गणेश गनी की कविता / पृथ्वी का लोकनृत्य

गणेश गनी समकालीन हिन्दी कविता में एक अलग जायके की कविता लिखते हैं । इनकी कविता उन अनेक छोटी-छोटी चीजों और बातों का पता देती है जो जिन्दगी के रोजमर्रे या आपाधापी में पकड़ से छूट जाती हैं या बिलकुल खो जाती हैं । इसमें पर्याप्त लोकचिंता भी है और यथार्थ की विद्रूपताओं को सामने लाकर दिखाने की बेचैनी भी है । उनका कवि पूरी पृथ्वी के समकाल और भविष्यत् की चिंता करता है । एक ऐसी ही कविता । 

पृथ्वी का लोकनृत्य / 

तुम्हारा खेल चलता रहेगा
तब तक केवल
जब तक अंधेरा 
तुम्हारे ख़िलाफ़ नहीं हो जाता।

यह भी सुन लो -
तुम्हारा मंच 
तुम्हारे नाटक
तुम्हारा किरदार
तुम्हारे मुखौटे
बचे रहेंगे तब तक केवल
जब तक अंधेरा नहीं लिखता आत्मकथा।

अभी तो कर दिए स्थगित
सारे शोध
सुर और संगीत साधकों ने
क्योंकि
खानगीर पत्थर पर घन मारते मारते
घन की आवाज में एक नया सुर साध रहा है
चिरानी स्लीपर चीरते चीरते 
आरी की आवाज में
एक नई हरकत डाल रहा है।

फिर भी दीवार पर चिपकी घड़ी बता रही है
कि समय जैसी कोई चीज नहीं होती
पृथ्वी का लोकनृत्य करना ही 
वास्तव में एक खगोलीय घटना है।

एक साजिश रची जा रही है निरंतर 
डर के मारे लोग भाग रहे हैं
घर छोड़कर
बच्चे डरे हुए घर लौट रहे हैं
भविष्यवाणी करने वाले
स्टूडियो में बैठे इंटरव्यू दे रहे हैं
जो रोकना चाहता है वो मारा जाता है।

फिर भी कुछ बातें भूली नहीं गई हैं
ठंडे रेगिस्तान में 
चन्द्र और भागा के प्रथम मिलन का क्षण
हवा को याद है
जब उसने बधाइयाँ गायी थीं
तितलियों को पता है
उनके पैर केवल स्वाद चखने के काम आते हैं।


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1 comment:

  1. आपका बहुत बहुत आभार। कविता के साथ टिप्पणी उत्साह बढ़ाती है।

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