कैलाश मनहर मूलत: जनपक्षधरता के कवि हैं। परन्तु उनकी जनपक्षधरता में आधुनिक मनुष्य के व्यक्तिगत अन्तर्द्वन्द्व मौन या चुप्पी के शिकार नहीं होते वरन् और भी मुखर होकर प्रकट होते हैं। यही मुखरता कवि की रचनात्मकता को मुकम्मल भी बनाती है। प्रस्तुत ग़ज़ल में कैलाश मनहर व्यक्तिगत अन्तर्द्वन्द्व से घिरे निजी यथार्थ की गहन छानबीन करते प्रतीत होते हैं। ऐसी ग़ज़ल समय की मांग भी है और पाठकीय आस्वादन के परिष्कार का सजग प्रयास भी। आप भी पढ़ें और अपने समय के यथार्थ में झाँकें।
ग़ज़ल/ वक्त के भीतर हूँ मैं
वक़्त के भीतर हूँ मैं या वक़्त है भीतर मेरे,
मैं बलाओं के हूँ सर या हैं बलायें सर मेरे।
राहों पर हैं पाँव या पाँवों में हैं राहें मेरी,
मैं भरोसे घर के हूँ या है भरोसे घर मेरे।
उम्र भर सोचा किया और उम्र बीती सोच में,
मैं ही जाऊँ उसके दर या आयेगा वो दर मेरे।
एक दुनिया मुझ में है और एक दुनिया में हूँ मैं,
मैं हूँ कमतर कौनसी से कौनसी कमतर मेरे।
इन सवालों में ही डूबा हूँ मैं आधी रात को,
मैं मुका़बिल हूँ डरों के या मुका़बिल डर मेरे।
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