अपने पैरों से जिन्हें आया न चलने का हुनर

ग़ज़ल/ दिलीप दर्श 


अपने पैरों से जिन्हें आया न चलने का हुनर, 
वे बताते हैं गिरे को अब सँभलने का हुनर !

साथ सबको लेके चलने की कसम तो खाई है, 
क्या उन्हें मालूम भी है साथ चलने का हुनर ?

अजगरों के साथ रहने का असर है सामने
आ गया जिंदा को जिंदा ही निगलने का हुनर। 

तुमने जो आँखों को रोने की सिखाई है कला
हमने भी दिल को सिखाया है पिघलने का हुनर। 
 
हम तो बस हालात हैं, खुद ही बदलते हैं नहीं,
वे बदल देते जिन्हें आता बदलने का हुनर। 

सोचने दो बैठकर वातानुकूलित कक्ष में
याद तो आने दो सड़कों पे निकलने का हुनर।  

सीख ही लेगी रसोई भी कभी बाजार से 
तेल में मछली के ही, मछली को तलने का हुनर। 

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