प्रेम को कभी
प्रेम को कभी
सुबह की पहली चाय या
शाम की काॅफी नहीं समझा मैंने
प्रेम को बस पानी ही समझा हमेशा
मन पर मैल की परत महसूस हुई
तो धो लिया
पी लिया बस
सूख गया जब कुआँ
मेरे भीतर
और भर गया उसमें अंधेरा कोई प्यासा !
जब कभी उड़ा धुआँ
भांप ली आग
बुझा भी दी उसे इसी पानी से
सिर्फ चिल्ला कर -"आग , आग !"
मैं न पाया भाग
जब कभी लौटा,
तन - मन ले थके - पके
डूब
उसमें नहा लिया खूब
जुड़ा ली आत्मा भी
यही नहीं
कभी डाल लिया कमंडल में
छींट लिया सिर पर, हो गया पवित्र
देखा पानी में एक महात्मा भी ।
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