स्मृतियों के अनूठे कवि : गणेश गनी


एक दिन सब ऋतुएं / उमड़कर किताबों में समा गईं / उस दिन लगा/ किताबों में भी बसते हैं मौसम/ किताबें खोलीं तो देखा / बादल धो रहे हैं अपराधों के दाग / लाल पंखोंवाली चिड़िया / आकाशवर्णी अंडों को से रही है / सीलन भरी दीवारों से एक कनखजूरा / बाहर आ रहा है धीमे – धीमे / यानि कि ऋतु फिर बदल रही है”

किताबों में बसते मौसम, बादल के अपराधों के दाग, लाल पंखोंवाली चिड़िया, आकाशवर्णी अंडे, सीलन भरी दीवार और अंत में वह मंदगति कनखजूरा...क्षण – भर में बात कहाँ से कहाँ पहुँच गई। कवि – दृष्टि तितली की तरह उड़ी और  उड़- उड़कर  एक के बाद दूसरे बिंब – पुष्प को जैसे छूकर वापस आ गई। इस तरह दृश्य- निर्मिति का एक वर्तुल पूरा हो गया। 

गनी की कविता में ऐसे वर्तुल अक्सर आते हैं जिनमें दृश्य तेज़ी से बदलते हैं क्योंकि बिंब तेजी से बदलते हैं और बड़ी सघनता से एक के बाद दूसरे आते चलते हैं। इसलिए उनकी कविता या उसकी बिंबधर्मिता पर लिखना आसान नहीं । ऐसा नहीं है कि उनकी कविता जटिल है बल्कि ऐसा इसलिए है कि वह कठिन है ठीक वैसे ही जैसे पहाड़ी जीवन कठिन होता है लेकिन वह जटिल नहीं होता।  फिर जटिल कविता को समझना, उसकी गुत्थियों को सुलझाना आसान है परन्तु कठिन को समझना आसान नहीं होता।

कविता में ऋतु बदलने की आहट जब कनखजूरा देने लगे तो समझ लेना चाहिए कि कवि के लिए वह प्रत्येक चीज महत्वपूर्ण है जो कथ्य के ‘गुरुत्व’ को ढो सके और बदलाव को गहरे में महसूस करा सके। यह इशारा है कि कवि गनी परिवर्तन को सूक्ष्मता से पकड़ते हैं और उसे चिन्हित करने के लिए वैसा कोई भी कोना नहीं छोड़ते जो निरीक्षण के दौरान अक्सर छूट ही जाते हैं चाहे वह सीलन भरी दीवार ही क्यों न हो। सीलन भरी दीवार एक बहुप्रयुक्त बिंब है और कोई नया बिंब नहीं है लेकिन कनखजूरे को उस दीवार से धीमे – धीमे चलकर बाहर आते देखने में एक नई बात तो अवश्य दिखती है। ऋतु- परिवर्तन भी कोई नई बात नहीं परन्तु इसकी सूचना का वाहक कनखूजरा भी है, यह कवि की अपनी खोज है। 

यही नहीं, हिमपात के बाद सुखद दिन की उम्मीद की यात्रा भी एक ऐसे अंदाज में शुरू होती है जिसे गनी जैसे कवि ही रेखांकित कर सकते हैं जिनके पास अपने आस-पास के जीवन की बारीकियों का भरा – पूरा अनुभव है, गहरा निरीक्षण है। जहाँ कवि को ये सब  भी  पता हैं कि

 “ केंचुवा अपनी साँसें मिट्टी में रखता है/ बैल अपने खुरों में खेत रखता है/ मछली के गले में नदी बहती है”

वहाँ हिमपात के बाद का दृश्य उनकी नजर से कैसे फिसल सकता है ! प्रत्येक बुरे समय के बाद अच्छे समय की उम्मीद ही जिजीविषा को भी बचा कर रखती है। बर्फ अंततः पिघलती ही है। जीवन की ऊष्मा उस पर प्रभावी हो ही जाती है हाँ थोड़े समय या दिनों के लिए यह ऊष्मा कहीं दबी अवश्य रहती है। उसके गुप्त ठिकानों का पता आम तौर पर नहीं रहता परन्तु समय की धूप आने पर सब कुछ उजागर होता है, ऊष्मा अपने गुप्त ठिकानों से बाहर निकलकर  अपना असर दिखाने लगती है। कवि के लिए यह भाग्य का वसंत की तरह खिलने जैसा है –

हिमपात के बाद / बिल्ली आग के पास बैठी है / कुत्ता सूखे फाहों पर सुस्ता रहा है/ कि क्यों कोई भालू उसके सपनों में नहीं आया / जबकि पहाड़ की कंदरा में  शीतनिद्रा तब टूटेगी / जबतक बाहर बर्फ पिघल जाएगी सारी की सारी/ भाग्य खुलेगा वसंत जैसा।”

हिमपात के बाद ठहरी हुई – सी जिंदगी में हलचल की उम्मीद लिए इतना सजीव चित्रण, वह भी इस छोटी दृश्यावली में, सचमुच अद्भुत है ! इसमें बिल्ली और कुत्ते का व्यवहार और उनकी मनोदशा को देखकर यहाँ नागार्जुन की ‘अकाल और उसके बाद’ का दृश्यावली सामने आ जाती है। 

गनी की कविता में जो भी काठिन्य है वह उसके कथ्य में है। उसके शिल्प में थोड़ी सरलता है। वह सरल शिल्प में कठिन को साधनेवाले कवि हैं। यह साधना ही उनकी कविता के रूप और आत्मा को अंत तक संतुलित रखती है। यहाँ कलासम्पन्नता का फिजूल व्यायाम नहीं है बल्कि अपनी अनुभूति को रचने की ‘जेनुइन’ बेचैनी है। यही बेचैनी कवि को स्मृति की तरफ धकेलती है और फिर स्मृति यथार्थ से जाकर टकराती है। उनकी कविता का यथार्थ बहुधा पहाड़ी जीवन का यथार्थ है जिसमें एक गतिशीलता है और जिसका अपना सौंदर्य है। उसकी  अभिव्यक्ति में प्रयुक्त सघन -अंतर्गुंफित बिंब कहीं-कहीं असंबद्ध प्रतीत होते हैं लेकिन कविता की संरचना में सभी बिंब सार्थक, समर्थ और सटीक हैं। 

तितली की तरह उड़ती उनकी कविता कब - किधर मुड़ जाए, पता नहीं। ऐसा लगता है उनकी कविता के पीछे कोई योजना नहीं रहती बल्कि कविता को यों ही पहाड़ी नदी की तरह बहने के लिए छोड़ दिया जाता है और कवि उसे बस एक अवकाश भर दे देता है । दरअसल यहाँ  कवि स्वयं एक अवकाश है, एक स्पेस है जो कहीं -कहीं छोटे – बड़े शिलाखंडों से खंडित भी है पर कविता उन शिलाखंडों को तोड़ती – फोड़ती आगे निकल जाती है और कवि उसकी रफ्तार और तोड़ – फोड़ की आवाज को भीतर महसूसता रह जाता है।  

उनके  बिंब को पकड़ने का मतलब है, पाठक का चौकन्ना रहना और  कविता के फैलाव को बहुकोणीय दृष्टि से  देखना। इसी फैलाव में उनकी कविता के अभिप्रेत झिलमिलाते हैं, उसकी आत्मा व्यापती है। इस फैलाव को समझ लें तो उनकी कविता के भेद या मूल तक पहुँचने की कठिनाई थोड़ी  कम भी हो जाती है । यह फैलाव बहुधा कवि का आत्म-विस्तार भी हुआ करता है जिससे पता चलता है कवि अपनी काव्य – चेतना को कहाँ तक खींच पाया है। इस अर्थ में गनी की काव्य-चेतना बड़ी विस्तृत मालूम पड़ती है । 

उनकी कविता से गुजरते हुए कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि वह पूरी तरह आत्मोन्मुखी या स्वोन्मुखी कवि हैं। जहाँ कहीं उनकी आत्मोन्मुखता झलकती  भी है तो उसमें समय और समाज की चिंता पूरी स्पष्टता से उभर ही आती है।  जब वह कहते  हैं- “पहाड़ सदमे में है / नदियाँ जड़ हो गई हैं”  तो स्पष्ट है कि कवि अपने आस - पास बिखरे पीड़ानुभूति के गहन क्षणों अथवा  दृश्य – बंधों से गहरे जुड़ा है। पहाड़ जो अविचल या अडिग रहने के भाव का प्रतीक है वह स्वयं सदमे में है और भीतर से विचलित है। नदी जो सतत प्रवाह है उसका जड़ हो जाना एक भयावह दृश्य उपस्थित करता है। प्रकृति के क्षरण में जैसे कवि का कुछ अपना भी क्षरित हुआ जा रहा है। 

उनकी काव्य - चेतना में अनुभूति से अधिक स्मृतियाँ हैं या कहें कि स्मृतियों का एक सघन संसार है। कवि इस संसार से शायद मुक्ति भी नहीं चाहता। वह जहाँ- जिधर जाता है, यह संसार उसे घेर – घेर लेता है। इस घेराव में कहीं घुटन या अवसाद की कोई झीनी रेखा भी नहीं दिखती बल्कि एक पुलक और उत्सव का भाव भरा रहता है। 

स्मृतियाँ, निस्संदेह सभी कवियों को विस्मित- उद्वेलित करती हैं पर यह विस्मय या उद्वेलन कविता में एक ‘यूफोरिक’ भाव का संचार कर दे तो यह निश्चित रूप से कवि या कविता की उपलब्धि मानी जाती है । गनी की कविता दुख और पीड़ा का बयान करती हुई भी ‘कुछ भी नहीं खोया है बल्कि खोने से ज्यादा पाया है’ के भाव की कविता लगती है। मनुष्य के अधोपतन पर रोना, नैतिकता में गिरावट पर बोलना, सत्ता का सीधा प्रतिरोध करना आदि समकालीन कवियों की आदत में शुमार है। वर्तमान को कोसना या यह कहना कि मनुष्य की संवेदना सूखती जा रही है अथवा संवेदनागत सुखाड़ की भयावह अनुभूति आदि प्रतिगामी या हताशा का एक प्रतिसंसार  रचती है। 

रोचक बात यह है कि प्रत्येक युग या कालखंड में ऐसी निराशाजनक स्थिति हमेशा बनी रही है।  मुझे तो लगता है मनुष्य पहले और भी बर्बर, हिंसक और अनैतिक रहा होगा। उसकी संवेदना सरल जरूर रही होगा लेकिन यह सरलता उसे उद्दात्त भावों से भरती होगी यह कहना कठिन है क्योंकि मानवीय गुणों-  - आदर्शों के ऊँचे – ऊँचे मापदंडों अथवा कसौटियों  का इतना प्राचुर्य इतिहास में ऐसे ही नहीं हुआ होगा। इसलिए समकालीन कविता में समकालीन मनुष्यता के प्रति जो असंतुष्टि भाव प्राय: दिखता है वह कहीं न कहीं कमोबेश स्वयं के प्रति ही असंतुष्टि भाव है। समकालीन कवियों में बहुत कम ऐसे कवि हैं जो इस भाव – बोध से मुक्त हैं। उनमें गणेश गनी भी एक हैं । वे स्थिति -  परिस्थिति पर कोई सीधा निर्णय नहीं देते, न ही कविता में कोई समाधान प्रस्तुत करते हैं  बल्कि वह कविता में एक स्थिति निर्मित करते हैं जहाँ पहुँचकर पाठक स्वयं निर्णय कर  सकता है कि जीवन की दिशा क्या है, वह कितनी सही है कितनी गलत है, व्यवस्था में कितनी संगतियाँ हैं और कितनी विसंगतियाँ । कविता की भूमिका यहीं पर खत्म होती है,  और जब वह इससे आगे जाने लगे तो वह कविता नहीं रह पाती बल्कि वह किसी धारणा या विचार का कंधा होने लगती है, वह समाधानी रूप अख्तियार कर लेती है। फिर शुरू होता एक दौर जिसमें मनुष्यता को खंडित करने की तमाम कोशिशें संगठित होने लगती हैं।  वैचारिक क्रांति के नाम पर जीवित मनुष्यता को मारा जाता है। कवि गनी कविता की सीमा जानते हैं, शायद इसलिए किसी धारणा या विचार की परिपुष्टि या स्थापना उनकी कविता में नहीं मिलती।  वह किसी विमर्श के कवि भी बिल्कुल नहीं लगते। इनकी काव्य- चेतना में विचारों का कोई झंझावत नहीं है जिसके आधार पर इनकी कविता का आकलन किया जा सके। बस महसूस – भर होता है कि कवि की संवेदना किस ओर उन्मुख है और वह किस तरह आम जन की संवेदना से ‘कनेक्ट’ भी हो जाती है। इस ‘कनेक्ट’ को वह हमेशा पकड़कर रखना चाहता है, कभी खोना नहीं चाहता ।

उनकी कविता की एक महत्वपूर्ण धुरी है स्मृति जिसे देखकर लगता है कि वे स्मृतियों के कवि हैं और उनके पास कहने के लिए स्मृतियों का एक पूरा संसार है। अनुभूति उनके यहाँ स्मृति की अनुगामिनी है और स्मृति के प्रभाव या ‘रीफ्लेक्शन’ के रूप में प्रकट होती है। 

चूँकि स्मृतियाँ रचनाशीलता को एक कथात्मकता देती है। स्मृतियाँ हमें दरअसल कथात्मक बना ही देती हैं । कथात्मक होने का मतलब है कि हम स्मृतियों को रचने लगते हैं। गनी भी स्मृतियों को रचते हैं। स्मृतियों को रचने से हमारा ‘क्षरण’ होने से बच पाता है। स्मृतियों की निरंतरता ही जीवन और जगत् को बचाए रखती है क्योंकि स्मृतियाँ स्वभावतः  सेतुधर्मिणी होती हैं। वे अतीत और वर्तमान के बीच की आवाजाही की जरिया हुआ करती हैं। जीवन में जो भी सेतुधर्मी तत्व हैं वे सदा श्रेष्ठतर जगत् की निर्मिति में सहायक होते हैं। 

गनी की कविता में स्मृतियों को इतनी प्रधान होते देखने का अर्थ है कि कवि की चेतना भी सेतुधर्मिणी है। वह सिर्फ वर्तमान की जमीन पर खड़े होकर या पूरी तरह अतीत से कटकर जीना नहीं चाहते बल्कि वह बेहतर और संतुलित भविष्य के लिए अतीत और वर्तमान के बीच के सेतु पर रहकर समय का मूल्यांकन करना चाहते हैं । इस दृष्टि से गनी की कविता समय के मूल्यांकन की कविता भी है जिसमें स्मृति की बड़ी भूमिका बन पड़ी है।  

उनकी कविता प्रधानतया कविता के शिल्प में कथा ही है। वह कहते भी हैं –

“यह समय है विश्राम का/ झरने का मीठा पानी पीकर सुस्ताने का / तरोताजा होने का समय है यह / अभी यह समय तो कथाएँ ओढ़ने का है/ कविताएँ बिछाने का है/ लेटकर किस्से सुनाने का है”  

- तो यह साफ है कि उनके पास कहने के लिए जो भी है उसके लिए किसी कथावस्तु जैसा बड़ा और बहुवर्णी  फलक होना एक आवश्यकता है। इस बड़े कथात्मक फलक पर भी वे कविता को कविता बनाए रख पाते हैं, यह सचमुच कठिन काव्य – कौशल है। यही कौशल उसके कठिन कवि को कथाकार होने से बचा भी लेता है। एक अर्थ में वे कविता और कथा के बीच  संवेदनात्मक संतुलन की खोज के कवि हैं । उनकी कविताओं में इस खोज की कोशिशों को चिन्हित किया जा सकता है। । 

गनी की कविता में प्रवेश के पहले एक बात ध्यान में रखना निहायत जरूरी है कि स्मृतियों की बुनावट या उनका ताना – बाना सदैव एक – सा नहीं रहता। इसका सीधा संबंध उस इलाके से रहता ही है जिसके सामाजिक पर्यावरण अथवा जहाँ के पारिस्थितिक भूगोल में कवि के दिन गुजरे हैं या गुजर रहे होते हैं। जीवन के उत्तरार्ध में कवि कहीं और क्यों न रहता हो वे दिन कभी उसका पीछा नहीं छोड़ते। उसे कहना ही पड़ता है -  

समय की रेत जीवन की मुट्ठी से / धीरे-धीरे फिसल रही है/ अब चाहता हूँ/ गमलों में जंगल बसाना / और एक्वेरियम में सागर सजाना।" 

शहर की ओर पलायन अब कोई अस्वाभाविक बात नहीं है। इसे मैं पलायन नहीं मानता क्योंकि यह जीवन के संघर्ष से पलायन बिल्कुल नहीं है बल्कि इसमें तो मनुष्य और भी बड़े संघर्ष के खतरे उठाने को तैयार हो जाता है। यह पलायन नहीं, बल्कि नए अवसर की तलाश में शुरू की गई एक यात्रा है जिसका अंत अपने हाथ में नहीं रहता। गाँव को और बेहतर बुनियादी सुविधासम्पन्न जगह बना भी दिया जाता और स्थानीय तौर पर रोजगार के पर्याप्त अवसर पैदा भी कर दिए जाते तो भी गाँव के उजड़ने या गाँव से बिछुड़ने का सिलसिला शायद ही रुकता। मनुष्य का स्वभाव है कि वह जहाँ है वहाँ से संतुष्ट नहीं है। सभ्यता का शाश्वत नियम विकास और शहरीकरण की अवधारणा से परे नहीं है। ग्रामीण सभ्यता का विघटन उसकी स्वाभाविक नियति है। दरअसल यह विघटन नहीं सभ्यता का रूपांतरण है। इस रूपांतरण की स्मृतियाँ हमें बार – बार पीछे ले जाती हैं तभी हम थोड़ा आगे भी बढ़ पाते हैं।  

रोज़ी- रोटी और सपनों के लिए अपनी मिट्टी, अपना देस छोड़कर जाना पलायन कैसे हो सकता है ? यह मजबूरी हो सकती है या सपने के लिए ठानी गई  उड़ान हो सकती है। दूसरी बात, जिस शहर की हवा पानी सड़क और अन्य सुविधाओं को लोग जमकर भोगते हैं उसे ही जमकर कोसते भी हैं। हो सकता है जो सोचकर लोग शहर आते हैं वह उन्हें यहाँ हासिल नहीं हुआ, न ही कुछ वैसा दिखा भी। शहर आने का मतलब होता है गाँव में अपना बहुत कुछ छोड़कर आना। आदमी जबतक शहर नहीं पहुँचता या रास्ते में रहता है उसे यह छोड़ने जैसा ही लगता है। जब वह शहर पहुँचकर शहर में खो जाता है तो उसे लगता है उसने गाँव छोड़ा नहीं बल्कि गाँव गँवाया है। पिता के साथ कवि को भले ही शहर आना पड़ा लेकिन कवि को इसमें बहुत कुछ गँवाना पड़ा –

“ तंग आँगन के वृक्ष/ और छत की मुंडेर पर नर / बैठी चिड़ियोंको चहकता छोड़/ और तुझे रोता छोड़/ बाबा का हाथ थामे मैं/ निकल पड़ा था इस बार शहर की ओर/ मुड़कर नहीं देखा फिर घर की ओर।” 

यह सब उन दिनों की थाती है जब रोटी या पढ़- लिखकर आदमी बनने की चिंता नहीं सताती थी । 

 लेकिन अब गाँव में ही क्या है, कौन से लोग बचे हैं। कवि को इसका बहुत ख्याल है। तभी तो वह कहते हैं – 

“घरों और छतों की गलियाँ/ सूनी होने लगी हैं/ अब गाँव में बच्चोंकी संख्या/ धीरे-धीरे कम होने लगी है”। 

 बच्चे संख्या में कम होने लगे हैं, यह पुनः एक शोचनीय खबर है। ऐसे में बाबा जब गाँव जाएँगे तो वे उदास ही लौटेंगे – 

जब भी बाबा जाते गाँव/ आँगन बुहारते और सूखे पत्ते यादों के / स्मृतियों के जाले हटाते/ होकर उदास लौट आते।”

जब कवि को लगता है कि ऐसे दिनों ने पीछा छोड़ दिया है तो एक उल्टी प्रक्रिया आरंभ होती है जो बिल्कुल रचनात्मक होती है। स्मृतियों की कविता इसी रचनात्मक प्रक्रिया का प्रतिफलन होती है। लिहाजा कवि भी उन दिनों का उसका पीछा करने लगता है -  

याद करना चाहता हूँ/ उस पगडंडियों की महक को/ जब भेंड़ लादे पीठ पर अपनी / नमक और कणक लाती”।

परन्तु पहाड़ों में पलने -बढनेवाला व्यक्ति स्मृतियों के पीछे उस तरह नहीं भागता जिस तरह मैदानों और मरुस्थलों में पैदा हुआ कवि भागता है।  मैदानी इलाकों की कविताओं में स्मृतियों का एक सपाट विस्तार रहता है। उसमें नमी हमेशा बनी रहती है बिल्कुल वहाँ फैली जलोढ़ मिट्टी की तरह। यह नमी  मरुजात स्मृतियों में थोड़ी कम रहती है।  पहाड़ी इलाकों की कविताओं में स्मृतियों में मंद - तीव्र कई चढ़ती- उतरती ढलानें रहती हैं जिनमें ऊपर की तरफ ऊंचे – ऊँचे शिखर होते है जहाँ से ऊपर कुछ भी ऐसा नहीं होता जिसकी जड़ें जमीन में हों परन्तु उन ढलानों के नीचे घाटियों में वही गहराई होती है जिसे देख हमारी नाभि में एक क्षण के लिए जैसे कुछ अचानक कौंध उठता है। 

पहाड़ों से जुडी स्मृतियाँ  पहाड़ी जीवन की सारी कठिनाइयों और उसके सौंदर्य को समेटे रहती है ।  आदमी के जीवन में स्मृतियां भी कई रोमांचक एहसास दे जाती हैं। इसलिए पहाड़ी  जीवन और प्रकृति की कई  स्मृतियाँ रोमांचक होकर गणेश गनी की कविताओं में उतर आएँ तो इसमें मेरे लिए कुछ रोमांचक जैसा नहीं होगा । यह अपेक्षित है। गनी रोमांचक स्मृतियों के स्वाभाविक कवि हैं। पहाड़ उनके लिए सिर्फ पत्थरों की ऊँचाई या झरनों का कंधा नहीं है, न ही किसी महत्वाकांक्षा का उठता हुआ कोई शिखरधारी व्यक्तित्व है बल्कि उनके लिए वह उनके जीवन का हिस्सा है। 

फलों के बागान, नदी, झरने, झील को अपनी बाँहों के घेरे में समेटे, पशु – पक्षियों की हलचल से अनुप्राणित पहाड़ अपने पत्थर होने का एहसास तक नहीं होने देते वरन् हमेशा एक गतिशील जीवन का आभास कराते रहते हैं ।  बर्फ, जंगल, तेज - तंग पगडंडियाँ, भेड़- बकरियाँ, बादल, देव – राक्षस आदि ऐसी कई चीजें हैं जिनके बिना पहाड़ी जीवन की विभूति को रच पाना असंभव है। कवि इस जीवन की संपदा से को भोग चुका है। पहाड़ से पेड़ या बर्फ गायब हो रहे हैं। वह कहते हैं- ‘क्योंकि पहाड़ से पेड़ ही नहीं, बर्फ भी चुरा ली गई है” । यहाँ कवि ने सिर्फ दो पंक्तियों में आधुनिक विकास की त्रासदी की पूरी कथा लिख दी है। इसमें आधुनिक ममनुष्यता की अनैतिक वृति की सीधी घोषणा नहीं है बल्कि उसकी एक भनक है जो कहीं नेपथ्य से आती मालूम पड़ती है। यही है काव्य – कौशल कि जब एक साथ दसियों बातें कहनी हों तो उनमें कौन सी एक - दो बातें होंगी जिन्हें  सामने लाकर शेष सभी बातों के भेद अपने आप खुलते चले जाएँ । 

कुछ ऐसे ही भेद इन पंक्तियों में भी खुले हैं – 

आपके तेज तेज चलने से ही/ देश का विकास रफ्तार पकड़ लेता है/ ..../ जहाज़ के दरवाजे पर खड़े होकर/ दाहिना हाथ ऊपर उठाकर / ज़ोर- ज़ोर हिलाने -भर से / दरिद्रता के बादल छँट जाते हैं” 

यहाँ दाहिना हाथ ऊपर उठाने का मतलब क्या है यह बहस का विषय हो सकता है परन्तु इसमें  जैसे एक छोटा – सा ‘सीन’ रखा गया है जो किसी बड़े सीन का हिस्सा लगता है  जिसकी तरफ  कवि का इशारा बिलकुल साफ है। कवि चाहता तो वह बृहत्तर दृश्य दिखा सकता था क्योंकि उनके पास शब्दों की कोई कमी है, ऐसा नहीं लगता। इस वृहत्तर सीन पर बड़ी बड़ी अभिधाएं या रूपवादी वृहत्कथाएं अन्यत्र  रची भी जा रही हैं परन्तु उनमें कविता कितनी है और कितनी अकविता, यह देखने लायक बात है । गनी जानते हैं कि ‘संपूर्ण’ का कौन- सा दृश्य- खंड पकड़ा जाए कि उसका ‘अखंड’ स्वयं दिखने लगे। इसलिए इन दृश्य – खंडों में द्रष्टव्य पूरी तीव्रता से उभारे जाते हैं, अति संक्षिप्त समय में समय के बड़े विस्तार को समेटा जाता है। 

गनी की कविता में जो स्मृति और किस्सागोई का विस्तार है उसमें एक महत्वपूर्ण बात है वह है आम आदमी या जन के प्रति संवेदना। कवि स्मृतियों को रचते हुए आम आदमी की संवेदना भी रचने लगता है।   उसमें श्रमशील आहत – अभावग्रस्त आबादी की मजबूरी और पीड़ा  बोल उठती है । कई ऐसी  कविताएँ  हैं जिनमें हलवाहे, गड़रिया, खानगीर, चिरानी आदि के जीवन के दुख या पीड़ा को आवाज मिली है। बेबस, लाचार लोगों का असली दुख या डर धरती पर पैदा नहीं होता बल्कि वह आकाश से गिरता है –

“जब वे डर रहे थे भीगने से और छिप रहे थे छज्जे के नीचे/ ठीक उसी वक्त बाज उड़ रहे थे बादलों के ऊपर” 

कवि की संवेदना समाज के वंचित लोगों के पक्ष में बड़ी मजबूती से खड़ी होती है। भूखे बच्चों, संतप्त माओं और आक्रोशित पिताओं की मनोदशा सरकारी रिकॉर्ड या आँकड़ों में कहीं दर्ज़ होती नहीं सकतीं, ऐसी स्थितिगत असमर्थता या असफलता पर कवि की बेचैनी साफ दिखती है जो – “लालकिले के दस्तावेजों में/  दर्ज नहीं हो सकतीं”। खेतों से रोटी तक के सफर को कवि ने जिस बेबाकी, भाषा के पैनापन और तंज के लहजे में लिखा है उससे धूमिल की याद आ जाती है – 

खेतों से रोटी तक का रास्ता/ गुजरता है संसद भवन से केवल / वहीं पर होता है फैसला/ फाकामस्ती और खाऊचक्कियों के बीच का”

 मैंने पहले भी कहा है कि गनी की कविता में विचार  या विचार -धारा ( इडियॅलॅजी) का प्रसार नहीं है लेकिन वहाँ विचारशीलता अर्थात् थाउटफुलनेस पर्याप्त स्तर पर है।  उनकी जनधर्मिता इसी थाउटफुलनेस से संचालित होती है जिसमें विवेक और संवेदना की बड़ी भूमिका है। ऐसा लगता है वह विचारते हुए कविता नहीं करते बल्कि कविता करते हुए विचारते हैं और विचारते हुए इस बात का ख्याल भी बना रहता है कि कविता पहले है, अनुभूति प्राथमिक है और विचारणा उसके बाद है, वैचारिक निर्मिति  द्वितीयक है । ऐसा लगता है, जनता या आम जन के दुख या पीड़ा को किसी वैचारिकी के अक्ष पर रखकर व्याख्यायित करना उनकी चेतना में शायद नहीं है। यहाँ असली चिंता यह लगती है कि इस दुख – पीड़ा को उछालना ज्यादा जरूरी है, दबी हुई जिंदगी के दर्द को उभारकर उसे  महसूस कराना या सुनाना उनकी आधारभूत काव्य – प्रक्रिया लगती है। इसलिए उनकी कविता में शोर या हल्लाबोल कम है क्योंकि हंगामा खड़ा करना उनका मकसद है, ऐसा नहीं लगता।  हाशिए पर धकेल दिए गए लोगों चाहे वे किसी जाति, मजहब या वर्ग के हों, के जीवन या उसकी हताशा – निराशा और संघर्ष को कवि बस आवाज देना चाहता है। 

उनकी कविता का संघर्ष अनुभूति के स्तर पर है और संवेदना की सीमा में है। यह स्तर या सीमा लांघकर उनकी कविता नारेबाजी या खूनी संघर्ष के इलाके में कभी नहीं जाती। इसे कुछ लोग जनपक्षधरता या प्रगतिशीलता के प्रति  एक ‘सेलेक्टिव या कैलकुलेटेड अप्रोच’ कहकर  खारिज कर सकते हैं। परन्तु गनी की जनपक्षधरता या प्रगतिशीलता का मतलब किसी विचारधारा के लिए प्रतिबद्धता बिलकुल नहीं है न ही उसकी स्थापना या उसके निमित्त संघर्ष का कोई ब्लूप्रिंट खींचना है। उनके लिए प्रगतिशीलता का मतलब कुल इतना है कि समकालीन जीवन को समकालीन संदर्भ में देखा जाए। पिछले दो दशकों में बाजार – शक्ति ने तकनीकी के बल पर इतने परिवर्तन लाए हैं, जीवन में वैचारिक स्तर पर एक दिशाहीनता भी आई है। मनुष्यता चौराहे पर है और गंतव्य का कुछ पता ही नहीं है। रोल – मॉडल या मूल्य – मापदंड सभी बेमानी होते जा रहे हैं। जीवन के प्रति सोच में एक बुनियादी बदलाव आया है। कवि इन बदलावों के प्रति बहुत सजग भी है। बदलाव के नए सुर साधने में हाड़ - तोड़ मिहनत करनेवाले खानगीर और चिरानी भी अब पीछे  नहीं। जरूरत है इस सुर को पहचानने की, पकड़ने की – 

खानगीर पत्थर पर घन मारते – मारते/ घन की आआवाज में एक नया सुर साध रहा है/ चिरानी स्लीपर चीरते – चीरते / आरी की आवाज में/ एक नई हरकत डाल रहा है”

 नए सुर और नई हरकत का सूक्ष्म निरीक्षण करने वाले कवि की असली चिंता परिवर्तन की चेतना को अनुभूतिपरक संवेदना में ढालने भर की है परन्तु समकालीन हिंदी कविता में ऐसे कवि अधिकतर हाशिए पर डाल दिए जाते हैं। 

बड़ी विडम्बना है आज जो कवि मनुष्यता को खण्डित होने से बचाना चाहता है, जो सेतु बनकर किनारों को जोड़ना चाहता है, उसे यथास्थितिवादी करार दिया जाता है और जो खूनी संघर्ष की बात करता है, कविता को हथियार अथवा वर्ग आधारित  न्याय या सशक्तीकरण का औजार समझता है, उसे प्रगतिशील मूल्यों का वाहक माना जाता है।  

कवि गनी इस चालू ट्रेंड या परिपाटी से अलग कवि लगते हैं। उनका प्रतिरोध या संघर्ष इतना ही है कि वे मुद्दों को बड़ी संवेदना से उठाते हैं चाहे उनमें सत्ताधारी इंद्रों के विरोध की ही बात क्यों न हो।  इस विरोध में वह गाँधीवादी तौर – तरीकों के आस – पास डोलते दिखते हैं। वह दबे – कुचलों, शोषितों – वंचितों या श्रमशील आबादी  के दुख – दर्द को बख़ूबी रेखांकित तो करते हैं लेकिन केवल इस रेखांकन के आधार पर उन्हें मार्क्सवादी  सौंदर्य – बोध का  कवि कहना शायद परिपक्व निष्कर्ष नहीं होगा। 

मुक्ति का रास्ता अहिंसक या शांतिपूर्ण आंदोलन हो सकता है,  सत्ता कितनी भी क्रूर और विराट हो, उसका विरोध किया जा सकता है, जल में रहकर मगरमच्छ को चुनौती दी जा सकती है, जन – संघर्ष में प्रत्येक छोटे से छोटे की सहभागिता सुनिश्चित कर अर्जित मुक्ति में सबकी बराबर की हिस्सेदारी की बात की जा सकती है। इन्हीं मूल्यों में कवि की आस्था है, संघर्ष के इन्हीं तरीकों पर भरोसा भी है, ऐसा लगता है। जंगल में युवा मकड़ी के चल रहे संबोधन से स्पष्ट है कि शेर को वश में करने के लिए सब मकड़ियों को एक होना ही पड़ेगा। इसमें एक व्यंग्य भी है और समय की माँग भी है। एक बार बस अंधेरा अपनी आत्मकथा लिखने को बैठ जाए तो उसमें उन सारे काले चेहरों की चाल और चरित्र के रहस्य का अंततः  टूटना बिल्कुल तय है। एक अर्थ में गनी की कविता स्मृति में अहर्निश आश्वस्ति की भी कविता है।  □□□      

                                 -   दिलीप दर्श 

 


 

 


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