ग़ज़ल

ख्वाब आँखों में उतारा जा रहा है,

और आँखों में ही मारा जा रहा है।


हों अँधेरे भी उजालों के मुकाबिल 

अब अँधेरों को सँवारा जा रहा है। 


कह रहा खुद को सितारा वो अभी भी

लाख गर्दिश में सितारा जा रहा है। 


बस इमारत की बुलंदी पे नजर है 

नींव को लेकिन नकारा जा रहा है। 


हो वही जैसे हकीकी सच अभी का 

झूठ को ऐसे उभारा जा रहा है। □□□

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