धर्मांधता / एक विचार


धर्मांधता आज के समाज की सबसे बड़ी समस्या है। विज्ञान और उसके नित नए  वैज्ञानिक अनुप्रयोगों के इस युग में  बेशक जीवन आसान हुआ है लेकिन एक कठिनाई भी पैदा हुई है। वैज्ञानिक अनुप्रयोगों ने मनुष्य को जो तेज संवाद- माध्यम दिए हैं उनसे धर्मांधता के प्रसार को सिर्फ रफ्तार ही नहीं बल्कि एक व्यापक डोमैन  भी मिला है। धर्म या मजहब के नाम पर सारी प्रचलित बेवकूफियाँ और नासमझियाँ अब एक क्लिक में सभी तक पहुँचाई जा सकती हैं । विचार और वस्तु को प्रचार या विज्ञापन के रूप में इतने आयामों के साथ पहले कभी नहीं रखा गया होगा। अभी लोकमत को यथाशीघ्र बनाना या बिगाड़ना बहुत आसान है। कोई प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। कमीनों - नीचों की भी लाबी अपने ढाल - तलवारों के साथ इतनी बड़ी और मजबूत है कि बौद्धिक रूप से ईमानदार लोग भले ही डरे हुए नहीं हों लेकिन  अल्पसंख्यक और हाशिए पर जरूर हैं । धर्मांध  किसी भी वर्ग का हो वे एक ही हैं। बस खूँटियाँ अलग - अलग हैं । महजबी साम्राज्यवाद की होड़ दुनिया को कहाँ ले जाएगी इसका उत्तर सिर्फ धर्मांध के पास ही होगा। हमारा ग्रंथ श्रेष्ठ हमारे भगवान गाड या अल्लाह श्रेष्ठ हमारी पूजा पद्धति श्रेष्ठ और तुम्हारा सब कुछ घटिया और गलत। हम लेटेस्ट वर्जन तुम ओल्डेस्ट वर्जन या उसका उलटा भी लेकिन हम हैं श्रेष्ठ!! जबकि किसी ने उस अल्लाह गाड ईश्वर की परछाई तक नहीं देखी न उसे जानने की कोशिश भी कि वह है भी या नहीं बस माने जा रहे और न मानने वालों को मारे जा रहे । मुझे लगता है यह सबसे जाहिल युग है। धर्मांध समाज को विज्ञान की ताकत सौंपना बड़ी  आत्मघाती लगती है। वैज्ञानिक सोच का समाज एक उच्च स्तर की नैतिकता की मांग करता है। विज्ञान के साहचर्य में भी मनुष्य नैतिक रह सकता है। नैतिक होने के लिए किसी विश्वास या अकीदत ईमान या बिलीफ की कोई जरूरत नहीं है। मजे की बात यह है कि मनुष्य आम तौर पर धर्म या मजहब से इसलिए नहीं जुड़ता है कि वह नैतिक होना चाहता है बल्कि इसलिए जुड़ता है कि उसका शुभ - लाभ सुनिश्चित हो जाए इस जीवन में और तथाकथित उस जीवन में भी। यह दुनिया के विकासमान इतिहास की सबसे बड़ी बकवास है। स्वर्ग जन्नत हेवन से बड़ा और कोई झूठ हो ही नहीं सकता। मजे की बात है स्वर्ग सबके एक जैसे नहीं हैं। लेकिन सबका दावा है कि उनका ही स्वर्ग या जन्नत सही है। सबके भगवान अल्लाह गाड के फीचर भी एक नहीं हैं। मैं अब नहीं मानता कि तीनों एक और वही हैं । तीनों दरअसल अलग अलग मिज़ाज के हैं । सबसे देखने लायक बात है कि तीनों के फीचर उनके माननेवाले समाज की सोच, कल्पना और धारणा के अनुसार है। अपने खुदा को कोई छोटा कैसे कहेगा?  आखिर यह अपनी ही स्मिता, अपने ही अहंकार की पराजय होगी और यह पराजित होना किसे पसंद है ? मूढ़ों को यह पता ही नहीं कि अगर कोई इस ब्रह्माण्ड का बनाने वाला है तो वह एक होगा या नहीं होगा तो बस नहीं होगा । अगर होगा तो उसे इस बात से क्या मतलब कि कोई उसकी पूजा इबादत करता या नहीं । क्या वह हमारी पूजा इबादत का मोहताज है ? अगर नहीं, जो यह सोचकर पूजा - इबादत करते हैं कि इससे उन्हें भगवान की कृपा मिलेगी तो तुम खुद पूजा करो और कृपा लो। दूसरों को इस पूजा इबादत के लिए मजबूर करना यह पागलपन नहीं तो और क्या है ? 
मैं अक्सर सोचता हूँ कितना अच्छा होता अगर धार्मिक होता और कभी मंदिर जाता कभी नमाज़ लगा लेता या कभी चर्च में प्रार्थना कर लेता। धार्मिक स्वतंत्रता इसे ही कहते हैं जब आप स्वतंत्र हैं कि आप कब कहाँ जाएँ । जो सामने दिखे उसमें शामिल हो जाएँ । उस दिन दुनिया धर्म या मजहब के रहते हुए भी रहने लायक हो जाएगी।□□□

           

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