दूरदास के पद/ दिलीप दर्श
सोवत, जागत, चलत निरंतर, रेणु रैन - दिन गावै।
रेणु - ताप में तपत कौन वह रग - रग रेणु बसावै।
कौन हजारीबाग बैठकर रेणु - समाधि लगावै।
लिखत रेणु पर खरी जीवनी नस - नस रस निकसावै ।
पृष्ठ- पृष्ठ पर विहँसि- हरसि वह कौन कलम चमकावै ।
जीवन - भर यायावर बनकर झोली भरि - भरि आवै।
झोली खाली करि वह पुनि - पुनि ठाम नया फिर धावै।
सोचत - सोचत रेणु- कथा पर, सर के बाल गँवावै।
साबुन, शैंपू और हजामत को फिर व्यर्थ बतावै।
यह सुन रेणु सुकेश इष्ट जब मन ही मन गरमावै।
तब खल्वाट भगत यह उनके केश - गुच्छ सहलावै।
रेणु सुकेश प्रसन्नवदन तब मुक्तहस्त उछलावै
दूरदास फिर यायावर के सिर सघन जुल्फ लहरावै।
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