दूरदास के पद/ दिलीप दर्श
ऊधौ, मन
में धन की प्यास।
पहले प्यास बुझावहु,
छांडहु जप - तप, जोग, उपास।
धन आवै तो दुनिया झलकै,
ढलकै पुष्प - सुबास।
धन बिन दिन में भी अँधेरा,
भासै कहाँ उजास ?
धन की बारिश के बादल जब
उड़ि उड़ि भरै अकास।
नाचै मन का मोर धरा पर
बरसै हूब- हुलास।
जब सुखाड़ पसरै तो मन ह्वै
विह्वल बहुत उदास।
वक्त कटै नहिं क्लेश घटै नहिं कंटक लगै कपास।
दीन – धरम सब धन
के मारग, दुनिया धन की दास।
दूरदास को समझ न आवै क्या
घोड़ा क्या घास।
□□□
No comments:
Post a Comment