कहते हैं, बाबा आजकल बहुजन को भूल गए हैं और सहजन के पीछे पगला गए हैं। उनका अब एक नया जीवन – दर्शन है- ‘ सहजन हिताय सहजन सुखाय’।
मैंने पूछा, “ ऐसा क्यों?”
बाबा ने आँखें मूँदकर कर मानो अतीत में डुबकी मारी, शायद बाबा को नहीं मालूम कि रिवर्स गीयर मारते हुए भी आँखें खुली ही रखनी पड़ती हैं। वह जल्दी ही लौट आए, “ क्योंकि बहुजन का हित कभी हो ही नहीं सकता । सारी कोशिशें हुई हैं, बेकार गई हैं और आज से नहीं, सदियों से यह महाप्रयास चल रहा है, हमेशा यह महाफ्लाप ही हुआ है।”
“ लेकिन बाबा, सफलता मिलने तक प्रयास तो जारी रखना चाहिए आपको ?”
बाबा भड़क गए, “ उलूकरत्न कहीं का, हथिया सब डूबा जाए, गीदड़वा पूछे कितना पानी ?”
मैं भौंचक रह गया – बाबा कितने विनम्र हैं ! हाथी होकर खुद को गीदड़ कहते हैं”।
“ मन की बात मन में ही रख प्यारे, हाथी कभी गीदड़ नहीं हो सकता, सहजन को हाथी ही ढूँढता है, गीदड़ नहीं,” बाबा ने हिदायत दी।
लेकिन मैंने फिर पूछा, “ सहजन से क्या भला होगा समाज का ?”
बाबा ने इस बार पलटी मारी, “ समाज का कम, स्वास्थ्य का ज्यादा भला होगा। सहजन खाने से ब्लडप्रेशर, डायबिटीज ... सब कम या तो बिल्कुल खत्तम”।
“ बाबा कहीं आप ड्रमस्टिक की बात तो नहीं कर रहे हैं?”
बाबा मेरी समझदारी पर खुश होकर बोले, “ बिल्कुल सही पकड़ा तूने, लेकिन तुम पेड़ – पौधे पर अटक गए। ”
मैंने विनम्रतापूर्वक कहा, “ क्या है कि बाबा, जिंदगी में इतनी बार ताड़ से गिरकर खजूर पर अटका र्ह कि जमीन पर भी अटका – अटका ही महसूस करता हूँ ।”
बाबा ने मेरी इस इमानदारी पर लट्टू होकर कहा, “ तो ताड़ और खजूर के बाद अब सहजन के साथ भी जीवन के कुछ नवाचारी प्रयोग करोगे तो फिर कोई अनूठा अनुभव मिलेगा”।
“बाबा लेकिन सहजन को ड्रमस्टिक कहते क्यों हैं ?”
बाबा ने कहा, “ देख प्यारे, सहजन होते ही हैं ढोल पीटनेवाले छोटे – छोटे डंडे, थोड़ा भी कुछ करो तो वे ढोल बजना जरूरी होता। ढोल फट भी जाए पर डंडे नहीं टूटते। डंडे साथ नहीं छोड़ते कभी। इसलिए सहजन का हित सर्वोपरि है या बहुजन का ? अब तू ही बता”।
लेकिन बाबा की बेबाकी समझ में आई नहीं मुझे। मैंने फिर खोदा, “ बाबा, बहुजन तो बरगद है, उसकी सघन छांह में कितने प्राणी आकर सुस्ताते हैं, डालों पर कई घोंसले, कोटरों में सरीसृप और न जाने कौन कौन ?”
बाबा तनिक उदास होकर बोले, “ प्यारे, बात सही है, लेकिन बरगद अब सूख रहा है, बिखर रहा है, बस सहजन ही अभी तक सीना ताने धूप में हरा - भरा खड़ा है, उसकी चिथड़ी छाँह ही अब एकमात्र उम्मीद है, और उम्मीद पर ही दुनिया कायम है, कायम – चूर्ण पर तो खाली आयुर्वेद और विज्ञापन की कंपनियाँ कायम है”।
आयुर्वेद से याद आया, “ आयुर्वेद के हिसाब से सहजन का मूल्य क्या है?”
बाबा भड़क गए, “ अरे, तुम तो अब दाम – मोल पूछ रहे हो, बहुजन से तुम महाजन कब बन गए?”
मैंने थोड़ी दबी जुबान से कहा, “ जब से बाबा सहजन के पीछे हो लिए”।
बाबा की तो त्योरी चढ़ गई और उन्होंने कमंडल में तपाक से हाथ डाला, मैं डर गया कि बाबा अब मुझे जल से भस्मीभूत होने का शाप दे ही डालेंगे। थैंक गाड, कमंडलु खाली था। गुस्से में उन्हें याद ही नहीं रहा कि अभी थोड़ी देर पहले ही वह दिसा – मैदान में कमंडलु खाली कर आए थे।
मैंने जब बाबा से माफी की अर्जी की, वे तत्क्षण बोले, “ पहले तुम्हें सहजन के सौ पौधे लगाने होंगे”।
मैं मिट्टी खोद रहा था और बाबा आत्म – मंथन की मुद्रा में शांत बैठ गए।
03/10/2018
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