चोट पर हम बर्फ़ डाले जा रहे हैं,
दर्द को बेहतर सँभाले जा रहे हैं।
देखने की कोशिशें जो कर रहा हूँ
वे मेरी नज़रें हटा ले जा रहे हैं।
अब सभी सिक्के पुराने हो गए हैं,
नित नये रूपों में ढाले जा रहे हैं।
रोग भी क्यों रोग लगता है नहीं
रोग कैसे – कैसे पाले जा रहे हैं।
डल गए पर्दे मेरी आँखों पे कुछ
कुछ मेरे कानों पे डाले जा रहे हैं।
आप सबको साथ लेकर तो चले हैं
यह बता भी दें, कहाँ ले जा रहे हैं। □□□
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