कागभुशुंडि, सुनो


अब यहाँ कोई गरूड़ नहीं है
कागभुशुंडि !
तुम्हारी कथा सुनने के लिए


इस झड़े बबूल के नीचे
इकट्ठे ये सब गरूड़ नहीं, 
गरूड़ केे वेश में गिद्ध हैं
गरूड़ की भाषा में माहिर ये
गरूड़ के संदेह और सवाल उठाने में सिद्ध हैं

कागभुशुंडि !
इनमें से कोई संपाती या जटायु नहीं है
कोई आत्मा या स्नायु नहीं है
इनकी देह में

...तो इनके संदेह
कि राम क्या सचमुच ब्रह्म हैं, पर
कैसे भरोसा किया तुमने
जो शुरू कर दी राम - कथा ?


सुनो,
सिर्फ यही एक सवाल पूछकर
सारे नकली गरूड़ जिंदा हैं
और इन्हें बखूबी मालूम है कि
यही संदेह या सवाल
इन्हें जिंदा रख सकता है सदियों तक
इसलिए ये पूछते ही रहते हैं-
"राम क्या सचमुच ब्रह्म हैं ?" 


बार - बार पूछते रहने से याद रहता है सवाल
बनी रहती है अटूट और अभेद्य
पूछने की आदत और झूठ की खाल

ये जो
तुम्हारी राम - कथा सुन - सुन रो रहे हैं
केवट, शबरी, सीता, जटायु...में
अपादमस्तक खो रहे हैं
तुम्हें नहीं पता, कागभुशुंडि  !
ये दरअसल अपने - अपने आंसुओं में
अपनी - अपनी खाल धो रहे हैं

शबरी का प्रेम या केवट की दुविधा
इनके लिए बस रोने की है एक सुविधा
अन्यथा नाव या जूठे बेर
इनके किसी काम के नहीं 
इनके लिए तुम्हारा केवट या  शबरी
कुछ भी नहीं, पूरक पात्र भी नहीं
और वह जटायु या गिलहरी
तो अस्तित्व का रंच - मात्र  भी नहीं

कागभुशुंडि  !
ये दरअसल खुश हैं कि इनके लिए
इस करुण कथा में भी एक युद्ध है
युद्ध में गिरती असंख्य लाशें हैं
लाशों में रक्त, अस्थि, मांस है 
उनमें चोंच डूबाने का कितना सुख है !
तुम क्या जानो, कागभुशुंडि  !


तुम्हारी चोंच, तुम्हारी सोच
अब वो नहीं रही,
कथा - रस पीते- पिलाते रोज
बिल्कुल विजातीय हो गई है
तुम क्या जानो कि इनके लिए
युद्ध की आहट अच्छे दिनों की दस्तक है
और युद्ध एक दावत है

तो "राम क्या सचमुच ब्रह्म हैं ?"
किसको बता रहे हो ? 

सुनो !

सवाल सिर्फ वही चुुनो
जो सामने खड़े आदमी ने पूछा है
नकली गरूड़ों या गिद्धों ने नहीं

सुना है तुमने ?
पूछा जा रहा है
शबरी से भक्ति का प्रमाण - पत्र ?
अन्यथा जूठे बेर अब राम नहीं खा पाएंगे
क्योंकि राम अब जंगल में नहीं हैं 
अयोध्या में कैद हैं
वो भी भारी सुरक्षा - घेरे में
चारों ओर सेना के तीनों अंग मुस्तैद हैं
शबरी लगा रही है चक्कर उस दफ्तर का
जिसका पता पूछ रहा है सबसे
जटायु का जिम्मेदार भतीजा भी
जुल्म के विरुद्ध और नेकी की राह में
आखिर कुर्बान हुआ है उसका महान चचा भी
उसे शहीद का दर्जा कौन देगा ?
शहीद स्मारक बनाने के आदेश - पत्र पर
किन चोंचों की मुहर लगेगी ?
किधर है वो दफ्तर ? कौन हैं वे ?
 चुप हैं या मौन हैं वे ?

तुम्हें पता है ?
बिना मजूरी लिए
वह छोटी गिलहरी अभी भी 
क्यों डाल रही है मिट्टी
सेतु के दरकते शिलाखंडों के बीच ?
राम ने कहा होगा - 
"युद्ध के बाद सेतु बनाए रखना
और भी ज़रूरी है।"

तुमने देखा है, कागभुशुंडि ?
श्रम - स्वेद में तर - बतर गिलहरी  की वह पीठ ?
किस तरह मिट रहीं हैं तीन धारियाँ ?
मिट रहा है तुम्हारे राम की ऊंगलियों का
वो वात्सल्य स्पर्श !
गायब हो रही है
उस स्पर्श में फंसी उन ऊंगलियों की गंध
वह कैसे और कहाँ पा सकेगी फिर ये सब ?
इस नीमजान के लिए अयोध्या बहुत दूर है
फिर राम की ऊंगलियां भी अब
आजाद नहीं, मजबूर हैं !

सुना है तुमने ?
केवट भी पहुँचा है अयोध्या
सरयू का शीतल जल लेकर
एक बार फिर से धोना है
प्रभु के युग - चरण
धोनेवाले बहुत होंगे 
तो धुल ही गई होगी धूलि
परन्तु धुली होगी प्रभु की थकान 
केवट का संदेह अभी भी शेष है...

मगर द्वार पर खड़ा केवट निरूत्तर है !
उसे दिखाना होगा पहचान- पत्र
दरबान दिखा रहे हैं उसे
उस दफ्तर का रास्ता
जहाँ से पहचान- पत्र होता है जारी
और मिलती है अनुमति भी सरकारी 

"...परन्तु कागभुशुंडि !
तुम्हें क्या सचमुच नहीं मालूम ?
कि ये सफेदपोश गिद्ध ही मालिक हैं

उन दफ्तरों के ?

और वे ही यहाँ इस बबूल के नीचे
सुन रहे हैं तुमसे राम - कथा ? "

क्षण - भर  मौन हुआ कागभुशुंडि 
फिर उड़ गया


गिद्धों ने ऊपर देखा  - 

बबूल पर हरा पत्ता एक ही था 

वो भी झड़ गया !

Comments

  1. यह एक अद्भुत प्रभावकारी कविता है, दिलीप जी। रामायण के प्रतीकों को एक नया अर्थ, नया आयाम देकर इतनी सार-गर्भित और प्रासंगिक नई व्याख्या की है। वाह!

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  2. यह एक अद्भुत प्रभावकारी कविता है, दिलीप जी। रामायण के प्रतीकों को एक नया अर्थ, नया आयाम देकर इतनी सार-गर्भित और प्रासंगिक नई व्याख्या की है। वाह!

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