कविता / दिलीप दर्श
गाँव की मिट्टीपहचान ही लेती हैउन बच्चों कोजो उसमें लोट - लोटकर बड़े हुएपरन्तु जा बसे दूर शहरों मेंजब वे अपने पैरों पर खड़े हुएआज सालों बादजब बच्चे लौटकर आ गए हैं गाँवमिट्टी निहार रही है उनके पाँवशहरी उम्र की भारी थकानसर से उतर - उतरकर पाँवों मेंपसरती गईकैसे जमती गई सख्त !कितनी जल्दी हो जाते हैं शहर मेंपाँव इतने वयस्कगाँव की मिट्टी नहीं जानती शायद !परन्तु वह पहचान ही लेती हैउन पाँवों कोजिन पर खड़े होकरअब वे बच्चे वहीं खड़े नहीं रह सकतेजहाँ से निकलती सड़केंउन्हें ललचाती - लुभाती खींच ले जाती हैंदूर शहरों तकजहाँ सड़कों पर होती हैं सिर्फ सड़कें हीकोई मिट्टी नहीं होती
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