दर्श की ग़ज़लें/ अनिरुद्ध सिन्हा

भूमिका / अब तो दे दो मुझे अंधेरा यह 

                                             

दिलीप दर्श की ग़ज़लों में कथ्य की दृष्टि से जहाँ जीवन का सौंदर्य हैं वहीं जीवन की कई समकालीन विसंगतियाँ भी हैं। उन विसंगतियों से ग़ज़लें जूझती हैं और बेहतर विकल्प की ख़ोज करती हैं। इस खोज में ग़ज़लकार को कितनी सफलता मिलती है यह तो एक पाठक ही तय कर सकता है परन्तु जहाँ तक मेरा मानना है दर्श सौंदर्य और विसंगतियों के बीच एक सेतु तो अवश्य निर्मित करते हैं। उस सेतु से होकर कोई भी पाठक प्रेम को इंगित करते हुए विसंगतियों के समक्ष प्रेम की एक नयी नींव तो डाल ही सकता है। यही नींव पाठक को भविष्य में प्रेम के शिखर-बिन्दु तक ले जाती है। जीवन के तथ्य और जीवन की विसंगतियों के बीच खड़ी इस संग्रह की ग़ज़लें ग़ज़लकार के मन के भेद और विचारों के रहस्य खोलने के लिए काफी हैं। भाषा और शिल्प की बुनावट सहज और सरल है। कहीं भी अबूझ भाषा का चमत्कार और असंगत कथ्य की कोई पहेली नज़र नहीं आती। यूँ कहें, ये ग़ज़लें साफ मन की सहज अभिव्यक्ति है जो सीधे-सीधे पाठकों से संवाद करती हैं। भाव,बुद्धि,कल्पना का समावेश लेखकीय समझ के साथ किया गया है। उल्लास और वेदना की स्पष्ट व्याख्या है। यही व्याख्या ग़ज़लों को सफल और पठनीय बनाती है। ग़ज़ल का प्रत्येक शेर विषय-वस्तु के दृष्टिकोण से अपना पूर्ण अस्तित्व और कुछ कह जाने की ताकत रखता है। कथ्य की पकड़ कहीं भी कमजोर नहीं होती है। ऐसा एक मंजे हुए ग़ज़लकार से ही संभव हो पाता है। बानगी के तौर पर -

 

हमें कहनी ही पड़ती है इशारों में ही कहते हम,

सचाई  है  कहाँ  शामिल जुबां के कारोबारों में।

 

 ग़ज़ल प्रायः संकेत में बात करती है। अप्रत्यक्ष की प्रत्यक्ष से अनुभूति करवाना इसकी अपनी विशिष्ट शैली है। यह शैली ही इनकी विशिष्ट सृजनात्मक प्रक्रिया है। यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है यह प्रक्रिया साधारण न होकर जटिल एवं विशिष्ट होती है। ग़ज़ल का प्रत्येक शेर स्वतंत्र रहते हुए अपने भीतर कई स्तरों पर अपने कई रूपों में संयोगात्मक प्रवृति रखता है। जैसा कि उपर्युक्त शेर में देखने को मिल रहा है। शेर का मूल स्वर वास्तविकता से अलग होकर कल्पना के संसार में प्रक्षिप्त होने का निषेध करते हुए वास्तविकता की ओर है। इसकी मूल प्रावृत्तिक शक्ति सत्य की ओर मोड़ती है। ग़ज़लकार की यहाँ पर साहित्यिक और सामाजिक निष्ठा अनुभूति के रूप में अभिव्यक्त हो रही है।ग़ज़लकार की प्रतिबद्धता की बात करें तो यहाँ पर रागात्मक वास्तविकता प्रबल हो जाती है। ग़ज़लकार अपने विचारों को सीधे-सीधे कहने से बचता तो है लेकिन संकेत में ही सारी सच्चाइयों को प्रकट कर देने के लिए भी प्रतिबद्ध है। वर्णित शेर में ग़ज़लकार की स्पष्ट धारणा है कि हर स्तर पर यहाँ झूठ का कारोबार चल रहा है खासकर राजनीति में तो यह और भी अधिक है। वह इसी झूठ के कारोबार और उससे जन्म लेने वाली वैचारिकी का विरोध करते हैं और सत्य कहकर भले ही वह संकेत में ही क्यों न हो, अपने दायित्व का निर्वहन करते हैं।अपने उत्साह को स्वर देने के साथ ही साथ समाज को गहराई से देखनेवाली उनकी दृष्टि ने आज के अंतर्विरोधों को भी जो अभी समाज और राजनीति में स्पष्ट परिलक्षित हो रहे हैं,अभिव्यक्ति  दी है।

 दर्श की ग़ज़लों में यथार्थ और समाज का भव्य रूप देखने को मिलता है। उन्होंने सामाजिक जड़ता, रूढ़ियों और राजनीतिक षड्यंत्र पर निर्ममतापूर्वक प्रहार किया है और नए जीवन की चेतना को मुक्त भाव से अपनाया है। अपने ढंग से वर्तमान यथार्थ जीवन को चित्रित करते हुए कहते हैं-

 

सीढ़ियाँ संसद की कितनी है चमत्कारी कि देख

सीढ़ियाँ  चढ़ते- उतरते  ही  कमाई  हो  गई ।

 

सर्द रातों की हवा का अब असर होता नहीं,

हो गई  धरती  बिछौना, शब रज़ाई हो गई।

 

धरती का बिछौना और शब का रज़ाई होना एक अच्छा प्रयोग है। नए ढंग से कहने की यह कोशिश दर्श को एक प्रयोगधर्मी ग़ज़लकार के रूप में स्थापित करती है। इस शेर में भी मानवीय दुख,दैन्य दुर्बलताओं के चित्र विद्यमान हैं और वह चित्र आदमी की मूक वेदना एवं जीवन के सतत् संघर्ष के साकार रूप हैं। आज की स्थितियाँ ही कुछ ऐसी हैं।  देश में  अनगिनत लोगों के पास न घर है और न ही सिर छुपाने के लिए छत है। इन शेरों से स्पष्ट है कि दिलीप दर्श की दृष्टि में यथार्थवाद मानव-जीवन का सच्चा एवं वास्तविक चित्र अंकित करने वाली ऐसी लेखकीय प्रवृति है जो आज का सजीव चित्र प्रस्तुत करने में सक्षम है।

 

चिंगारी क्या कम थी आग लगाने को

जो  इतना  अंगार  उड़ाए  जाते  हो ?

 

यथार्थ की यह व्याख्या अप्रतिम है। संग्रह की ग़ज़लें मनोरंजन के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ दे सकती हैं जिसका अपना अलग सामाजिक मूल्य है। आज का साहित्य खासकर ग़ज़लें सिर्फ मनोरंजन के लिए ही नहीं हैं बल्कि कल्पना के संसार में जाकर यथार्थ की ख़ोज कर मनुष्य को उसकी विसंगतियों से रूबरू कराना  तथा चल रही व्यवस्था के प्रति विद्रोह के लिए उकसाना इनका मूल उद्देश्य है। दर्श की ग़ज़लें इस लिहाज़ से महत्वपूर्ण हैं। 

 

 

अनिरुद्ध सिन्हा

गुलज़ार पोखर,मुंगेर (बिहार)

मो . - 7488542351

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