March 21, 2022

धर्म मेरी नजर में/2

एक मित्र ने कहा है धर्म व्यक्तिगत भी है और सामूहिक भी और इसकी खिचड़ी न पके तो अच्छा। 
दरअसल धर्म स्वयं में न तो व्यक्तिगत है न ही सामूहिक। धर्म  बस धर्म है।  वह बस है अथवा है ही नहीं। इसे व्यक्तिगत या सामूहिक हम बनाते हैं।
धर्म दरअसल एक ही है और इसके नाम पर जो भी अलग - अलग रूपों में प्रकट और प्रचलित हैं वे दरअसल धर्म की अलग अलग धाराएँ हैं। गंगा न तो व्यक्तिगत है न ही सामूहिक और इसकी धाराएँ कितनी भी अलग क्यों न हों सभी धाराओं में वही पानी प्रवहमान है। मुहाने पर भी गंगा में उसी उत्स की तरंग है, उसी हिमालय की पवित्रता है और उत्स एक है, हिमालय एक है। 
यहाँ सिर्फ लड़ाई इस बात की है कि मेरी धारा का पानी तुम्हारी धारा के पानी से ज्यादा पवित्र है ज्यादा उपयोगी है। कोई कहता है मेरी धारा शाश्वत है, सनातन है, इसकी संजीवनी शक्ति अनुपम है तो कोई अन्य यह कहता है उसकी धारा सबसे ताजा और इसलिए पवित्रता और प्रभावकारिता के हिसाब से उसका पानी ज्यादा असरदार और परिवर्तनकारी है और उनकी ही धारा मनुष्य को स्वर्ग तक बहा ले जाएगी। कोई यह नहीं देख रहा कि सबमें वही प्रांजल जल - प्रवाह है जिसमें श्वेत हिम के सजल हृदय के द्रवित होने की एक ही करुण कथा अहर्निश बह रही है । 
धर्म हृदय की ही कहानी है और सबके हृदय में वही करूणा है वही अनुभूति है जो हमें मनुष्य बनने का प्रमाण पत्र देती है। और कोई प्रमाणपत्र नहीं है जिसके आधार पर मनुष्य- अमनुष्य  की आधारभूत पहचान हो सके। 
धाराएँ इसलिए हैं कि धरातल सर्वत्र एक नहीं है।  मुख्यधारा को बहते रहना है तो यह स्वाभाविक है कि वह अलग अलग धरातल पर विभिन्न मार्ग खोज लेती है और धाराएँ अलग हो जाती हैं । वहाँ की स्थानीय  मिट्टी की गंध, उसका रंग, उसका स्वाद उसमें घुल ही जाता है। पानी में प्रथम दृष्टया फर्क दिखना लाजिमी है लेकिन यह फर्क पानी की उपयोगिता को बढ़ाता ही है। 
अब इस उपयोगिता को लेकर विवाद खड़ा करना धर्म के उत्स को ही नकारना है। 
फिर भी व्यक्तिगत या सामूहिक के बीच एक को चुनना पड़े तो झुकाव व्यक्तिगत की तरफ ही ज्यादा  रहेगा मगर एक शर्त पर- वह यह कि व्यक्ति में विवेक ( कनसांइस) जीवित हो, दृष्टि खुली हो। व्यक्ति अगर विवेकवान होगा तो वह धर्म चुन लेगा और अगर वह मूढ़ होगा तो तथाकथित धर्म उसे चुन लेगा और तब उस व्यक्ति के लिए तथाकथित धर्म एक सामूहिक मामला हो जाएगा। हममें से सभी के लिए धर्म सामूहिक इसलिए है कि धर्म ने हमें चुना है या कहें कि हमने अपने धर्म का चुनाव स्व - विवेक से नहीं किया है। जब यह चुनाव व्यक्तिगत होता है,  स्वनिर्णयानुसार होता है तो यह धर्म होता है और जब धर्म हमें चुन लेता है या कहें कि समूह हमें इसमें शामिल कर लेता है तो यह संगठन मात्र होता है जिसे एक व्यवस्था अथवा पंथ कह सकते हैं । पंथी मतलब एक पंथ के राही। ये सब राही एक ही पथ पर चलेंगे। पंथ का जो भविष्य है वही इन राहगीरों का भविष्य है। जो साथ चलेंगे वे ही पहुँचेंगे और जो साथ नहीं चलेंगे या किसी दूसरे रास्ते से जाएँगे वे सब डूबेंगे - बूड़ेंगे। चूँकि राहगीरों को पता नहीं है कि ये पंथ इन्हें कहाँ किधर ले जाएँगे इसलिए इन्हें भरोसा करना पड़ता है अपने पथ प्रदर्शक का, अपने अवतार, प्रोफेट या ईश्वर पुत्र का। इन्हें विश्वास रखना पड़ता है, ईमान या निष्ठा रखनी पड़ती है कि पथ प्रदर्शक को पूरा पथ मालूम है और मंजिल का भी पता है। अनजान पथ की पूरी यात्रा भरोसे, ईमान और आस्था के बल पर चलती है और मालूम नहीं कभी पूरी हो पाती है या नहीं क्योंकि इस यात्रा की मंजिल इस ग्रह पर नहीं है न ही इस जीवन में है बल्कि  वह स्वर्ग है कहीं आकाश मार्ग में और मृत्यु के बाद, जिसे किसने देखा है किसी को नहीं मालूम । लेकिन समूह में सभी चले जा रहे हैं, सिर्फ भरोसे पर । यही सामूहिकता धर्म को पंथ बनाती है जिसमें विवेक के उपयोग की गुंजाइश कम बचती है, बस आदेश या मार्गदर्शन के अनुसार चलना पड़ता है वह भी एक महालोभ - लालच में कि स्वर्ग मिलेगा, अनंत ऐश्वर्य सुख - भोग मिलेगा। बीच में थोड़ी शंका होती है तो राहगीर अपनी झोली में रखी ग्रंथ - गुटिका के पन्ने पलटकर इस आश्वासन या कमिटमेंट की पुनर्पुष्टि  भी कर लेता है । अगले पड़ाव की खोज के लिए भी पन्नों में झांकना पड़ता है लेकिन अपनी  दृष्टि - शक्ति या विवेक  से रास्ता तलाशने की कोई गुंजाइश ही नहीं रहती। यहाँ पन्ने ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं और जीवित विवेकशीलता का कोई मूल्य नहीं होता । फलतः करोड़ों अंधे झुंड में कितने भी चलें, क्या वे देख पाएँगे ? दस अंधे मिलकर देख सकते हैं? एक बड़ा सवाल है यह। आज भी देखा देखी में इतने पंथ, गुरू, पीर - पैगंबर, अवतार पैदा होते जा रहे हैं और पीछे इतनी बड़ी भीड़। यह दुनिया सचमुच मूढ़ों से भरी - पड़ी है। कोई एक महामूढ दस - बीस ग्रंथों का रट्टा लगाकर अपने धर्म - मजहब के पक्ष में दलील देना शुरू कर देता है और उनके चारों ओर खड़े मूढों की मंडली जयजयकार करती हुई अपने को धन्य मानने लगती है कि दुनिया सर्वश्रेष्ठ धर्म और ज्ञान उन्हीं के पास है। किसी को अपनी प्राचीनता पर गर्व है कि हम कितने पुराने धर्म है, दस हजार साल पुराना। इनकी हिम्मत और बढ़ जाए तो ये कहेंगे कि डायनोसोर भी उनके ही धर्म में पैदा हुए थे। ठीक वैसे ही दूसरा कहता है -  हम तो धर्म का 'लेटेस्ट एडीशन' हैं बिल्कुल 'लेटेस्ट वर्जन'। ये दोनों तरह के लोग मानसिक रूप से रोगी हैं। जो खुद को पुराना कह रहे हैं वे अपनी किताबों में आधुनिक विज्ञान के बीज ढूंढने में लगे हैं, पुष्पक विमान और प्लास्टिक सर्जरी ढूंढ रहे हैं और जो लेटेस्ट हैं वे अपनी किताब में एम्ब्रायोलोजी और खगोलशास्त्र ढूंढ रहे हैं । ये क्या पागलपन है ? सच्चाई यह है कि ये जो लेटेस्ट वाले धर्म हैं उनकी किताब में वर्णित बातें और स्थापनाएं  बहुत आदिम युग की लगती हैं। आधुनिक समय में उनकी प्रासंगिकता बिल्कुल खत्म है इसलिए इनके लोग भी पुराने धर्म के वकीलों की तरह उसमें वैज्ञानिक पहलू की खोज में लगे रहते हैं । वेद, कुरान, बाइबिल आदि में विज्ञान के तत्व आखिर ढूंढे ही क्यों जाते हैं उसका सिर्फ एक कारण है कि उनकी प्रासंगिकता बनी रहे, उसे खींचकर अगली सदी तक पहुँचाया जा सके। ये सब करनेवाले लोगों का वर्ग बिल्कुल अलग है। पंडित,  मुल्ला,  पादरी ये तीन वर्ग हैं जो इसके व्याख्याता हैं और बार - बार अपनी पद - प्रतिष्ठा और महत्ता बरक़रार रखने के लिए धर्म में विज्ञान ढूँढते रहते हैं। 
सच्चाई यह है कि धर्म और विज्ञान मानवीय चेतना या चिंतन की बिल्कुल दो भिन्न धाराएँ हैं। विज्ञान का न तो धर्म- सम्मत होना संभव है न ही धर्म का विज्ञान - सम्मत होना संभव है । धर्म की उड़ान का तल विज्ञान की यात्रा के तल से बिल्कुल भिन्न है। जब हम ऐसा कहते या सोचते हैं तो यह ध्यान में रखना जरूरी है कि जीवन और जगत में जो अवैज्ञानिक  है इसका अर्थ यह नहीं कि वह विज्ञानविरोधी है बल्कि ऐसा भी हो सकता है कि वह विज्ञान से परे हो। धर्म जीवन का अवैज्ञानिक तत्व है जिसे विज्ञान के टूल से आत्मसात नहीं किया जा सकता। परोक्ष की जिज्ञासा धर्म को जन्म देती है और विज्ञान प्रत्यक्ष के रहस्य की जिज्ञासा की उपज है। दोनों के 'रील्म' बिल्कुल अलग हैं। मनुष्य जितना जानने की घोषणा करता है वह विज्ञान है और जानने के संदर्भ में जितनी पंगुता अनुभव करता है वही धर्म है। धर्म के मूल में रहस्यवाद है और विज्ञान के मूल में यथार्थ है।  

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