कहते हैं "मैला आँचल" के चलित्तर कर्मकार दरअसल नक्षत्र मालाकार थे। रेणु ने उनके ही व्यक्तित्व और कर्तृत्व को चलित्तर कर्मकार के पात्र के रूप में ढाला था।
नक्षत्र मालाकार का नाम मैंने बचपन में सुना था। पिताजी ने पहली बार यह नाम मुझे बताया था। तब मैं करीब दस साल का रहा होऊँगा। पिताजी द्वारा उसके नाम की चर्चा के पीछे एक रोचक वाकया था।
बचपन में ननिहाल से मेरा बहुत लगाव था। अपने गाँव आने के बाद मुझे ननिहाल की बहुत याद आती थी क्योंकि माँ उन दिनों ननिहाल में ही रहती थी और मैं पिता के साथ गाँव आ गया था । पिताजी प्रत्येक तीन - चार महीने के बाद मुझे ननिहाल लेकर आते थे। मेरे गाँव से ननिहाल की दूरी मुश्किल से पन्द्रह किलोमीटर हुआ करती थी। पन्द्रह किलोमीटर यानी गाँव की भाषा में करीब पाँच कोस और रास्ता बिल्कुल कच्चा। या तो खेतों के आल पर बनी पगडंडियाँ होती थीं या कहीं किसी गाँव के आस पास पहुँचती ये पगडंडियाँ कच्ची सड़कों में तब्दील हो जाती थी। सड़कों पर धूल और जब धूल नहीं होती तो कीचड़ होता था। मेरे गाँव से करीब एक किलोमीटर उत्तर कोसी की एक पतली धार बहा करती थी जो सावन भादो में भयावह विस्तार लेती और वैशाख- जेठ की प्रचंड गर्मी में सूख कर पतली हो जाती थी। नदी पार करने के लिए बाँस की पुलिया बनी होती थी जो बाढ़ के महीनों में नदी के तेज बहाव में लापता हो जाती थी, कहीं कहीं बस बाँस के दो - चार मोटे- मोटे खंभे झुके खड़े रहते थे। नदी के उस पार एक बस्ती थी - श्रीमाता। मेरे गाँव और श्रीमाता के बीच नदी की ऐसी दो धारें बहती थी। अब एक धार बिल्कुल सूख गई है। यहाँ की भाषा में कहें तो मर गई है। लेकिन दूसरी धार जो मेरे गाँव के पास है वह अभी भी जीवित है। इस पर बाँस की पुलिया बनने से पहले जब कभी ननिहाल जाना होता तो पिता जी के साथ मैं भी यह नदी पैदल ही करता था। पिता जी जब अकेले गाँव से मेरे ननिहाल जाते तो वे पूरा रास्ता पैदल ही तय करते थे। परन्तु जब कभी मुझे साथ लेकर जाते तो गाँव में किसी से साइकिल उधार ले लेते। उन दिनों गाँव में साइकिल सुखी - सम्पन्न लोगों का वाहन हुआ करती थी। मेरे पिताजी की सम्पन्नता इतनी नहीं थी कि वे साइकिल खरीद सकते थे । लेकिन वे व्यवहार- कुशल थे और अभी भी हैं ही, तो कोई उन्हें साइकिल देने से मना नहीं कर पाता था। वे मुझे जब साइकिल से ननिहाल ले जाते तो हैंडल और सीट के बीच के क्षैतिज डंडे पर ठीक बीच में अपना गमछा लपेटते और मुझे उस पर बिठा देते थे। साइकिल से इतनी लंबी यात्रा में जो मजा आता था उतना मजा मेरे बच्चों को मेरी कार की लोंग ड्राइव में आती है या नहीं मुझे नहीं पता।
एक बार जब पिताजी मुझे ननिहाल ले जा रहे थे तो श्रीमाता गाँव पार करने के बाद सड़क पर कुछ भैंसें दिखायी दीं। वे हमारी तरफ आ रही थीं । उनके पीछे कोई पचास साल का आदमी कंधे पर लाठी रखे आ रहा था। मैं उसे देखकर डरा और फिर बाद में हँसी भी आई। मैंने पिताजी से पूछा- " बाबा, इसकी तो नाक ही नहीं है और दोनों कान भी कटे हैं, कैसे हो गया ऐसा ?"
पिताजी ने बताया- इसकी नाक और कान दोनों नक्षत्र मालाकार ने छोंप दिए थे।"
मैंने पूछा- वह कौन था और उसने ऐसा क्यों किया?"
तो पिताजी ने पूरी कहानी बताई । साइकिल पर रास्ता भी कटता रहा और कहानी भी चलती रही। वह आदमी अपनी जवानी में भी दरअसल भैंस ही पालता था। रोज रात को अपनी भैंसें लेकर दूसरों के खेत में चोरी - छुपे जाता और हरी हरी फसलें चरा देता। एक नंबर का पहलवान था वह और उपर से नामी लठैत। उसके खिलाफ़ डर के मारे कोई चूँ तक नहीं बोलता था। कहते हैं किसी ने उसके अत्याचार की दास्तान नक्षत्र मालाकार तक चुपके से पहुँचा दी। नक्षत्र मालाकार उन दिनों मेरे गाँव के इलाके में घूमते रहते थे। मेरे ननिहाल में वासुदेव मालाकार उनके करीबी रिश्तेदार थे जो अब दुनिया में नहीं हैं । उनके बच्चे आज भी वहाँ हैं जो बताते हैं कि नक्षत्र मालाकार उनके रिश्तेदार थे और वहाँ आया जाया करते थे।
पिता जी ने बताया था नक्षत्र मालाकार बड़े हिम्मतवर, बहादुर, क्रांतिकारी और न्यायप्रिय थे। उस नासिका - कर्ण विहीन महिष- पुरुष का मुख - सौंदर्य उनकी न्यायप्रियता को ही भेंट चढ़ गया था। नक्षत्र मालाकार ने खुद उसके नाक- कान छोंपे थे। ऐसा वाकया पास के चाँदपुर गाँव में भी हुआ था। तो ऐसे थे नक्षत्र मालाकार । अमीरों को लूट कर गरीबों में बांट देते थे। निर्धन की बेटी का ब्याह भी करा देते । पुलिस उससे बहुत डरती थी। जमीदार- क्षत्रपों के कान खड़े ही रहते थे।
No comments:
Post a Comment