हरेराम समीप उन समकालीन हिन्दी दोहाकारों में हैं जिन्होंने इस विधा को एक नयी धार दी, नया रूप और नयी आत्मा दी। दोहों में मध्यकालीन रूढ़ की जगह समकालीनता डोलने लगी, दोहे आज की बाजार आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था की नब्ज टटोलने में माहिर हो गए। उभरते मध्यवर्ग के विशाल जन - समूह के अन्तर्द्वन्द्व, संघर्ष, टूटन, हताशा, आशा - आकांक्षा को अभिव्यक्ति देने में आज दोहे कामयाब हो रहे हैं। इस कामयाबी में दोहाकार समीप की भूमिका अप्रतिम है. उनकी इस भूमिका को उनके इन प्रस्तुत दोहों से मूल्यांकित किया जा सकता है।
कुछ प्रतिनिधि दोहे /
संशय के सुनसान में, जला - जलाकर दीप,
दुख की आहट रात भर, सुनता रहे समीप।
रोज खींचता मैं रहा, बालू बीच लकीर,
हवा मिटाती ही रही, आशा की तस्वीर।
इच्छाएँ चारों तरफ खड़ी रही मुस्तैद,
मैं अपने भीतर रहा, जीवन भर यूँ कैद।
इस भारी बरसात में, हैं तूफ़ान अनेक,
ऊपर पर यारों हाथ में, माचिस तीली एक।
स्लीपर फिसलें पाँव में नीचे चिपके कीच,
तालमेल बैठा रहा, मैं दोनों के बीच।
फैल गई जब भुखमरी, बना भूख - आयोग,
उसमें शामिल हो गए, सभी अघाए लोग।
डरो वक्त की जाँच से, रहो न लापरवाह,
उसका खुफिया कैमरा, तुझ पर रखे निगाह।
पुलिस पकड़कर ले गई, सिर्फ उसी को साथ,
आग बुझाने में जले, जिसके दोनों हाथ ।
क्यों रे दुखिया ! क्या तुझे, इतनी नहीं तमीज़,
मुखिया के घर आ गया, पहने नयी कमीज़।
वये आये या वे गये, सबने चूसा खून,
कौन गड़रिया छोड़ता, किसी भेड़ पर ऊन।
एक अनुत्तरित प्रश्न यह, मेरे रहा समक्ष,
बहुमत क्यों इस देश में, बनकर रहा विपक्ष।
उसका है ये वायदा, जीता अगर चुनाव,
तैराएगा एक दिन, वह पत्थर की नाव ।
यह विकास के नाम का, रचा गया जो व्यूह,
जिस दिन समझोगे मियाँ, काँप उठेगी रूह।
घर में खाने को नहीं, फिर भी लेकर लोन,
घूम रहा है इंडिया, लिए हाथ में फोन।
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