'विदापत नाच' में लोक - शास्त्र के द्वंद्व का समाजशास्त्रीय पक्ष


रेणु की रचनाशीलता में तीन तत्व एक साथ हमेशा मौजूद दिखाई पड़ते हैं
- तीव्र अनुभूति, पैनी दृष्टि और अभिव्यक्ति की आतुरता। उसमें अनुभूति की जो तीव्रता है वह कवि की है, दृष्टि का जो पैनापन है वह चिंतक का है और  जो अभिव्यक्ति की कशमकश है वह कथाकार की है।  यही वज़ह है कि वे अपने लिए जो लेखन - क्षेत्र या विषय चुनते हैं, उनके लिए अलग शिल्प गढ़ते हैं  या कहें कि अलग शिल्प में रचना को गढ़ते हैं ताकि उस अनुभूति, दृष्टि और अभिव्यक्ति को एक साथ साधा जा सके। वे जब रिपोर्ताज भी लिखते हैं तो उनकी नैसर्गिक किस्सागोई वहाँ भी मौजूद रहती है। इससे उनके रिपोर्ताज भी अपनी रोचकता में एक बहुवर्णी क्षितिज लेकर बिल्कुल नए अंदाज और अलग कलेवर में प्रकट होते हैं और अपनी शैली तथा शिल्प में भी सबसे भिन्न उत्कर्ष रचते हैं । इन रिपोर्ताज में रेणु की कहानियों के बीज भी यत्र- तत्र बिखरे देखे जा सकते हैं ।
यह अपने रूप, रस, और गंध में उनके अन्य रिपोर्ताज से भिन्न है । कुल मिलाकर यह एक सामाजिक-सांस्कृतिक रिपोर्ताज है जिसमें समकालीन ठेठ ग्रामीण जीवन की एक सांस्कृतिक गतिविधि के सहारे रेणु ने अपने रिपोर्ताज- लेखन के सामाजिक सरोकार और चिंताओं को प्रकट किया है। साथ ही उन्होंने एक इशारा भी किया है कि ग्रामीण भारत की  सांस्कृतिक- सामाजिक गतिविधियों देखे -समझे बिना उस ‘रस’ की पहचान असंभव है जो गरीबी और लाचारी की हालत में भी दलित- पिछड़ी आबादी की आत्मा में बहकर इस वर्ग की सामूहिक जिजीविषा को बचाए रखता है और जो लोगों को रोजमर्रा के जीवन संघर्ष के लिए अजस्र ताकत भी देता रहा है।
इसमें जिस नाच की प्रतिष्ठा या चर्चा हुई है, वह कोई ' क्लासिकल नृत्य " नहीं  बल्कि एक ठेठ स्थानीय नाच है जिसकी अपनी आंचलिकता है, अपनी मिट्टी है, अपना परिवेश और अपनी परंपरा  है। परिमार्जित स्वाद से सम्पन्न श्रोता या दर्शक जो कला को शास्त्रीय 'परफेक्शन' या 'प्योरिटी' की अनुशासन - बद्ध साधना मानते हैं, वे इस ठेठ नाच को भदेस कहकर खारिज कर सकते हैं।  परन्तु इस भदेस कलाभिव्यंजना में मन को तरोताजा करने और जीवन संघर्ष को ढोने की जो क्षमता है उसे ख़ारिज नहीं किया जा सकता। उसे खारिज करने का मतलब है जीवन -धर्मिता को नकार देना जो अभावग्रस्तता में भी कभी मलिन नहीं होती। इसके कलापक्ष और तकनीकी पहलू की छानबीन करनेवाले इसकी ताकत और खूबियों का अंदाजा नहीं लगा सकते। इसे वे ही समझ सकते हैं या इसका आनंद ले सकते हैं जो रेणु की भाषा में अपनी 'भद्रता - शिक्षा' का चोगा फेंककर इसमें सीधे उतर आते हैं । ध्यान रहे, चोगा तो एक प्रकार से बाहरी आवरण है ही पर 'शिक्षा - संस्कार"  भी भले ही भीतरी  बात हो लेकिन है तो वह भी आवरण ही। इसे उतारे बिना कोई इस देशी नाच के लोक - रूप को बाहर से देख तो सकता है लेकिन लोक - राग या इस लोक - विधा की आत्मा तक नहीं पहुँच सकता। 
सामंतवादी ढांचे में सदियों से जी रहे समाज में जो मानसिक खाई या फासला पैदा हुआ है उसे सिर्फ आर्थिक बराबरी से नहीं पाटा जा सकता है। उसे पाटने के लिए अभिजात्य और शास्त्रीयता का घेरा तोड़ना ही होगा। प्रकारांतर से इशारा इस बात की तरफ भी है कि अभिजात अथवा शास्त्रीय वर्ग जो अपनी सुरुचिसम्पन्न जीवन शैली के साथ अपने धन, ज्ञान, सुसंस्कार पर अपना अहंकार पालता है परन्तु  अपने अस्तित्व के लिए जो लोक - श्रम पर आश्रित रहा करता है, वह जबतक दलित- पिछड़ी आबादी के करीब नहीं आएगा, सामाजिक खाई को मिटाने के सारे उपाय निरर्थक साबित होते रहेंगे। सरकार तो अपने उत्पादन- वितरण की व्यवस्था और आर्थिक- संवैधानिक नियमन से आर्थिक समानता सुनिश्चित करते करते असमानता और खाई को ही बढाती चली गई।   ऐसे में  तो सामाजिक- सांस्कृतिक साम्य की बात ही बेमानी है। यह साम्य तो दरअसल एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है, या कहें कि मानसिक विकास की परिणति है जो सांस्कृतिक संश्लेषण से ही संभव है और जिसकी कल्पना सामाजिक दायित्व बोध के बिना बिल्कुल असंभव है । सामाजिक ताने - बाने की सघनता – सुदृढता का सूत्र सांस्कृतिक है, मनोवैज्ञानिक है, न कि सिर्फ आर्थिक
रेणु भले ही सुरुचिसम्पन्न - सुसंस्कृत चेतना से लैस हों, उनका संस्कार बुनियादी तौर पर ग्रामीण है, उनकी दृष्टि लोकोन्मुखी है। शहरी संस्कृति उन्हें भी खींचती थी लेकिन वे अपने मूल की तरफ लौट लौट आते थे। गाँव उनके खून में समाया था बिल्कुल पानी की तरह।  उनकी पूरी  रचनात्मकता में जो सर्वाधिक मुखर प्रखर स्वर है वह लोकजीवन का है। लोकजीवन ही रेणु के साहित्य का भी जीवन है।  उनके साहित्य में जो रसावतरण और रस संचार हुआ है उसका उत्स  लोकजीवन में है, ठेठ ग्रामीण- संस्कृति में है। इससे पता चलता है कि रेणु का अभिजात्य उनकी आत्मा में बिल्कुल नहीं था। वैसे भी वे ऊँची जाति के नहीं थे या अगर ऊँची जाति के होते भी तो उनके रुख में अभिजात्य शायद ही होता क्योंकि उनकी आत्मा में वही ‘भारत माता ग्रामवासिनी’ बसती थी जो गाँधी की आत्मा में बसती थी। इस ‘ ग्रामवासिनी’ का ‘ धूल भरा मैला सा आँचल’ रेणु को अपने आगोश में लपेटे रहता था।
गाँव की जीवन- व्यवस्था के बारे में उनकी समझ इतनी गहरी और संवेदना से भरी थी कि उन्हें पता था कि गाँव की ठेठ आत्मा में प्रवेश कैसे किया जाए । गाँधी ने भी बिल्कुल यही किया थाइसमें प्रवेश करने के लिए इसके जैसा बनना पड़ता है। इस प्रवेश की भी एक पात्रता है और वह है ‘भद्रता’ के चोगे का त्याग। । रेणु को  “भद्रता” का चोगा उतारने में कोई परेशानी नहीं होती बल्कि लोक में आकर उनका “शास्त्र” भी मुक्त होने लगता है और उनकी संवेदना लोक - रस की धार में आसानी से उतर भी जाती है।
विदापत नाच का आयोजन - स्थल मुसहर टोली हुआ करता है । दो बाजे और तीन - चार कलाकारों पर इस नाच के सारे दृश्य पूरे होते हैं ।  इसमें आस पास के धांगड, कोल आदि जातियों के लोग भी आते हैं। इनका अपना - अपना समाज है। इसी से नाच का समाजी भी बनता है । इस समाज की भी एक खासियत होती है जो सारे समाज में देखने को मिलती है। रेणु ने इसे बड़ी बारीकी से आरंभ में ही उठाया है। वह है - सजातीयता का "कम्फर्ट" और इसकी "रिजिडिटी"। "भद्र - शिक्षित" आगंतुक जब नाच देखने आते हैं तो इनकी उपस्थिति की आहट पाकर ही नाच की गति मंद पड़ जाती है, नाच थम - सा जाता है। 
विजातीय सम्भ्रान्त आगंतुक के सामने नाच - समाजियों के गले की खनक का धीमी पड़ जाना कोई नई बात नहीं है लेकिन रेणु ने इसे यहाँ उभारकर लोक - संबंध में उपस्थित "मानसिक - सांस्कृतिक कनेक्ट" की अनुपस्थिति की ओर इशारा किया है।
रेणु ने जो इस समाज की यह नब्ज पकड़ी है वह चालीस के दशक का छोटी जातियों का समाज है जिनसे छोटी या निम्नतर और कोई जाति उस समय भी शायद ही होती होगी। इनके सामाजिक - सांस्कृतिक घेरे में कोई विजातीय घुसपैठ इन्हें अपनी अस्मिता पर खतरे का एहसास करा जाता है । यह बात आधुनिक या समकालीन परिप्रेक्ष्य में और बेहतर समझी जा सकती है। आर्थिक विकास के नाम पर  जनजातीय जीवन में जो दखलंदाजी हुई है, उस दखलंदाजी से जो उसमें जो समय - समय पर रोष - असंतोष देखने को मिलता है उसे यह वर्ग  मूलतः सांस्कृतिक हमले या  संकट के रूप में देखता है । विकास की मुख्यधारा का समाज और उसका चरित्र आज भी उनके लिए उतना ही अपाच्य और अग्राह्य है। 
रेणु ने इस रिपोर्ताज में आजादी से पहले ही संकेत दे दिया था कि इस समाज ( जिसे आज महादलित समाज कहते हैं) के घेरे में प्रवेश कर देखना होगा और यह समझना होगा कि उसकी सांस्कृतिक जड़ें उसी जमीन में जमी हैं जो ‘शास्त्र’ के भूगोल का ही मुक्त विस्तार है। कोशी भी अपनी संजीवनी उसी हिमालय से लेती है जिससे गंगा लिया करती है। स्रोत बहुत गहरे में एक है। इसलिए नाच के दृश्य का संस्कृत में मंगलाचरण के साथ खुलना रेणु के लिए विस्मयकारी नहीं है। उनके जैसे घाघ लोक - लेखक के लिए यह नई बात नहीं है। उन्हें मालूम है कि ये अनपढ़ – अशिक्षित  लोग भले ही शुद्ध संस्कृत  उच्चारित न कर सकें लेकिन ये 'पंडितम् पतितम् ' को गणनायकं फलदायकं के बाद रखना नहीं भूलते। लोक - स्मृति अगर भाषा को उसके तमाम शास्त्रीय ताम  - झाम के साथ ग्रहण नहीं करती तो इसका मतलब यह नहीं कि लोक - स्मृति को इससे परहेज है बल्कि इसका मतलब सिर्फ इतना है कि लोक- संस्कृति को इसे उस रूप में ग्रहण करने की जरूरत ही नहीं है क्योंकि वहाँ जीवन कला के लिए नहीं है बल्कि कला जीवन के लिए ही है। वहाँ जीवन कलात्मक नहीं बल्कि कला जीवनात्मक है। यह भी सही है कि लोक - स्मृति या लोक संस्कृति अपना कितना भी जीवन भरा संसार रच ले, वह ‘शास्त्र’ की श्रेष्ठता भूल नहीं पाती और अपनी जड़ किसी न किसी रूप में शास्त्र की जमीन में अवश्य ढूँढती है। इसमें उसके सुरुचिसम्पन्न या पर्याप्त सभ्य कहलाने की परोक्ष आकांक्षा भी जाहिर हो जाती है।लोक में शास्त्र के विसरण की परंपरा भी उतनी ही प्रबल रही है।
मंगलाचरण के बाद नर्तक द्वारा समाजिए की भांवरी या चक्कर  लगाना, पीछे - पीछे विदूषक का आना एक अद्भुत दृश्यबंध है। रेणु नाच के  इस सामान्य चरण को बेमतलब नहीं रखते। कला जीवित रहेगी अगर वह अपने वाहक समाज की परिक्रमा करती रहेगी अन्यथा परिधि से परे होकर उस समाज के लिए अर्थहीन हो जाएगी। यहाँ रेणु ने आनेवाली पीढ़ी को एक दृष्टि दी है। 
यही नहीं नर्तक जब एक जगह स्थिर होकर नाचता है, घांघरी तो फूल की तरह जरूर खिल उठती है लेकिन उसके अन्दर से गुमी हुई दुर्गंध ही निकलती है। कला को भी चंचला होना चाहिए, जीवन को अलग- अलग कोणों से साधकर ही कला सार्थक होती है अन्यथा इससे दुर्गंध ही बहती है भले ही इसका रूप कितना ही खिला - निखरा हुआ हो।   यह "गुमी हुई दुर्गंध" रेणु में लोकांतरंगता की सुगंध का भी पता देती है। 
रेणु ने इस देशी आंचलिक नाच के ठेठ भदेस रूप को वृहत्तर दुनिया के सामने जिस  आत्मविश्वास और आग्रह के साथ रखा है उससे रिपोर्ताज की सोद्देश्यता को विस्तार मिला है, उसकी साहित्यिक जिम्मेदारी बढ़ी है और यह धारणा भी दृढ़ हुई है कि सिर्फ तथ्यपरक ब्यौरों को अथवा समसामयिक घटना या विषय को आमफहम भाषा या शैली में प्रस्तुत कर देने से रिपोर्ताज लिखने का उद्देश्य पूरा नहीं होता। विधा कोई भी हो, रचनाएं हरेक विधा में समय की धुन को उसकी पूरी झनझनाहट के साथ पकड़ने में समर्थ हों,वे ऐसी जगहों पर ऊंगली रखती हों जहाँ ऊंगली रखना निहायत अपरिहार्य है और अपनी विधा में वे रचनाएँ संवेदना का ऐसा उत्कर्ष रचती हों जहाँ लेखक की चिंता और रचना का सौंदर्य दोनों एक साथ मिलकर प्रभावोत्पादकता का संचार करते हों । इस लिहाज़ से "विदापत नाच" में संचरित प्रभावोत्पादकता बेमिसाल है । इसमें मानवीय संवेदना बिल्कुल केंद्रीय भूमिका में प्रतिष्ठित हुई है। 
धर्म के इतिहास में लोक - शास्त्र का जो परंपरागत द्वंद्व है,वह द्वंद्व हमारी संस्कृति में भी हमेशा से चला आ रहा है। इस रिपोर्ताज  लोक - शास्त्र का जो संबंध रूपायित हुआ है वह सांस्कृतिक और सामाजिक दोनों है परन्तु यह लोक - शास्त्र धर्म का हो या समाज- संस्कृति का, चिंतन या विमर्श, उन्हें एक - दूसरे को अलग एवं परस्पर विरोधी रूप में देखते हैं।  इस द्वंद में दुर्भाग्यवश हमेशा लोक के प्रति शास्त्र का उपहास अथवा उपेक्षा - भाव और शास्त्र के प्रति लोक में व्याप्त अवमानना के भाव या बगावती तेवर को ही महत्व दिया गया है।  इसे एक पुराने द्वंद्व के रूप में देखा जाता रहा है लेकिन सच्चाई यह है कि यह सिर्फ अध्ययन, चिंतन, विमर्श या धर्म के स्तर पर रहा है। सहृदय, रसिक - रागात्मक सांस्कृतिक चेतना चाहे वह लोक की हो या शास्त्र की, इस द्वंद्व में  हमेशा आपसी सामंजस्य के सूत्र ढूंढती रहती है। "विदापत नाच" की आरंभिक पंक्तियों में ही इसका सूत्रपात देखा जा सकता है जहाँ रेणु विदापत नाच के सीमित आंचलिक स्वरूप को इस रूप में पेश करते हैं कि क्लासिकल नृत्य के आचार्य श्री उदय शंकर भी इसे देखने को थिरक उठें। अभिजन या शास्त्रीय वर्ग भी इसमें उत्सुक हो सके और इस नाच को  "नृत्य" से कमतर न आंके। नृत्य में जो शास्त्रीय बंदिशें या नियम - अनुशासन हैं, नाच में वे किस तरह शिथिल पड़कर टूटने लगते हैं और कला एक शास्त्रीय साधना की ऐकांतिक या स्वांत: सुखाय उपलब्धि नहीं बल्कि लोक जीवन के रंग - रूप - रस के साथ एकमेक होकर सामूहिक रागोत्सव बन जाती है । भारतीय अध्यात्म चिंतन और परंपरा में भी इसे स्पष्ट देखा जा सकता है । 'योगसूत्र' का अनुशासन उसी असीम की साधना की विधि बताता है जिस असीम को भक्तिकाल के संत सिर्फ सीधी - सादी भक्ति के द्वारा प्राप्त करने का दावा करते हैं। यह भक्ति बिल्कुल लोकसम्मत या लोकलक्षित मार्ग है जहाँ साधना के कठोर अनुशासन बिल्कुल शिथिल और अनुपयुक्त हो जाते हैं । कला - संस्कृति की भी जो लोक प्रचलित विधाएँ हैं उनके केन्द्र में कला के शास्त्रीय उत्कर्ष को पाने की चिंता नहीं होती बल्कि उनमें लोक - मन की पीड़ा एवं जीजिविषा होती है और संघर्ष के कठिन क्षणों में, उपलब्ध संसाधनों के सहारे शक्ति और साहस जुटाने की हूब होती है। 
लोक - शास्त्र के संबंध की पडताल करते हुए एक बात जो इस रिपोर्ताज में सामने आती है वह है वर्गीय चरित्र  जिसकी चेतना जातीय है, जातिवादी नहीं है। जाति - व्यवस्था की सीढ़ी में कोल, धांगड़ जातियाँ निम्नतम पायदान पर हैं । इनके अलग- अलग समाज अवश्य हैं लेकिन वे एक दूसरे से कटे नहीं हैं । सामाजिक - आर्थिक स्थिति की दृष्टि से ये भले ही हाशिए पर हों लेकिन समाज की उत्पादन- व्यवस्था में इनका श्रम ही केंद्रीय भूमिका में रह इस वर्ग को यह एहसास है कि उनका नाच उनके लिए कितना भी आनंददायक या मनोरंजक हो लेकिन ऊंची जाति या वर्ग के लोगों के लिए यह नाच  देखने का मतलब है उनके ' भद्र- शिक्षित' संस्कार से पतन । अगर वे देख भी लें तो उन पर वे हंसेंगे या उन्हें और भी गए - गुजरे समझेंगे कि उन्हें  न तो भाषा आती है न ही ठीक से गीत - पद या गाना - बजाना। ऐसा लगता है इस वर्ग की कलात्मक प्रतिभा में एक संकोच है, कहीं न कहीं कोई हीनता और कुंठा का भी भाव है।  नाच की दर्शक- दीर्घा में कोई विजातीय या घुसपैठिया आगंतुक बर्दाश्त नहीं क्योंकि नाच में सिर्फ नाच नहीं होता उसमें भीतर का महानाच भी प्रकट होता है जिसमें  हास्य और गीत में  व्यवस्था पर व्यंग्यात्मक चोट भी होती है । टोले के लोग आपस में ही अपने  दुख - दर्द  के गीत गाकर अपने - अपने मन का बोझ हल्का करते हैं । वे व्यवस्था के प्रति अपने मन का असंतोष और प्रतिरोध भी बड़े सरस ढंग से रखते हैं। अपनी छाती में शोषण का दंश लिए दलित वर्ग का ‘विदूषक’ या ‘विकटा’ अपनी समस्त शारीरिक विद्रूपताओं के साथ सामाजिक विद्रूपताओं को रेखांकित करने में कामयाब हो जाता है। नर्तक जहाँ  नाच को  प्रेम - पीर और विरह में लिपटी हूक से अनुप्राणित करता है , एक ऐसी विरहा के दर्द और लाचारी को गीतों में उभारता है  है, जिसके पिया को रोज़ी- रोटी के लिए बाहर जाना ही पड़ता है। वहीं विकटा उन आर्थिक परिस्थितियों और मजबूरियों  को उभारता है जिनके सामने विरहा यानी नर्तक के पति को अपना घर परिवार  तज कर  दूर देश जाना ही पडता है। नर्तक दलित समाज की स्त्री के मानसिक संघर्ष और सपनों कोउसकी  मनोदशा और बेबसी को अपने नृत्य और गायन के माध्यम से सुना जाता है। दूसरी तरफ विकटा  हँसी खेल में व्यवस्था की गंभीर  असंगतियों और  शोषण की गहरी मार को को मूर्तिमान कर देता है।
बीच में चेथरू गोसाईं जैसे कबीरपंथी का उदय होना एक अलग आयाम खोल जाता है। नाच में जहाँ इस समाज में व्याप्त दुख, गरीबी और लाचारी की बात उठती है वहीं चेथरू गोसाईं जैसे लोग लोकचित्त को परलोक की तरफ मोड़ते दिखाई देते हैं । उनके लिए यह दुनिया, यह  समाज नैहर की तरह है। इस नैहर में दुख ही दुख है। दुख यहाँ की नियति है। इससे छुटकारा तभी होता है जब नैहर से विदाई होती है। नैहर  से विदाई और पिया के देश में प्रवेश जहाँ आनंद ही आनंद है,  सुख ही सुख है,  बिल्कुल एक पारंपरिक भारतीय धारणा है  जिसके सामाजिक और आध्यात्मिक दोनों पहलू हैं । आध्यात्मिक अर्थ में यह भले ही मुक्ति का मार्ग लगता हो परन्तु सामाजिक अर्थ में यह यथार्थ से नजरें चुरा कर किसी कल्पना लोक में जीने की जुगत ही प्रतीत होता है। नर्तक और विकटा बिल्कुल सामयिक सामाजिक सच को जी रहे हैं । उनका दुख और सारा संघर्ष इसी जीवन का है जिनकी जड़ें इसी समाज में गहरी जमी हैं । उनके जो भी दंश और द्वंद्व हैं उनके साथ जीने के लिए वे अभिशप्त दिखते हैं । नाच गान उनके मन को थोड़ा निर्भार जरूर करते हैं ।
रेणु ने इस रिपोर्ताज में प्रकारांतर से इस बात की स्थापना की है कि लोक में रस की कमी नहीं है, उसकी आर्थिक फटेहाली भी इस रस को बहने से रोक नहीं पाती लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि दलित को व्यवस्थागत विसंगतियों की समझ नहीं है। समझ है तभी तो अनपढ़ विकटा भी ‘फटकनाथ गिरधारी’ होने का वह सारा मर्म एक झटके में समझा जाता है जिसे समझने समझाने में अभिजात बौद्धिक वर्ग को वर्ग- संघर्ष से लेकर कला के शास्त्रों के पन्ने जीवन भर अलटने- पलटने  पड़ते हैं ।  
 
 
 
 
 
 
 

 

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