बुद्ध: स्मृति से स्मरण तक / दिलीप दर्श

बुद्ध: स्मृति से  स्मरण तक

बुद्ध जयंती पर सभी बुद्ध को याद कर रहे हैं और सभी उन्हें याद भी क्यों न करें ??  
इस व्यक्ति से बड़ी मनीषा शायद ही इस ग्रह पर आई। सिर्फ मनीषी नहीं, एक करुणावान् पुरुष जिनका सारा प्रयास इसी जगत् को बेहतर बनाने को लेकर है । उनकी देशना में कहीं कोई परलोक को पाने का लोभ नहीं है न ही मृत्योपरांत दंड भोगने का भय। इस अर्थ में बुद्ध एकमात्र शिक्षक या पैगंबर हैं जो सर्वाधिक आधुनिक हैं। ढाई हजार साल पुराना होकर भी आज से भी आगे हैं । वे पहले और अभी तक के अंतिम व्यक्ति हुए जिन्होंने मनुष्य को सही अर्थों में मनुष्यतर बनाने का मार्ग बताया। उसे देवत्व या स्वर्ग नहीं चाहिए, उसे बस दुखमुक्त जीवन चाहिए । यही नहीं, वे हमें प्रश्न उठाने के लिए तैयार करते हैं, संदेह करने के लिए प्रेरित करते हैं।
सभी पैगंबर प्रचारित धर्म के पैगम्बर जहाँ ईमान या फेथ लाने की बात करते हैं, लोगों को सिर्फ विश्वास या बिलीफ पर टिके रहने को कहते हैं और इस बात पर बार बार जोर देते हैं कि पैगंबर जो कहते हैं उसे छोड़कर किसी और की बात कतई ईश्वरीय वचन नहीं हो सकते और उन पर यकीन रखना ही एकमात्र विकल्प है, वहीं बुद्ध ऐसा नहीं कहते। वे कहते हैं - तुम मेरी बात सिर्फ इसलिए मत मानो कि इसे मैं कह रहा हूँ, इस पर विचारो, सोचो, ठीक लगे तो करो अन्यथा तुम्हारी मर्जी।"
जाहिर है कि बुद्ध ढाई हजार साल पहले ही मनुष्य को स्वयं सोचने की स्वतंत्रता दे चुके थे। 
उनकी इसी प्रेरणा ने भारत में संदेहवाद ( scepticism) को जन्म दिया और इसी संदेहवाद ने प्राचीन भारत में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को जन्म दिया, परिणाम स्वरूप उस काल में तर्क और विज्ञान की धारा मजबूत हुई । आधुनिक विज्ञान की नींव की पहली ईंट यही संदेहवाद है जिसपर आधुनिक जीवन की पूरी इमारत खड़ी है ।
दूसरी बात, साहित्य में जो लोक - धारा आई है उसका भी उत्स बुद्ध के उस साहस में है जिसके साथ उन्होंने लोक भाषा पालि को अपने आध्यात्मिक एवं वैचारिक ज्ञान के उद्दात्त एवं कठिन निष्कर्षों को आम लोगों के समक्ष रखा अन्यथा 'देवभाषा' की दिव्यता से आविष्ट होकर रह जाने का मोह उन्हें भी तो रहा ही होगा। इस व्यामोह ने भारतीय मानसिकता को जो क्षति पहुंचाई है वह आज सबके सामने है। 
भारत अगर जीवित अनुभव बनकर कठिन समय में भी जिंदा रहा तो लोक - भाषा की ही बदौलत। अवहट्ट संतों या सिद्धों- नाथों से लेकर कबीर, तुलसी, सूर, नामदेव, अलवार, नैनार, धन्ना, पीपा, दादू, रैदास, फरीद जैसे और न जाने कितने हुए जिन्होंने वेदांत के तत्वों को लोक - भाषा में जीवित रखा। बुद्ध के बाद जो लोक - पुरुषों की परम्परा आरंभ हुई वह आजादी के दिनों में एक नये उत्कर्ष पर पहुँच गई जब राष्ट्रवादी जन - आंदोलन ने पूरे विश्व को अनुप्राणित किया और जो आज भी किसी भी भारतीय भाषा के समकालीन साहित्य में बदस्तूर जारी है । 
यही नहीं, मध्यकाल के आरंभिक दौर तक पूरा एशिया और आधा से अधिक यूरोप बुद्ध की प्रतिमाओं से पट गया था। यह सिर्फ प्रतिमा की स्थापना नहीं थी, प्रतिमा तो प्रतीक थी भारतीय मनीषा की श्रेष्ठता और स्वीकार्यता की। प्रतिमा के पीछे भारतीय संस्कृति की मूल आत्मा थी जो तीर - तलवार को इस दिग्विजय की इस अद्भुत यात्रा में व्यर्थ साबित कर चुकी थी।
मध्यकाल के बर्बरों ने मनुष्यता की इस उच्चतर और महत्तर चेतना को फिर आदिम चेतना की ओर धकेलकर जितनी क्षति पहुंचाई उसकी भरपाई अब असंभव है ।
हथियारों की होड़ और मजहबी एकाधिकार के अहंकारी जज्बे में जब्त मानसिकता के साथ हम आज भी इस आदिम जंगली बर्बर संस्कृति में जीने को अभिशप्त हैं । हमने बुद्ध को विलुप्त कर अपनी ही मुक्ति खो दी है। बुद्ध अभी भी वहीं खड़े हैं शिखर पर हमारी राह देखते हुए, हम हैं कि ढलानों पर फिसलकर बस अधोमुख गिर रहे हैं । 
यह समय है आत्ममंथन का, आत्मावलोकन का कि आखिर हम कबतक गिरते रहेंगे और कहाँ तक....
उस युग-पुरुष को कोटि-कोटि नमन !

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