ऐसे मौसम में ही/ कविता

आखिर कबतक रखोगे
अपने होठों पर आग
अपनी आंखों में बिजली 
और अपनी फूंक में जलती हुई धूप ?

कबतक झुलसता रहेगा 
धरा का शस्य श्यामल रूप ?

कबतक जलाते रहोगे भाषा
और शब्दों को करते रहोगे राख ?

कि आग होठों पर रखने के लिए नहीं है 
तुम इसे बेहतर रख सकते थे 
अपने भीतर जैसे रखती है अग्निगर्भित पृथ्वी 
और बाहर रखती है मिट्टी, पानी, हवा 

पत्ता - पत्ता खिलखिला उठता है पेड़ 
पेड़ पर चहचहा उठती है चिड़िया और
सोई हुई तितली को जगा देती है 
उड़ने लगती है तितली
पीछे भागने लगते हैं बच्चे 
दौड़ते - भागते छोटे- छोटे बच्चे 
थकते नहीं, बुझते नहीं कभी क्योंकि आग 
नहीं होती उनके होठों पर 
आग होती है उनके भीतर कहीं 
जो उन्हें थकने - बुझने नहीं देती 

चुंबन का बेहतरीन गुलाब खिलता है
बच्चों के होठों पर 
उगती है छोटी - छोटी दूब 
हरी- हरी मुस्कुराहट की

वह बेहतरीन गुलाब 
तुम भी खिला सकते थे
उगा सकते थे तुम भी वहाँ 
छोटी - छोटी दूब 

बिजली के लिए आंखें,
छाती से बेहतर जगह नहीं हैं
उसकी दाहक कौंध 
अपनी छाती में रख सकते थे तुम 
जैसे रखते हैं सांवले बादल 
और दिखाते हैं सीने को दो फाड़ कर
सार्वजनिक गडगडाहट के साथ 
बरसने के ठीक पहले
सूख रहे खेतों को देते हैं 
पानी की आश्वासन- भरी खबर

परन्तु बारिश के पानी में बिजली नहीं होती
न ही उसकी गडगडाहट 
बारिश के पानी में सिर्फ पानी होता है
इसी पानी से 
नहाते हैं तपते पहाड़, फूटते हैं झरने
उमगती हैं नदियां और लहराता है समुंदर भी

कुछ पानी बचा लेते हैं पहाड़
बर्फ की सफेद तिजोरी में 
जैसे हम छोटे - छोटे लोग 
बुरे दिनों के लिए बचाकर रखते हैं 
अपना - अपना सफेद धन 

और वे बादल जो बिजली नहीं रखते
रुई हो जाते हैं बिल्कुल 
शुष्क और सफेद 
पानी नहीं रख पाते वे 
बेमक़सद जिए चले जाते हैं रसरिक्त 
बिजली की आग से डरते हैं 
और पानी के लिए हवा में ठहरते हैं 

जलती हुई धूप की असली जगह
तुम्हारी फूंक नहीं है 
धूप को बेहतर रखी जा सकती थी
तुम्हारे मस्तिष्क के ऊपर छत पर 
जिसके नीचे बैठ 
तपते - झुलसाते मौसम में 
तुम सोच सकते थे पानी या छांह 
और कर सकते थे पानी और छांह की बातें 
क्योंकि ऐसे मौसम में ही 
जिंदगी की सौ जरूरी बातों में 
पानी और छांह बातें जरूरी होती हैं 
और लाजिमी भी ! 










 

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