हमारी एक बड़ी समस्या यह है कि हम हमेशा यह ढूँढने में लगे रहते हैं कि हमारी जड़ें कहाँ - कहाँ भिन्न हैं। हमें अपनी जड़ों को भिन्न और स्वतंत्र सिद्ध करने में आत्म- गौरव का अनुभव होता है और हमारा आत्माभिमान निखरता है। आत्म-गौरव या आत्माभिमान की इस आत्म - केंद्रित साधना में हम अपनी-अपनी अस्मिता की ही खोज करते हैं। अपनी - अपनी अस्मिताओं के छोटे - छोटे द्वीप हैं और ऐसा लगता है कि हम सब द्वीपवासी हैं। यह सचमुच द्वीपों का देश है। अपनी - अपनी अस्मिताओं की खोज का देश है । क्या ऐसा नहीं लगता कि अस्मिता की इस खंडित खोज में क्या देश की अस्मिता खोई नहीं जा रही ?
हम यह क्यों नहीं ढूँढ़ते कि हमारी जड़ें कहाँ - कहाँ एक हैं ? जबतक यह खोज आरंभ नहीं होती तबतक अपनी अपनी अस्मिता की खोज ऐसे ही जारी रहेगी।
भारत कोई दूसरे देशों जैसा देश नहीं है। यह अन्तर्विरोधों की असंख्य परतों से बना हुआ देश है। विश्व की कौन सी प्रमुख संस्कृतियाँ और नृजातीय समूह हैं जो इस देश में नहीं हैं। टैगोर ने बहुत सोच - समझ कर इसे 'महामानवसमुद्र' कहा था। यही भारत का असली स्वरूप और चरित्र है।
यहाँ के लोगों ने सभ्यता के आरंभ से ही उन सबको जगह दी, स्पेस दिया जो भी यहाँ आए। क्या व्यापारी, क्या संत- फकीर, यहाँ तक कि आततायी बर्बर आक्रांताओं को भी इस सर्वग्राही भूमि ने अपने आगोश में ले लिया। बाहरी लोगों की जड़ें बेशक अलग जमीन की थीं लेकिन वे अपनी - अपनी जमीन से उखड़कर जब यहाँ आए तो यहाँ की जमीन में ही अपनी जड़ें जमा दीं। फिर शुरू हुआ मिली - जुली संस्कृति का एक नया दौर। यह दौर मौर्य साम्राज्य के काल से आरंभ होकर आजतक जारी है। चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में पटना में ग्रीक दुल्हन थी। सेल्यूकस की बेटी कार्नेलिया को चन्द्रगुप्त ने उस जमाने में स्वीकार किया था। यह तो एक उदाहरण है। इतिहास में असंख्य ऐसे प्रमाण हैं जो बताते हैं कि भारतीय समाज आरंभ से शेष विश्व से गहरा जुड़ा था। हमारे पूर्वज किसी टापू के प्राणी नहीं थे।
अगर आज कोई भारतीय किसी विदेशी मूल की लड़की को दुल्हन बनाकर अपना गाँव - शहर लाता है तो लोग को आज यह जानकर कोई आश्चर्य नहीं होगा ।
अगर एक जाति - समूह के लोग अन्य जाति - समूह के स्थलों तक आव्रजन नहीं करते तो ऐतिहासिक विकास की गति कहीं खो गई होती। इस आव्रजन में निस्संदेह भारत को तबाही भी झेलनी पड़ी लेकिन वो तबाही बहुत हद तक राजनीतिक थी। सामाजिक- आर्थिक मोर्चे पर भी कई गहरे बदलाव हुए। इस बदलाव में एक नये किस्म की मानसिक बुनावट निर्मित हुई जो सनातनी संरक्षणवाद और इस्लामी कट्टरवाद के बीच से होकर गुजरती हुई आधुनिक काल तक अहर्निश चली आई है।
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