दिलीप दर्श की रचनात्मक स्थितियां वर्तमान के द्वन्द्व से तैयार होती हैं। इनमें सामाजिक संघर्ष, अतीत की सीखें, शोषक-शासक शक्तियों की पहचान, वर्ग विभाजित समाज में विकट होते जीवन संदर्भ और बेहतर की आकांक्षा हैं। समकालीन कविता के मूल्यांकन का आधार यह देखना है कि वह अपने भाव-विचार में कितनी जनतांत्रिक है, वहीं अभिव्यक्ति में इन्द्रियों की गतिशीलता कितनी है।
उनकी कविताओं का संघर्ष बेहतर मानवीय स्थितियों और समता पर आधारित समाज के लिए है। जब समाज में धर्म, जाति, वर्ण आदि के आधार पर विभाजन किया जा रहा है और इसके द्वारा मनुष्य की खंडित पहचान बनाई जा रही है, ऐसे में प्रेम, भाईचारा, बाराबरी जैसे मूल्यों को वास्तविक जीवन मूल्य बताना ही सभ्यता है। सामंती काल को याद किया जाय, जब राजकुमारों ने गुरु से एकलव्य का अंगूठा दक्षिणा में मांग लेने का दबाव बनाया था। इसके बरक्स आज के समय का पाठ है कि राजकुमार और एकलव्य एक ही मंडली में शामिल हों, मिलकर नई सभ्यता का निर्माण करें। स्वाभाविक है ऐसा वर्णों में बंटकर नहीं, ‘राजकुमार’ होकर नहीं बल्कि मनुष्य होकर ही किया जा सकता है। इस भाव को कविता इस तरह व्यक्त करती हैः
‘नया होगा यह देखना भी/कि कुछ राजकुमार जाने लगे हैं स्कूल/एकलव्य की मंडली में दिन भर बैठ/सीख रहे हैं-नया ककहरा/जहां दो वर्णों के मेल के बिना/कोई भाषा ही नहीं बनती आदमी की/न ही बनता है सभ्यता का कोई व्याकरण'।
‘कामरेड’ उनके लिए प्रयुक्त किया जाता है जो सामाजिक बदलाव के कार्य में क्रियाशील हैं। उनकी क्रान्ति के लिए प्रतिबद्धता है। देखा गया है कि पूंजीवादी व्यवस्था के आकर्षण और प्रतिगामी विचारों के बढ़ते प्रभाव से चंद कामरेड अपने कर्तव्य- पथ से विचलित हो रहे हैं।
कामरेडों का निर्माण जनविरोधी शक्तियों के विरुद्ध कठिन-कठोर संघर्ष में तपकर होता है। उसे अपने को डीक्लास व डीकास्ट करना होता है। यदि ऐसे साथी अपने लक्ष्य से भटक जायें और जनता के दुश्मनों के प्रति उसका नजरिया बदल जाय तो सामाजिक परिवर्तन और क्रान्ति के लक्ष्य का पीछे छूट जाना स्वाभाविक है। सामाजिक बदलाव के लिए प्रतिबद्ध कविता का काम क्रान्ति की आत्मगत स्थितियों में आई कमजोरियों की आलोचना है तो वहीं उसके सबल पक्ष को भी उजागर करना है। सामाजिक जीवन ऐसे उदाहरणों से भरा हैं जहां कामरेडों ने सर्वस्व कुर्बान किया। उनकी शहादतें आज भी रास्ता दिखाती हैं। कवि की नजर इस पर भी होनी चाहिए।
दिलीप दर्श की कविता ‘अब जब कि बादलों ने’ में ‘पानी के दावेदारों’ और ‘पानी के मारों’ के रूप में भिन्न और विपरीत सामाजिक शक्तियों का द्वन्द्व है। इसके प्रतीक और बिम्ब जनजीवन से लिए गये हैं। इसलिए उनमें सहजता और संप्रेषणीयता है। द्वन्द्व कविता में यूं व्यक्त होता हैः
पानी के दावेदार खुश हैं/...पानी का निर्यात बढ़ेगा/बढ़ेगा विदेशी मुद्रा का भंडार/वे खुश हैं. कि कम समय में न्यूनतम लागत पर लक्षित बारिश हुई/और बादलों को धन्यवाद देना चाहते है/इसलिए उन्होंने रखा है/संसद में धन्यवाद-प्रस्ताव/पानी के मारों को घोर आपत्ति है/...इतनी बारिश संभाल नहीं पा रही नदियां/बह गए हैं गांव के गांव/डूब गयीं हैं फसलें....।'
एक के लिए ‘पानी’ लूट और कमाई का साधन है। इसके लिए वह तरह-तरह के तिकड़म व झूठ का सहारा लेता है, साठ-गांठ करता है। वहीं, दूसरे के लिए ‘पानी’ की मार जीवन के अस्तित्व के लिए संकट का कारण है। उसकी वजह से वह तबाह-बर्बाद होता है। इसे लेकर संसद में जो बहसें होती हैं, वह उनके पक्ष में हैं, जो इनका इस्तेमाल अपनी तिजोरी भरने के लिए करते हैं। सत्ता पक्ष के ‘धन्यवाद प्रस्ताव’ और विपक्ष के ‘अफवाह’ के बीच चर्चा में मूल समस्या फंस या गायब हो जा रही है। यही हमारे समय और इस लोकतंत्र की सच्चाई है कि ‘पानी के दावेदारों’ के ‘पांव’ के नीचे ‘पानी के मारों’ के ‘गांव’ दबे हैं। त्रासदी मजाक बन जाए, इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी। देखेंः
‘यह मजाक ही है कि/जिस पानी में बह गए हैं/पानी के मारों के गांव/उस पानी में/पानी के दावेदार धो रहे हैं/अपने-अपने पांव’।
दिलीप दर्श की यह काव्य विशेषता है कि वे सामाजिक द्वन्द्व पर परदा नहीं डालते, इसके विपरीत उसे तार्किक परिणति तक ले जाते हैं। इसका विस्तार हम ‘पसीने की प्रयोगशाला में’ देखते हैं। समाज जब आम और खास में बंटा है तो प्रश्न है कि आप समाजिक जीवन और घटित घटनाओं और प्रसंगों को किस नजरिये से देखते हैं। यह पक्षधरता की कविता है। ‘पसीने की प्रयोगशाला में’ यह पसीने का वर्ग चरित्र है कि पसीना चूता भी है और चुआया भी जाता है। जहां ‘आम’ का पसीना श्रम से चूता है, वहीं जिमखाने में ‘खास’ अपनी मोटापे और दूसरी शारीरिक समस्याओं को दूर करने के लिए या अपने फिटनेस के लिए पसीना चुआता है। इस पसीने को रंग और गंध से पहचाना जा सकता है। यह शोषण की सामाजिक स्थितियां हैं जहा श्रमिक से मनुष्य सा नहीं जानवर सा काम लिया जाता हैः
‘पसीने की आणविक संरचना एक है/उसकी गंध और उसका रंग है/एक दूसरे से बिल्कुल अलग/यह फर्क होता है इसलिए/कि पसीने को चुआना और पसीने का चूना/दो अलग - अलग समाजशास्त्रीय बातें हैं/जिन्हें समझने के पहले/यह देखना आवश्यक है/कि चमड़ी किसकी है/वातानुकूलित कार में बैठ/पेट - क्लिनिक जाते हुए किसी डाॅगी की/या हल खींचते बैलों की!’
दिलीप दर्श की कविता में यह बात साफ होकर आती है कि ग्लोबल हो रही दुनिया ने लोकल को ग्रस लिया है। जहां दुनिया की मुस्कुराहट गायब हो रही है, वहीं एक की मुस्कुराहट अट्टहास में बदल रही हैं। कविता इस सच्चाई से रूबरू कराती है कि दुनिया मुनाफ-पुरुष के कब्जे में है। उसके चिन्तन से प्रकृति, पर्यावरण, मानव जीवन, उसकी खुशहाली बेदखल है। वह इस बात पर खुश और सन्तुष्ट है कि उसका मुनाफा बढ़ रहा है। भले ही दुनिया पर उदासी की परत मोटी होती जायः
‘मुस्कुरा रहा है वह/किनारे खड़ा एक मुनाफा पुरुष/....मुस्कुराहट बता रही है/सब कुछ ठीक वैसा ही चल रहा है/जैसा वह चाहता था/दुनिया रोज बन रही है/मुस्कुराहट का कब्रिस्तान/और अकेले उसकी मुस्कुराहट/मोटी हो रही है रोज थोड़ी-थोड़ी’
वह ‘मनी-प्लांट’ का विनिमय करता है। ज्ञान-विज्ञान, फौज-फांटा सब उसके सेवक हैं। मनुष्यता के लिए चाहे कैसा भी समय हो, उसके लिए तो ‘आपदा अवसर है’। कविता भूमंडलीकृत हो रही दुनिया के यथार्थ तथा विश्व पूंजीवाद के ताने -बाने से पाठक को परिचित कराती है।
दिलीप दर्श के यहां प्रेम जीवन संघर्ष से अलग नहीं है। उसे निरपेक्षता में नहीं देखा जाना चाहिए। कविता भूख से ग्लानि की ओर नहीं ले जाती, वरन इसके विरुद्ध क्रोघ व घृणा पैदा करती है। वह प्रतिरोध रचती है। ‘प्रेम कविता लिखने से पहले’ जीवन के गद्य को जानना-समझना आवश्यक हैंः
‘प्रेम कविता लिखने से पहले/देखना होगा/हवश के कितने सर्गों-खण्डों में बंटा है जीवन का गद्य/कहां-कहां कैद है उसकी भाषा उनमें/बुन लिए हैं उनके शब्दों ने/इन सर्गों -खण्डों की अभेद्य दीवारों के सहारे/कितने मकड़जाल’
इस कविता से गुजरते हुए बांग्ला कवि सुकान्त भट्टाचार्य की कविता याद हो आती है जिसमें वे जीवन के गद्यमय हो जाने की बात करते हैं।
दिलीप दर्श की एक कविता है ‘पत्थर और मछलियां’। वे कहते हैं ‘पत्थर जब लिख रहे थे/पहाड़ों का इतिहास/पानी का इतिहास लिख रही थीं/मछलियां उस वक्त’। लेकिन कविता में स्थितियों का विकास जिस तरह होता है, उसमें कविता अपने पूर्व कथन का खण्डन करती है। पत्थर पहाड़ से टूटकर अलग हुए। उनका अपना अस्त्त्वि कायम रहा। इससे पहाड़ से लेकर पत्थरों तक की दुनिया बनी। उसका इतिहास बना। लेकिन मछलियों का अस्तित्व नदी, बादल और समुद्र से जुड़ा रहा। उसके बाहर उनकी दुनिया नहीं। कविता में मछलियों को लेकर कथन में असंगति हैः
‘मछलियां पानी से बाहर नहीं आ सकीं/किसी भी पन्ने में कभी/वे पानी से बाहर आ ही नहीं सकतीं/इसलिए पानी में रहकर पानी का/इतिहास नहीं लिख सकतीं/पत्थरों ने यह भी लिखा है/पहाड़ों के इतिहास में कहीं’
बहुत स्पष्ट नहीं होता कि पत्थर और मछलियों के माध्यम से कवि का क्या कहना है। पत्थर और मछलियों के बीच क्या कोई संगति है। मछलियों को लेकर कविता के आरम्भ और अन्त में कथन में ऐसा विरोधाभास क्यों? ऐसी असंगति कविता को अमूर्त बनाती है। प्रतीकों के इस्तेमाल में यह सजगता जरूरी है। दिलीप दर्श की कई कविताएं अनावश्यक फैलाव लेती हैं। इस पर कवि को गौर करने की जरूरत है। वैसे, दिलीप दर्श की कविताओं को पढ़ते हुए और विचार करते हुए यदि मुक्तिबोध और बांग्ला कवि सुकान्त याद आते हैं, तो यह कवि की अन्तर्निहित संभावना को व्यक्त करता है। □■■
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