम भी हो
एक पगडंडी है 
साथ चलने के हजार बहाने है 
दूर जाने का एक भी नहीं 

जिंदगी से शिकायत है 
खुद से बहुत ज्यादा और थोड़ी बहुत दुनिया से भी
कपाट बंद कर लेता हूँ
तीनों बाहर खड़े रह जाते है 
और मैं इस पार उतर आता हूँ कविता में 

यह सोमवार भी तुम्हारे साथ बीता ।

पुरबिया : 

हम भगा दिये जायेंगे 
अगर कमल नहीं खिला 
चिड़िया  नही चहचहाई 

आप मेरे इकहरे देह का गणित देखिये 
असम में सिर्फ एक पुरबिहा घुस जाये तो 
वो सम होकर विभाजित हो जाये 

आप मेरे भाषा की आग देखिये 
मुंबईकर को बम्बईया कह दूँ 
तो जल जाये आठ दस झोपड़ियाँ

यूँ समझिये  हम सूरज है 
उगे भले पूरब में, ढलते हुए हमें पश्चिम पहुँचना है 
वहीं किसी स्टेशन पर अस्त हो जाना है 

हम किसी और के हिस्से की धरती पर खड़े है 
हमनें अभी अभी जो एक घूँट पानी पिया है 
उससे लातूर के खेत लहलहा उठते 

कुछ लोग मेरे छाती पर चढ़े है 
और रास्ता खोज रहे है मेरे फेफड़ों का 
जो साँस मैंने ली है उसमें इतनी हवा है कि
कम से कम दो गुजराती जिंदा रह जाते सदियों तक 

मेरे पीछे भीड़ है 
मेरे आगे समंदर है 
पीछे से भागो भागो की आवाज है 
संमदर यही आवाज दुगुनी करके लौटा रहा है 
भागो भागो भागो भाग जाओ 

यहाँ तक कि बलिया से चली ट्रेन मेरठ में रूकती है 
तो आवाज आती है भाग जाओ 
मुझे लगता है किसी दिन आरा में मेरे पुश्तैनी गाँव का पड़ोसी 
मुझे पुरबिया पुरबिया कहते हुये भगा न दे ।


बिहारी : 

पूछो तो कहेंगे दिल्ली के है 
और ठेलोगे 
तो ज्यादा से ज्यादा मथुरा बता देंगे 
पूछो मथुरा में कहाँ से 
तो कहेंगे राधे राधे 

ट्रेन का नाम पूछो तो बतायेंगे पश्चिम एक्सप्रेस 
पुरबिया का नाम  भूले से भी नहीं धरेंगे ।

उनकी शिनाख्त सतुआ या लिटठी से होगी 
या फिर किसी ठेकेदार के नाम लिखी चिट्ठी से 
नये जमाने का हुआ तो 
गोल्ड स्टार का जूता मिल जायेगा पैरों में ।  

गांव से निकलते है तो पटीदार को लगता है 
सल्तनत बन गई होगी अबतक परदेश में 
परदेश में मालिक को बताते है 
बाइस बिस्से का चक है गाँव में सड़क किनारे ही 
दुख को झूठे सुख की परछाई से कितना भी ढके 
कुछ न कुछ उघारे दिख ही जाता है   

गाँव में डरने के लिये बस बरम होते है 
सफर में टी टी और जी आर पी से डरते है 
उतरते है तो पुलिस, हवलदार, ठेकेदार और साथी कामदार से डरते हैं 
सड़क भी मुफीद जगह नहीं रही 
पटरी पर आँख लग गई तो 
चोर समझने पर अडी भीड़ से डरते है 

ये राह में नहीं अधर में लटके लोग है 
एकदिन भागते भागते पहुंचेगे देश के अंतिम छोर तक 
जबरन सामूहिक रूप से पोटली में भरकर 
संमदर में उतारे जायेंगे 
जैसे नक्शे में पोटली सा श्रीलंका दिखता है 
दो तीन छीट बिन्दुओं की रस्सी से संमदर में उतरता हुआ ।


दायें- बायें :   

संसद दायें तरफ है
7 RCR दायें तरफ है
नीति आयोग दायें  तरफ है
यहाँ तक कि 
साहित्य अकादमी दायें तरफ है
और सर्वोच्च न्यायालय भी !

वो खींच लेना चाहते है
सारी जमीन
सारी नदियां
सारा जंगल
दाहिनी तरफ ही !

हमसे कहा जा रहा है
आप सभ्य नागरिक है
नियमो का पालन मुस्तैदी से करे
हमेशा बायें तरफ चलें !

मै इस स्वतंत्र, संप्रभु गणराज्य में
कुत्ता बनना चाहता हूं 
जो यूँ ही चलते चलते 
बेधड़क घुसता है कही भी 
बिना खदेड़े जाने के खौफ लिए !
    □□□

अखिलेश श्रीवास्तव
संपर्क : 9687694020 


3 comments:

  1. सारी कविताएँ एक सांस में पढ़ जाने की उत्सुकता जगाती हैं पर एक-एक कविता स्वयं से बाँध लेती है, देर तक गूँजती है मन में अपने कथ्य की गहराई, साधारण शब्द-विन्यास में नए नए बिंब रच देने की क्षमता पर चकित करती हुई।
    हाल में मुझे दुख से इतनी ताज़ा करहती हुई कविताएँ नहीं दिखीं।
    अभी तो 2-3 ही पढ़ी है, लेकिन कई कई बार।

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद । आपकी टिप्पणी कवि तक पहुँचेगी।

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