अवधू, कविता कौन पढ़ै !

दूरदास के पद  / दिलीप दर्श 

अवधू, कविता कौन पढ़ै ! 
तजि समतल पथ, ऊबड़ - खाबड़ मूरख कौन चढ़ै ? 

मध्यवर्ग अंगीठी भर ही सेंकै ताप, तरै।
कविता दावानल अति दाहक, नाहक कौन जरै? 

सुख- सुविधा के शीतल निर्झर हर घर - द्वार झरै। 
कविता कड़क दुपहरी है, पग बाहर कौन धरै ? 

अपने परिजन - सहजन का दुख सज्जन खूब हरै, 
कविता बहुजन का दुख भारी, इसमें कौन पड़ै ?  

घर - घर कवि, परकासक दर - दर, आपस खूब लड़ै,
फिक्र एक ही, कैसे मार्किट शेयर रोज बढ़ै।

मांग न्यून अरु पूर्ति अधिक तो क्यों नहिं दाम गिरै।
बस ब्रांडिंग - विपणन के माहिर पर बाजार ढरै।

आत्ममुग्ध कवि निज कविता जब आपहि आप पढ़ै, 
दूरदास क्यों नाहक औरन पर सब दोष मढ़ै ? 

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