अवधू, अब क्या छेड़त नारी

अवधू, अब क्या छेड़त नारी।
नारी छेड़त यौवन बीता, अब तो उमर बुढ़ारी।

चौका- छक्का शतक लगाए, खेली लंबी पारी,
अबहूँ तो पिच छोड़हु रसिया, अब औरन की बारी।

एक नारि के लिए जगत में बहुतक दावेदारी,
बहुतहि उठापटक, सुरसासन, बहुतहि मारामारी।

यह नारी है कुर्सी अवधू, रूप झरै सरकारी,
हाथ न आवै तो माया या ठगनी, नरक पुकारी। 

बूझ बूझकर बूझ न पावै जोगी या ब्रह्मचारी,
दूरदास इस नारी को बस बूझै कुरसीधारी। 

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