करीब पच्चीस साल पहले की बात है। तब मैं बाईस -तेईस साल का रहा होऊँगा। काॅलेज के दिन थे। वय के इस पड़ाव में युवा - सुलभ जिज्ञासा के साथ- साथ एक विशेष तरह का विद्रोहात्मक और परिवर्तनकामी विचारों के प्रति घोर आग्रह का होना बिलकुल स्वाभाविक हुआ करता है। मैं भी इस सार्वकालिक नियम का अपवाद नहीं था।
उन दिनों भागलपुर में रहा करता था। गंगा के तट पर स्थित भागलपुर नगरी आज भी साहित्य- संस्कृति, कला, अध्यात्म और शिक्षा का पारंपरिक केन्द्र है। इस नगरी के साथ मेरे जीवन की कई स्मृतियाँ अटूट रूप से जुड़ी हुई हैं। सिर्फ स्मृतियाँ ही नहीं, मेरी आत्मा पर आज भी इसकी छाप है और यह छाप मेरी अस्मिता का अक्षुण्ण भाग है।
यहाँ एक इतिहासकार से मेरी मुलाकात हुई थी। स्टेशन चौक के एक फोटो स्टूडियो में। फोटो स्टूडियो के मालिक एक अच्छे शायर कहे जा जाते थे। ग़ज़लगो कहे जाते थे। उनके कुछ अशआर बहुत चमत्कृत करते थे। कविताई मेरा भी शौक थी तो अपनी कविता सुनाने की खुजली से परेशान हो मैं भी कभी - कभार उस शायर के पास चला जाता था। उनके पास वो इतिहासकार भी कभी- कभार तशरीफ़ लाते थे। परन्तु उनकी खुजली कुछ भिन्न किस्म की थी। वह थी उनका इतिहास - ज्ञान। शायद वह इस बात के कायल भी थे कि आत्मसंकुचित ज्ञान बहुधा आत्मघाती हुआ करता है। सो अपना अर्जित ज्ञान बाँटने की उनमें जितनी तत्परता थी, उससे कहीं अधिक बेचैनी थी, छटपटाहट थी।
संयोगवश मैं था इतिहास का छात्र। एक ज्ञान - पिपासु छात्र। उनके इतिहास- ज्ञान का मुझसे अधिक उपयुक्त ज्ञान- लाभुक और कौन हो सकता था? सो पहली मुलाकात में ही वह मुझे पहचान गए।
परिचयात्मक औपचारिकता पूरी होते ही महाशय छूट पड़े - "तो आप इतिहास के छात्र हैं?" सवाल पूछने का उनका लहजा ऐसा था कि लगा इतिहास पढ़ना कोई अपराध है। जब मैंने हामी भरी तो उन्होंने दूसरा सवाल दागा- " आप जानते हैं जो इतिहास आप पढ़ते हैं वो गलत है, झूठ है ?" एक क्षण के लिए लगा मेरी सारी पढ़ाई अकारथ गई। परन्तु मेरे मन में तत्काल उम्मीद जागी कि देर ही सही सच्चा इतिहास जानने का अहैतुकी अवसर तो हाथ लगा। मन में जिज्ञासा की फुलझड़ियाँ छूटने लगीं। मैंने लगे हाथ पूछ ही लिया- "आप ही बताएँ सही इतिहास क्या है?" उन्होंने सीधा जवाब नहीं दिया। एक क्षण के लिए आँखें मूँदकर मौन हो गए। शायद वह अपने ज्ञान के गहनतम कोने से कोई कोहिनूर का चमचमाता टुकड़ा टटोल रहे थे और वो टुकड़ा भी आखिरकार उन्हें मिल ही गया। उन्होंने उसकी चमक दिखानी शुरू कर दी। उन्होंने सवाल की शक्ल में अपनी बात रखी - "कुरुक्षेत्र कहाँ है, पता है आपको ?" मैंने कहा - " हरियाणा में है।"
"नहीं, यही तो गलत - सलत बताया जाता है आपके इतिहास में।" भूगोल अब इतिहास में नत्थी होकर प्रकट होनेवाला था ।
"फिर कहाँ है?" - मैंने पूछा।
"यह है कुरसेला में।"
मैंने माथा पकड़ लिया।
"सर, आप ...?"
"हूं हुँक, कुरसेला अर्थात् कुरुशिला, कुरुवंश की उत्पत्ति का क्षेत्र यही है।"
मेरी जिज्ञासा बढ़ गई थी पर वे स्वयं ही आगे बढ़ गए - "और यह जो गोगरी (जमालपुर) है यह दरअसल गोगृह है। यहाँ की घास में गोदूध बढ़ानेवाली शक्ति है। राजा विराट की गायें यहाँ तक चरने आती थीं और उन्हें अपहृत कर ले जानेवाला कर्ण निकट स्थित अंग की राजधानी मुंगेर में ही तो थी। फिर उधर कौरव कुरसेला में विराजमान थे।"
"लेकिन फिर हस्तिनापुर?"
"हस्तिनापुर भी वही कहीं था। कुरसेला के पश्चिम - उत्तर में बिहारीगंज जानते हैं? वहाँ कोई दरियागंज है। वह असली दरियागंज है। दिल्ली का दरियागंज । दिल्ली का क्षेत्र वही था और हस्तिनापुर भी उधर ही कहीं था।"
इतिहासकार के शायर मित्र मुस्कुरा रहे थे और मुझे इस तरह घूर रहे थे कि मानो कहना चाह रहे हों- देखा ? मेरे पास कैसे - कैसे अद्भुत खोजीपुरुष आते हैं?"
"अच्छा अब बताएँ कि ये सारी बातें अगर इसी एक क्षेत्र विशेष की हैं तो इस क्षेत्र के बाहर उस वक्त क्या हो रहा था ? उसका कोई इतिहास ...?"
इतिहासकार थोड़े सकपकाए। फिर अपनी दृष्टि अतीत के और भीतरी मुकाम तक ले पहुँचे।
"देखिए, यह क्षेत्र पूरी पृथ्वी का केंद्र है।"
"कैसे?"
यह जो मंदार पर्वत है न ? यह असली हिमालय है, समुद्र- मंथन इसी पर्वत के सहारे किया गया था, और कैलाश भी यहीं था, बगल में वैजनाथ धाम है न ? शिव ने यहीं कहीं विषपान किया था।"
मैं अचंभित हो सुन रहा था और महसूस कर रहा था कि पृथ्वी के केंद्र में स्थित होकर हम कितने 'केन्द्रीय' हैं।
सभ्यता के आरंभ में मनुष्य ने अपनी निवास - भूमि को ब्रह्मांड का केंद्र माना था, उसके बाद जब ज्ञान थोड़ा विस्तृत हुआ तो पृथ्वी को ब्रह्मांड का केंद्र माना। कालांतर में जब ज्ञान विज्ञान की ओर बढ़ चला तो कहा गया कि सूर्य ही ब्रह्मांड का केंद्र है। जब यह भी असत्य सिद्ध हो गया तो लोगों ने माना सूर्य या हमारा सौरमंडल नहीं बल्कि हमारी आकाशगंगा ही केंद्र में है। अब जब इतनी आकाशगंगाएँ खोज ली गई हैं तो ब्रह्मांड का केंद्र बताने कोई आगे नहीं आ रहा। लेकिन इस इतिहासकार को कौन समझाता ? उनके लिए तो पूरी पृथ्वी का केंद्र मंदार पर्वत के निकट था। पुराण को इतिहास मान बैठने से जो मानसिक दुर्घटना हो सकती है वह उनके साथ हो चुकी थी. परन्तु वह रुकनेवाले कहाँ थे ?
फिर उन्होंने भाषा से संबंधित सवाल पूछे और बताया कि अंगिका सबसे प्राचीन भाषा है और उन्होंने इसकी लिपि की खोज की है। उनका दावा था कि उस लिपि को उन्होंने नया रूप दिया है जो देवनागरी से भिन्न है। लिपि के कुछ नमूने भी दिखाए।
मैंने पूछा - महाशय, इस देश में पहले से ही इतनी भाषाएँ और लिपियाँ है और उनके नाम अपने - अपने दावे और झगड़े हैं तो आप एक और लिपि गढ़कर क्या संदेश देना चाहते हैं, संस्कृति के विकास में कौन - सा योगदान देना चाहते हैं ? क्या आप झगड़े नहीं बढ़ा रहे ? "
मेरी बात से उन्हें थोड़ी मिर्ची लगी और वह थोड़ा भड़क भी गए। मोहतरम शायर ने उन्हें शांत करने की कोशिश करते हुए कहा- "आपने बेशक महान योगदान दिया है, आप अंगिका लिपि के जन्मदाता हैं, आप आपा न खोएँ, ये नए लड़के- बच्चे हैं सवाल तो उठाएँगे ही न ?"
आज इस बात के हुए करीब पच्चीस साल गुजर गए। मालूम नहीं वह इतिहासकार इस दुनियाँ में अभी हैं या नहीं लेकिन ऐसे इतिहासकार की तथावर्णित मानसिकता और सोच अभी भी अवश्य है। इस देश की सबसे बड़ी समस्या यही है कि सब अपने - अपने क्षेत्र, स्थानीय संस्कृति, भाषा - बोली आदि को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने में लगे हैं। सभी स्वयं को 'केंद्रीय' और 'प्राचीनतम' सिद्ध करने में लगे हैं। हो भी क्यों नहीं, 'अहं ब्रह्मास्मि' के वाग्वाहक विश्वगुरू हमीं जो ठहरे !!
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