ऊधौ, अब हम पुहुप देस के वासी।
जिसकी हवा लहै जब फुफ्फुस छूटै क्रानिक खाँसी।
बाजत चहुँ दिशि आठ पहर जहँ ढम्- ढम् ढोल विकासी।
राष्ट्रवाद की धुन पर बरसै सहज महासुख- राशी।
पहुँचत जहँ सब क्लेस मिटत है भागत भरम – उदासी,
निसि दिन रस नारंगी टपकै पीवत जियरा भाँसी।
गन्ना -रस मधुमेही माया, काया करत बिनासी,
वापिस आ यह देस हे ऊधौ, क्या भटकत चौरासी।
नश्वर यह संसार हे ऊधौ, कुरसी है अविनासी,
अब कुर्सी तक पहुँचै केवल त्यागी वा सन्यासी।
पुहुप – माल को छाँड़ि गले में क्योंकर डारै फाँसी,
दूरदास की मानहु, नहिं तो रोवहु पीर पचासी।
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