विध्वंस

विध्वंस / दिलीप दर्श 
सरजुग बाबू नहीं रहे लेकिन गाँव  में उनके नाम पर एक आदमकद प्रतिमा जरूर रह गई थी, गाँव  के बाहर एक चौराहे पर। उनकी जन्मतिथि और पुण्यतिथि पर साल में कम से कम दो बार लोग प्रतिमा के सामने इकट्ठे होते और उसे धूप – दीप दिखाकर फूल – माला अर्पित करते थे। बाकी दिन प्रतिमा के रूप में सरजुग बाबू उस सुनसान चौराहे पर अकेले खड़े रहते थे, गाँव  की ओर मुस्कुराते हुए एक टक देखते रहते...! 

जब से उस चौराहे पर, वित्तीय साक्षरता के एक समर्पित ग्रामीण कार्यकर्ता की हत्या हुई  थी, उधर लोगों का आना - जाना  बहुत कम हो गया था। 

कहते हैं, उस वारदात के तुरत बाद पहुँची पुलिस को जब गवाह नहीं मिल रहा था, अपने जवान बेटे की खून से लथपथ लाश से लिपटकर रोती – चीखती बेबस बूढ़ी माँ प्रतिमा से गुहार लगा रही  थी, “ कोई कुछ नहीं बोल रहा सरजुग बाबू , तुम तो देखे हो न ? अब तो बता दो उस राच्छस का नाम...!  

पुलिस ने कहा था, “ पागल हो गई है बुढ़िया !” 

लेकिन समय सब घाव भर देता है। पिछले पाँच सालों में बहुत कुछ बदला है। 

चौराहे पर अब सिर्फ वह प्रतिमा ही नहीं है। उसके चारों ओर सड़क के नीचे कई छोटी – छोटी दुकानें खुल गई हैं। गाड़ियों की आवाजाही और लोगों की चहल– पहल भी बढ़ गई है। साथ ही बढ़ गया है सड़क पर धूल का उड़ना भी।

यह प्रतिमा रोज इस धूल में नहाती है। इसपर रोज धूल की नई परत चढ़ जाती है। नख से शिख तक धूल – धूसरित सरजुग बाबू को पहचानना थोड़ा मुश्किल होता है। प्रतिमा के पैरों के नीचे एक काली पट्टी पर सफेद अक्षर में लिखा उनके नाम पर सूखा गोबर लटका है, शायद किसी अवारा गाय – भैंस ने कभी इस पर...। सिर्फ नाक ही दिखती है। यह ऊँची – खड़ी नाक ही बताती है कि यह सरजुग बाबू की प्रतिमा है। 

वह सचमुच धरती- पुत्र थे, जबतक धरती पर जीवित चल – फिर रहे थे, यहाँ की गोबर,  मिट्टी – धूल भी उन्हें बहुत खींचती थी, अब जब वह नहीं रहे, सिर्फ उनकी प्रतिमा रही तो वह गोबर, मिट्टी – धूल को हर क्षण अपनी तरफ खींच रहे हैं तो इसमें अचरज क्या है ! 

अचरज तो इस बात में है लोग उन्हें इतनी जल्दी भूल गए ! 

अब कोई फूल – माला नहीं, कोई धूप – दीप नहीं, साल में एक बार भी नहीं। हाँ, लोग इतना जरूर कहते हैं कि जबतक इस चौक का नाम सरजुग बाबू चौक रहेगा, तबतक उनका नाम जरूर रहेगा।

...लेकिन चौक का नाम सरजुग बाबू चौक रहेगा तब तो ? 

पांच साल बाद अब गाँव  में एक नए तरह का बौद्धिक घमासान जारी है। विकास मतलब पुराने के ऊपर नए का निर्माण ही तो है !

नया हाई स्कूल, नया अस्पताल, नया पंचायत भवन, नया वाचनालय – पुस्तकालय, नए शौचालय, कंप्यूटर साक्षरता केन्द्र, नई सड़कें, नए चौक -चौराहे.., वाजिब ही है कि विकास और उपलब्धि के इतने सारे प्रतिमानों – प्रतीकों के  नाम भी नए होने चाहिए। पुराने नाम से अथवा बिना नाम के, नई पहचान मिलेगी क्या ? 

इसलिए नये -पुराने सभी नामों पर विचार -पुनर्विचार हो रहा है। कौन – सा नाम हटाएँ और कौन – सा सटाएँ, तय करना मुश्किल हो रहा था। कुछ लोग कह रहे थे, “ कुछ मुश्किल नहीं है, यहाँ तो अब कर्त्ता -धर्ता सब के मन में ही खोट है। सरजुग बाबू आज होते तो आम सहमति कब की बन गई होती।” यही नहीं, प्रत्येक  नाम की वकालत के लिए नामधारियों के मुखर - दबंग बेटे – पोते हैं। इनमें नवोदित पदधारी लोग जैसे वार्ड -सदस्य, पंचायत समिति - सदस्य,  किसी पार्टी का झंडा ढोनेवाला, भूतपूर्व सरपंच... तो हैं ही, कुछ पुश्तैनी रक्तधारी जैसे पुराने मरड़ परिवार की  नई बहुगुणित- सुविस्तृत पीढ़ी आदि भी है।

सुनने में आया कि कल से संतमत सत्संग मंदिर के दासजी भी अपने गुरुमहाराज का नाम लेकर अभ्यर्थियों की कतार में खड़े हो गए हैं। किसी ने यह भी याद दिलाया , “सबसे अच्छा उस कवि का नाम होगा, कवि समदरसी जी...”। 

इतना ही नहीं, बहस इस पर भी जारी थी कि भवन, सड़क या चौक के लिए कौन – सा नाम उपयुक्त होगा। सुंदर शर्मा बोल रहा था, “ सरजुग बाबू सार्वजनिक शौचालय कैसा रहेगा लालजी बाबू ?” 

जवाब में लालजी बाबू ने कहा था, “ यह वैसा ही रहेगा जैसा आपके हिसाब से छेदी शर्मा कम्प्यूटर साक्षरता केन्द्र रहेगा”। छेदी शर्मा सुंदर का बाप था। सुनकर सुंदर को पता ही नहीं चला कि लालजी बाबू ने जो कहा, खुश होकर कहा कि नाराज होकर लेकिन उसे जरूर थोड़ी तसल्ली हुई ।

इतनी कम और छोटी रिक्तियों के लिए इतने सारे बड़े - बड़े नाम ? 

...लेकिन सरजुग बाबू का नाम लेनेवाला कोई है तो बस दो ही हैं, एक शंभुनाथ उनका पोता और दूसरा, लालजी सहनी, पेशे से पत्रकार। 

शंभुनाथ के मुँह में न दाँत है और न ही पेट में आँत, बेपेंदा लोटा, लुढ़ककर कभी इधर कभी उधर, समाज में अपनी कोई पहचान नहीं। जिसकी अपनी ही कोई पहचान नहीं वह अपने पुरखे को क्या पहचान दिलाएगा और अगर पहले से कोई पहचान हो भी तो उसे वह उसे बनाए रख पाएगा क्या ? अब तो जमाना भी गया जब बाप – दादा के नाम पर  थोड़ी – बहुत पूछ हो जाती थी।  

लालजी गाँव  का सबसे पढा – लिखा व्यक्ति था। समाजशास्त्र पर उसकी डिग्री थी। बचपन से ही वह सरजुग बाबू के विचार और सामाजिक कार्यों के कायल था। पत्रकारिता के साथ – साथ गाँव  – समाज की सेवा को भी अपना जीवन – धर्म का हिस्सा समझता था। सरजुग बाबू के निधन पर उसने एक स्थानीय अखबार में जो भावपूर्ण और तथ्यपरक लेख लिखा था उसे लोगों ने बहुत सराहा था। लेकिन उनके जाने के बाद वह अकेला रह गया था। 

उधर शंभुनाथ को गाँव  में नाम को लेकर चल रही खींच -तान अथवा उठा – पटक में न कोई पूछता था और न ही वह इसके बारे में  किसी से कुछ पूछता था। हाँ, उसने एक बार इतना जरूर कहा था, “ नाम और मूर्ति की ही लड़ाई है न? तो मूर्ति रहने दो और उसके नीचे लिखा नाम मिटा दो, और वहाँ लिख लो सब अपने - अपने बाप – दादा का नाम।” यह सुनकर गाँव  के लोग हँस पड़े  थे, “ पोता तो दादा से भी आगे निकल गया, शांति और सबको खुश करने का नया रास्ता !”

मगर गाँव  में अब शांति कैसे रहेगी ? सबकी खुशी कौन देखेगा ?

सुंदर शर्मा ने जब से गाँव  पकड़ा है, पार्टी – बंदी बढ गई है। कुछ दिन तक उसने स्थानीय लाल सेना का लाल झंडा ढोया था। कहते हैं, एक दिन उसने बाप को लाल प्रणाम या लाल सलाम कहा था तो अनपढ़ बाप को भी इसमें कुछ अपच लगा था, “ लाल झंडा तो ठीक है बेटा, प्रणाम – सलाम भी लाल ? कल को होकर कहीं लाल भात, लाल दाल, लाल ब्याह, लाल श्राद्ध...”! 

सुंदर को पता था उसके पिताजी सरजुग बाबू का पक्का चेला हैं, उनका चढा रंग चोखा है तो कोई और रंग चढ़ेगा कैसे ? भले ही वह लाल हो या...।

सेना के एरिया कमांडर से वर्चस्व को लेकर अन – बन हो गई तो एक दिन रातों-रात सुंदर सेना छोड़कर भाग गया था। उसे मालूम था ऐसे भगौड़े और द्रोही लोगों को सेना के खूंखार लड़ाके पाताल से भी ढूंढ निकालते हैं और छह  इंच छोटा कर देते हैं। सो वह पूरे पाँच साल तक इलाके में कहीं दिखा ही नहीं। कहाँ लापता हो गया, किसी को नहीं मालूम। शायद पाताल से भी परे ! 

इलाके से सेना के समूल सफाये के बाद एक दिन अपने गाँव  में वह एकाएक प्रकट हुआ तो उसके घर पर लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी थी उसे देखने। किसी बुजुर्ग ने कहा था, “ इतनी भीड़ तो सरजुग बाबू जैसे जुगपुरुष अंतिम दर्शन के लिए भी नहीं जुटी थी।”

आजकल सुंदर एक पार्टी में घूमने लगा है। वह पार्टी कोई और नहीं बल्कि सत्ताधारी गठबंधन का ही एक घटक दल है। गाँव  में अब उसकी खूब चलती है, खासकर युवावर्ग में उसके प्रति बहुत आकर्षण है। वे कहते भी हैं, “ लाल सेना की दुनिया से वापस आना और वह भी  बाल – बाल बचकर, कोई साधारण अंतड़ीवाले के वश की बात नहीं है। फिर पाँच साल तक घर – परिवार से दूर, इतना लंबा अज्ञातवास आजकल कौन झेलता है ? सुंदर भैया सचमुच हीरो है हीरो।”

अगले साल चुनाव है। सुंदर अगला चुनाव जीतकर विधानसभा पहुँचने का सपना देख रहा था। इसके लिए क्षेत्र में जातीय गोलबंदी तो अनिवार्य शर्त है ही, साथ ही आम जनता की सहानुभूति भी कम जरूरी नहीं है। इसीलिए वह कहा भी करता, “ जान पर खतरा अभी भी है, लाल सेना इस इलाके में खतम हुई है और बाकी दूसरे क्षेत्र में तो अभी भी.., सो कौन ठिकाना, कब कौन कहाँ...?” लोगों में उसके प्रति सहानुभूति बढ भी रही थी। 

गाँव  में नामकरण के मुद्दे को  सुंदर ने खासी हवा दी थी। तभी तो लोग सरजुग बाबू जैसे सर्वमान्य पुरुष के नाम में भी भी जाति देख रहे हैं। उनके व्यक्तित्व पर भी ऊँगली उठाई जा रही है। लालजी को ये ऊँगलियाँ सुइयों की तरह चुभ रही हैं। 

आए दिन सुंदर कहा करता, “ सबको साथ लेकर चलने की उनकी सोच और उनकी आदर्शप्रियता ने गाँव  की नई पीढ़ी को किसी काम के काबिल नहीं छोड़ा। पंचायत के दूसरे गाँव  में लोग कहाँ से कहाँ पहुँच गए । लोग पैसेवाले हो गए, जाकर देखो, सबके घर के सामने कोई न कोई छोटी - बड़ी गाड़ी खड़ी मिलेगी, और यहां ? मोटरसाइकिल पर भी आफत है ! मुखिया, सरपंच, सब अब दूसरे गाँव  से बनते हैं, अपने गाँव  में कोई युवा नेता नहीं। सरकारी योजना और ठेकेदारी का काम इस गाँव  के लोगों को कहाँ से मिलेगा ? सिर्फ स्कूल, अस्पताल या सड़क से पेट भरेगा?  जितना मान – आदर और महत्व था वह चाहते तो एक चुटकी में मुखिया, सरपंच और प्रमुख बना सकते थे इसी माटी से, लेकिन खुद गांधी बनने के चक्कर में रह गए, अरे, बेटे – पोते को नहीं बना पाए तो  गाँव  को कहाँ से बना पाते ? इसलिए तो गाँव  भी सड़क पर खड़ा है और खुद चौराहे की छाती पर खड़े होकर धूल फाँक रहे हैं। अरे भाई, सत्ता से इतना दूर रहोगे, तो शक्ति आएगी कहाँ से ? और शक्ति नहीं तो पैसा कहाँ से आएगा ?”

लालजी जान रहा था, सुंदर शर्मा गाँव  में जहर क्यों घोल रहा है?  लेकिन कोई उसके साथ नहीं था। फिर भी वह अकेले ही लोगों को समझाता था, “खाने – कमाने से किसने किसको रोका ? सरजुग बाबू तो सिर्फ इतना कहते थे कि गलत मत करो न ही गलत का साथ दो, अपने अधिकार मत छोड़ो, न दूसरे का हक मारो, सरकार पर भरोसा भी रखो और जरूरत पड़े तो सरकार से लड़ो भी, डरो मत, सच पर अडिग रहो तो एक दिन सामनेवाला भी सच को जरूर स्वीकारेगा। सबको साथ लेकर ही आगे बढ़ सकते हैं। हमारे पुरखों ने बहुत सोच – समझकर लोकशाही का रास्ता अपनाया था, लोकशाही मतलब सबको अवसर, सबको अधिकार, कोई खास नहीं कोई आम नहीं, अब बताइए इसमें नयी पीढ़ी को निकम्मा बनानेवाली बात कहाँ है ? उन्होंने तो हमें पुलिस – थाना,  ब्लाक और जिला के सरकारी अफसर – कर्मचारी की दलाली करने से रोका था, नहीं तो इस गाँव  में भी ऐसे लोग कीड़े – मकोड़े की तरह फर गए होते और हमारी जड़ को पहले ही काट खाते। अब जो करना है करो, सरजुग बाबू अब थोड़े देखेंगे, वे तो ऐसे भी गाँव  से बाहर ही हैं”। 

लेकिन लालजी की सुनता कौन है? सब तो सुंदर के पीछे पगला गए  हैं। 

आज सरजुग बाबू होते तो गाँव  में इतनी पार्टी – बंदी होती क्या ? उनके निधन पर लालजी ने कहा था- फूल तो पहले से अलग – अलग थे ही, बस माला के धागे के टूटने की देरी थी और वह धागा भी अब टूट ही गया, अब देखना फूल कैसे बिखरते हैं। सबकी अपनी-अपनी पार्टी होगी और अपना - अपना झंडा। पब्लिक के लिए सरकार से लड़नेवाला तो गया। अब देखना कमाने वाला आएगा, भांड़ में जाए आम जनता, लड़नेवाला तो गया”। 

लालजी सही कह रहे थे, “ लड़नेवाला गया, अब तो जो है सब लड़ानेवाला है। सो इसलिए तो लड़ाई जारी है, नाम की, पार्टी की, जात की...!

लालजी एक सप्ताह के लिए बाहर गए थे। उनके किसी करीबी ने फोन पर बताया कि गाँव  में माहौल गर्म है। शर्मा – टोली के लोग बोल रहे थे, “ सरजुग बाबू की मूर्ति कभी भी...”। 

लालजी ने शंभुनाथ को फोन किया, “ अरे , गाँव  में रहकर भी तुम कौन – सी दुनिया में रहते हो? तुम्हारे दादा जी की मूर्ति पर...”। 

हलांकि शंभुनाथ को भी कल इसकी थोड़ी – सी भनक लगी थी, फिर भी उसे यकीन नहीं हो रहा था कि शर्मा टोलीवाले ऐसा करेंगे क्योंकि उनके दादा ने गाँव  के लिए क्या किया है, सुंदर के बाप को भी मालूम है, पूरा इलाका जानता है, ऐसा अनर्थ करने की हिम्मत सुंदर नहीं करेगा...लेकिन  लालजी अगर कह रहे हैं तो झूठ हो ही नहीं सकता।  

इसलिए आज सुबह – सुबह वह पुलिस- थाना जा पहुँचा। 

शंभुनाथ भावुक होकर बोला, “सर, पक्की खबर है, यह सुंदर शर्मा उसे तुड़वा कर ही रहेगा। गाँव  में उसने मूर्ति के खिलाफ खूब हवा बनाई है। मूर्ति की जान को खतरा है सर”।

शंभुनाथ की शिकायत पर दारोगाजी मुस्कुराए। 

“सुंदर शर्मा का जात कितना है संख्या में ?”

“सर बारह आना तो वही लोग है, पहले ऐसा नहीं था, जब से सुंदर शर्मा ने गाँव  पकड़ा है खाली जहर ही जहर उगल रहा है, कहता है चौक पर अपने बाप की मूर्ति लगाएगा, किसी ने तो यहाँ तक बताया कि मूर्ति बनाने का आर्डर भी दे दिया है। ”

चौकीदार ने हँसते हुए कहा, “ हजूर उसका बाप तो सी किलास का ‘चसचारा’ और ‘घरढुक्का’ था। चसचारा मतलब फसल चराने वाला और घरढुक्का मतलब रात को दूसरे की औरत..., गाँव  परेशान रहता था। पड़ोस में कंकला गाँव  के लोगों ने एक बार उसे फसल चराते ही रात को पकड़ा था तो सुबह को सरजुग बाबू के ही कहने पर उनलोगों ने चेतावनी देकर उसे छोड़ दिया था नहीं तो वे लोग तो जान से...। बाद में सरजुग बाबू के संगत में आकर वह सुधर गया था लेकिन हजूर वह तो अभी जिंदा है”।

“ तो क्या रे शंभुनाथ, सुबह - सुबह पुलिस को ही उल्लू बनाने आया है? जिंदा का कहीं मूर्ति लगाते हैं ? फुटो यहाँ से” दारोगाजी तमतमाए।

“सर, पूरी बात सुनिए तो सही, उसका बाप अभी जिंदा है लेकिन कब टपक जाए, मालूम नहीं। डाक्टर ने जवाब दे दिया है। इस बार के जाड़े में तो...”। 

“ क्या बकवास कर रहे हो शंभुनाथ तुमको अपने दादा की मूर्ति की फिकर है या सुंदर शर्मा के बाप की मूर्ति की ?  शिकायत लिखवानी है लिखवा लो मगर उलूल – जुलूल बात मत करो। सुबह – सुबह आ गए टाइम और मूड खराब करने, बिना कुछ बूझे-समझे”। 

... लेकिन शंभुनाथ बकवास नहीं करता। सुंदर के पिताजी सचमुच पिछला वसंत नहीं देख पाए।

दो साल बाद। 

“सुंदर शर्मा जिंदाबाद” “...पार्टी जिंदाबाद” के नारों से इलाके का आसमान गूँज रहा था। रुपौली विधानसभा की जनता ने उसे आखिर जिता ही दिया। 

आसमान से शाम का अंधेरा उतरकर जमीन पर फैल रहा था। 

बहुत बड़ा विजय – जुलूस सरजुग बाबू चौक की तरफ बढा जा रहा था। चारों तरफ पुलिस तैनात थी। जयजयकार करते हुए लोग तेजी से सरजुग बाबू की मूर्ति की ओर बढे जा रहे थे। आगे – आगे विधायक जी खुली जीप पर खड़े, हाथ जोड़े, फूल – मालाओं से लदे, पुष्प – वर्षा के बीच शनैः शनैः बढ रहे थे । रोशनी और जश्न में डूबी भीड़ पीछे – पीछे।

आधी भीड़ चौक से आगे जा चुकी थी। तभी पीछे नारेबाजी के बीच भगदड़ मची। शायद पीछे समर्थकों से खचाखच भरे एक ट्रक ने किसी को ठोकर मार दी थी... ‘किसी’ को नहीं बल्कि सरजुग बाबू को...उनकी मूर्ति अर्राकर गिर पड़ी, लोगों ने फिर जीत के नारे लगाए...पैरों तले मूर्ति के हाथ – पैर...खड़ी नाक... बड़े – बड़े कान..रौंदते हुए भीड़ आगे सरक रही थी। उमड़ती भीड़ और चढ़ते शोर में कुछ मालूम भी नहीं पड़ रहा था। 

मूर्ति ही तो थी, क्या नई, क्या पुरानी ? 

...लेकिन लालजी के लिए वह सिर्फ मूर्ति नहीं थी। वह सरजुग बाबू ही थी ज़िंदा, अभी भी जिसमें वही खून दौड़ रहा था, बस धड़कनें बैठ गईं थीं। आँखें अभी भी देख रही थीं एक टक, बस पुतलियाँ स्थिर हो गईं थीं। साँस नहीं चल रही तो क्या हुआ ? सरजुग बाबू की जिंदगी क्या कभी साँस की मोहताज बनकर रहेगी ? 

लालजी भीड़ के पीछे खड़ा था, चुपचाप देख रहा था, जैसे ‘एक पुरुष भींगे नयनों से’...! धूल – धूसरित पीली क्षीण रोशनी में ऊपर तैरते असंख्य रजकण...नीचे टूटे - फूटे इधर – उधर बिखरे सरजुग बाबू के अंग – प्रत्यंग ! 

टुकड़ों – टुकड़ों से जैसे कोई आभा निकलकर चारों तरफ फैल रही थी। 

लालजी को डबडबाई आँखों से भी सब कुछ साफ - साफ दिख रहा था। उसके मुँह से अनायास निकल पड़ा - विध्वंस ! सर्वनाश ! अरे ! यह सिर, सरजुग बाबू का सिर !

भावावेग में उसने वह क्षत – विक्षत सिर जैसे ही उठाया, उसे लगा - ...ऊँची – खड़ी नाक से लाल ? यह क्या ? खून ? ...शंभूनाथ ! दौड़के आओ ...सरजुग बाबू का खून...

और वह पागल की तरह चिल्लाया, “ दौड़ो, आओ, गाँव वालो ! शंभुनाथ ! किधर है ? आओ, देखो,  सरजुग बाबू सचमुच जिंदा हैं, गाँव ..वा..लो,.. शंभु..ना..थ...! 

लालजी टुकड़े चुनते हुए चिल्ला भी रहा था और उधर शंभुनाथ विजय - जुलूस की भीड़ में कहीं खो गया था। □□□



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