धर्म मेरी नजर में/1

धर्म वही है जो हमें करूणावान बनाता है, जो हममें यह बोध जगाता है कि दूसरे भी महत्वपूर्ण हैं, दूसरों का अस्तित्व भी उतना ही स्वीकार्य और  आदरणीय है जितना कि अपना अस्तित्व। धर्म हमें ज्यादा मानवीय बनाता है, हमारे मन, हमारी चेतना का परिष्कार करता है, हमें एक दूसरे के करीब लाता है अन्यथा वह धर्म नहीं, बल्कि धर्म के नाम पर कुछ और है।

मेरा शुरू से मानना है और यह मानना कोई नया नहीं है कि धर्म की सबसे बड़ी बात आत्मबोध है, आत्मोन्नयन है, चेतना का परम विकास है जिसे आप बुद्धत्व कह लें या मुक्ति कह लें या परम पद अथवा आत्म प्रकाश, इससे कोई फर्क नहीं । सबसे बड़ा सवाल है कि आप ऊपर उठे या नहीं अथवा आप जहाँ थे वहाँ से और नीचे तो नहीं गिर गए। जो ऊपर उठाता है वही धर्म है और जो नीचे गिराता है वही है अधर्म । 

अब हमें देखना होगा कि हमारी गति किधर है। नीचे की ओर या ऊपर की ओर ? हम अपनी चेतना में सिमटकर संकुचित हुए जा रहे हैं या हमारी चेतना फैल रही है ? हम संकीर्ण हुए जा रहे हैं या विस्तृत ? सवाल यह नहीं है कि हम अपने धर्म से कितना और किस तरह चिपके हैं । इस चिपकाव  का कोई मूल्य नहीं । इस चिपकाव से सिर्फ अपना अहंकार मजबूत होगा। यही अहंकार हमें गिराएगा और जो गिराएगा वो धर्म नहीं होगा। धर्म कभी अधोपतन का कारण हो ही नहीं सकता। इसकी सारी यात्रा, इसका सारा अभिप्रेत ऊर्ध्वोन्मुखी है।
लेकिन यह भी सत्य है कि धर्म अपने आप में कोई सिद्धांत नहीं है न ही किसी दर्शन का पैरोकार है। यह बस एक अनुभूति है, एक अनुभव है और अंततः एक व्यवहार या आचरण है। यह कोई मान्यता या अवधारणा नहीं है। सारी झंझट तब शुरू होती है जब इसे हम मान्यता या अवधारणा के रूप में देखते हैं, यही मान्यता या अवधारणा हमारे विवेक को मार देती है और चीजों को अपनी खुली आँखों से देखने के साहस भी नष्ट कर देती है । इसी से अंधविश्वास और कट्टरता पनपती है । इसी से "अपना झंडा सबसे ऊपर रहे" की महत्वाकांक्षा उठती है। हम जिसे मानते हैं वही सत्य है- यह विश्वास दृढ़तर होता है । ऐसा विश्वास जनतांत्रिक कभी नहीं हो सकता। यह हमेशा एकाधिकार के सिन्ड्रोम का शिकार रहता है। इससे सहअस्तित्व की गुंजाइश ही खत्म हो जाती है और जब सहअस्तित्व की भावना ही न रहे तो धर्म का फिर मतलब ही क्या है ? क्या सहअस्तित्व के बिना पृथ्वी का कोई भविष्य है ? क्या हम अकेले इस पृथ्वी पर जीवित रह सकते हैं? हमारा भविष्य साझा है न कि एकाकी या ऐकांतिक । हम सब हैं तो हम हैं, हम सब नहीं हैं तो हम हैं ही नहीं । यह अंतिम सत्य है जिसे स्वीकार कर ही इस पृथ्वी को बेहतर दुनिया के रूप में ढाला जा सकता है, दूसरा कोई उपाय नहीं। 

धर्म हमें यही सत्य सिखाता है। इस लोक को बेहतर बनाने के लिए जो भी करना पड़े वह एक धार्मिक कृत्य ही होगा। इस जीवन को अधिकाधिक  सुंदर बनाने के जो भी इरादे उठते हैं उन सभी को मैं धार्मिक संकल्प मानता हूँ ।

क्या एक भी ऐसा अवतार,  पैगंबर,  संत या रहस्यदर्शी हुए जिन्होंने मनुष्य को कहा - गिर जाओ ? उन्होंने हमेशा एक ही बात कही - उठो, जागो, देखो, खोजो। क्या हम उठे ? जागे ? कुछ देखा या खोजा हमने ? हमने सिर्फ अपना अहंकार देखा, और उसे ही खोजा। हम पकड़कर बैठ गए, चिपक गए किताबों से, ग्रंथों से, ब्रह्म वाक्यों से। हमने पांडित्य बटोरा, सिर्फ शब्द इकट्ठे किए और जुगाली करते रहे। हमारी जुगाली में जहाँ दिक्कतें पेश आईं हम गाली पर उतर आए, उससे बात नहीं बनी तो हम गाजी बन गए, धर्मचक्र परिवर्तन पर निकल गए । फिर शुरू हुआ धर्म युद्ध और खून - खराबे का अंतहीन दौर जिससे आजतक पूरी इंसानियत तबाह हो रही है । 

ऐसे धर्म को कोई अफीम न कहे तो आखिर कहे क्या ? यह तो अफीम से भी खतरनाक है । ऐसे धर्म की इस पृथ्वी पर जरूरत क्या है? यह तो जितनी जल्दी विदा हो जाए उतना ही शुभ होगा। 

सहिष्णुता धर्म की सार्थकता की एक मात्र कसौटी है, इस कसौटी पर जो भी धर्म या दर्शन खरा उतरता हो वही धर्म है चाहे वह कोई भी पंथ या मजहब हो। ऐसे तो किताबी तौर पर कमोबेश सभी पंथ इस कसौटी पर पर खरे उतरते हैं लेकिन देखना यह होगा कि इसकी व्याख्या करनेवाले क्या कहते है, क्या करते हैं । हम धर्म के माननेवाले से ही यह जान पाते हैं कि इन्होंने अपने धर्म को किस रूप में जाना है और इनका पंथ कहता क्या है ? एक हिन्दू का आचरण, व्यवहार या सोच ही प्रमाण होना चाहिए कि उनका धर्म कैसा है। ठीक यही बात दूसरे पंथावलंबी पर भी लागू होती है । आप बौद्ध को देखें और अंदाजा करें कि बौद्ध धर्म क्या हो सकता है । अगर ऐसा नहीं है तो सिर्फ धम्मपद,  कुरान, बाइबिल या वेद- गीता की उपयोगिता क्या है ? क्या ये ग्रंथ सिर्फ तफरका पैदा करने के काम आएंगे ? लोगों को लड़ाने के काम आएंगे ? तब तो मैं सिर्फ यही समझूँगा कि इन ग्रंथों ने सिर्फ वरिष्ठ बच्चे ( सीनियर चाइल्ड) ही पैदा किए हैं । विश्व को एडल्ट चिल्ड्रेन ( वयस्क बच्चे ) चाहिए सीनियर चिल्ड्रेन नहीं जो बात बात में तलवार खींचते हैं, बम बरसाते हैं उस चीज के नाम पर जो इस पृथ्वी पर कहीं भी किसी भी तरह से संभव है और वह है परमात्मा की इबादत, पूजा नमाज या प्रार्थना । उसके लिए किसी मंदिर, मस्जिद,  गिरिजाघर या गुरूद्वारे की जरूरत नहीं है, ऐसा मेरा मानना है ।

 

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