गाँधी और आत्मालोचन

कई बिन्दुओं पर असहमति के बावजूद गाँधी मुझे आकर्षित करते हैं । यह आकर्षण सिर्फ वैचारिक नहीं है बल्कि यह आत्मा के धरातल पर का आकर्षण है। गाँधी के विचार और व्यक्तित्व ने सिर्फ उनके समकाल और स्वदेश को ही अनुप्राणित नहीं किया है बल्कि आनेवाले समय में उन सभी संघर्षों को एक दिशा दी है जो मनुष्य और उसके समाज या देश की बेहतरी के लिए दुनिया के विभिन्न हिस्सों में  किए गए हैं । संघर्ष के सभी प्रचलित तरीकों के समक्ष वे एक समानांतर रचते हैं। सत्याग्रह जन - संघर्ष का एक अपेक्षाकृत अधिक मानवीय तरीका है जिसमें विरोधी शत्रु नहीं है और अगर शत्रु भी है तो वह भी अंततः मनुष्य है, वही मनुष्य जिसमें एक हृदय है, एक मस्तिष्क है और रचनात्मक चेतना भी है। विरोधी के भीतर परिवर्तन आने तक का जो संघर्ष है वही गाँधी का संघर्ष है। इसमें रक्तपाती क्रांति या सशस्त्र मोर्चे की कोई जगह नहीं। मैं यह नहीं कह रहा कि देश की आजादी सिर्फ इस  सत्याग्रह के बल पर मिली बल्कि इशारा इस बात की तरफ है कि इस सत्याग्रह ने ही काँग्रेस को एक जन - आंदोलन बनाया। इस सत्याग्रह ने गांधी के बाद भी कई जन - समूहों को संघर्ष का एक मानवीय  तरीका दिया।    
एक मनुष्य के रूप में कुछ कमज़ोरियाँ गाँधी में भी मिल सकती हैं। मनुष्य के रूप में तो कई पौराणिक मिथकीय महापुरुषों में भी अनेकानेक कमियाँ निकाली जाती हैं और निकालनी ही चाहिए क्योंकि महापुरुषों के जीवन और उनके कृतित्व का नये संदर्भ और नये समय के आलोक में ही मूल्यांकन- पुनर्मूल्यांकन होगा। हम जिन मिथकीय या ऐतिहासिक व्यक्तित्व से प्रेरणा लेते हैं उनके साथ हमारा एक तादात्म्य स्थापित हो जाता है । कभी कभी यह तादात्म्य इतना सघन और गहरे होता है कि उनकी आलोचना हमें आत्मालोचन जैसा लगने लगता है । राम की आलोचना पर एक पारंपरिक हिंदू की नाराजगी और मुहम्मद की आलोचना पर मुसलमान की प्रतिक्रिया दरअसल आत्मालोचन से इंकार का ही एक रूप है। ठीक उसी तरह गाँधी के प्रति श्रद्धास्पद लोग गाँधी पर की गई चोट को स्वयं के ऊपर की गई चोट के रूप में महसूसते हैं। परन्तु इस आत्मीय संबंध को अक्षुण्ण रखने के लिए हमें आत्मालोचन से वंचित होना पड़ता है। गाँधी ने हमेशा आत्मालोचन पर बल दिया है । उनके आत्मालोचन में आत्म मंथन और आत्मपरीक्षण के जो तत्व हैं वे किसी अन्य के व्यक्तित्व में शायद ही मौजूद है। गाँधी के व्यक्तित्व का यह गुण मुझे अत्यधिक खींचता है। यही गुण उन्हें दुनिया का सबसे साहसी मनुष्य बनाता है। 
गाँधी का समय निश्चित रूप से अभी से कोई बेहतर समय नहीं था। दुनिया में चारों तरफ साम्राज्यवाद, शोषण, युद्ध- रक्तपात का घिनौना खेल जारी था। नस्लीय श्रेष्ठता और जातीय नरसंहार के उस दौर में सत्य और अहिंसा की बात तक करने का साहस करना कठिन था। बड़े बड़े हथियारों और फौज - फांटों के सामने कोई सोच कैसे सकता था कि मनुष्य के भीतर ऐसा कोई एक कोना हमेशा रहता ही है जो उसे अंततः सत्य का आभास करा ही जाता है। मनुष्यता के उज्जवल पक्ष में गाँधी का विश्वास एक अदभुत दृष्टि है जो उनसे पहले बुद्ध में देखने को मिलती है । मैं गाँधी की तुलना बुद्ध से नहीं कर सकता लेकिन इतना जरूर है कि आधुनिक समय में गाँधी ही बताते हैं या उनमें ही यह दिखता है कि बुद्ध कैसे होंगे। यह बात मैं इसलिए भी कह रहा हूँ कि गांधी के लिए भी आचरण दरअसल विचार से ज्यादा महत्वपूर्ण है। विचार कितने भी उदात्त हों कितने भी समावेशी और सर्वग्राह्य हो अगर आचरण में असफल रह जाएँ तो उन विचारों की जागतिक उपयोगिता नगण्य रह जाती है। इसलिए गाँधी प्रयोग की बात करते हैं । प्रयोग सफल हो सकता है और असफल भी परन्तु हम उस निष्ठा को देखें, उस उद्देश्य को देखें जिसको लेकर प्रयोग की बात की जाती है। गाँधी कई मायनों में अपने प्रयोगों- प्रयासों में सफल हुए हैं । उनकी जो भी असफलताएँ चिन्हित की जाती हैं उनके लिए बहुत हद तक वे परिस्थितियाँ भी जिम्मेदार हैं जिनमें उन्हें काम करना पड़ा । हमें उन परिस्थितियों की परीक्षा करनी होगी। गाँधी के उन मूल्यों की भी जाँच करनी होगी जो उन्हें तथाकथित ऐतिहासिक असफलता की ओर धकेल देते हैं । मैं गाँधी को पूजने के पक्ष में नहीं बल्कि उन्हें उस रूप में पहचानना चाहता हूँ जिस रूप में वे आनेवाले भारत या विश्व के लिए अभी भी वो सब कुछ दे सकें जिनकी सबको जरूरत है और जिनके लिए लोग उनकी ओर मुखातिब होते हैं ।  

Comments